एक खूबसूरत शहर चंडीगढ़ ,चार लोगों का सुंदर, सुखी , हंसता खेलता मध्यम वर्गीय परिवार। पति सुबोध, पत्नी मीना, 6 वर्षीय पुत्री ख्याति और 4 वर्षीय पुत्र यश।
सुबोध की किरयाने की छोटी सी दुकान थी घर के बाहर वाले कमरे में और उसकी पत्नी मीना घर संभालती थी। जब सुबोध दुकान के लिए सामान लेने जाता था तब वह दुकान भी संभाल लेती थी। उसके मायके में सिर्फ बूढ़े मां-बाप ही थे।
रविवार को जब बच्चों की स्कूल की छुट्टी होती या फिर जिस दिन दुकान की छुट्टी होती, चारों मिलकर खूब मस्ती करते। कहीं ना कहीं घूमने जाते। कभी चंडीगढ़ का रोज़ गार्डन, कभी पिंजौर गार्डन, कभी सुखना झील या फिर कभी किसी गुरुद्वारे में माथा टेकने चले जाते। और कभी-कभी तो केवल घर पर बैठकर गोलगप्पे खाकर ही खुश हो लेते थे ।
सुबोध बेटे और बेटी को कभी आंखों से ओझल नहीं होने देता था। बच्चे भी पापा पापा कहते थकते नहीं थे। सुबोध कहता था मैं बहुत मेहनत करूंगा, ज्यादा पैसे कमाने की कोशिश करूंगा और अपने बच्चों का भविष्य बहुत सुंदर बनाऊंगा।
वह बेटे को पायलट और बेटी को शिक्षिका बनना चाहता था। साथ ही वह यह भी कहता था कि मैं अपनी इच्छा कभी भी अपने बच्चों के ऊपर हावी नहीं होने दूंगा, अगर बड़े होकर भी कुछ और बनना चाहेंगे,तो मैं मना नहीं करूंगा। यश से भी ज्यादा ख्याति में उसकी जान बसती थी। वो भी थी पापा की दीवानी। जब सब मिलकर खाना खाते तब पहला निवाला अपनी रोटी से तोड़कर सबसे पहले पापा को खिलाती, बाद में खुद खाती थी। जब तक पापा स्कूल के गेट पर लेने ना आ जाए, तब तक वहां से हिलती तक नहीं थी।
एक बार सुबोध से कहने लगी-“पापा आंखें बंद करो, मैं आपको चॉकलेट खिलाऊंगी, फिर आप टेस्ट करके बताना कि मैं आपको क्या खिलाया है?”
सुबोध उसके भोलेपन पर बहुत हंसा और मीना की भी हंसी नहीं रूक रही थी।
सुबोध ने आंखें बंद कर ली और ख्याति ने उसके मुंह में चॉकलेट डाली और पूछने लगी कि बताओ मैं आपको क्या खिलाया?
सुबोध ने कहा-“अरे बिटिया, क्या खिलाया तुमने यह तो बहुत अच्छा है पर मुझे इसका नाम याद नहीं आ रहा।”
ख्याति अपने छोटे-छोटे हाथ मुंह पर रखकर हंसते हुए बोली-“पापा आप तो बुद्धू निकले, यह तो चॉकलेट है।”
सुबोध-“अरे हां सच्ची में यह तो चॉकलेट है। चलो अब तुम आंखें बंद करो, मैं भी कुछ खिलाता हूं, यश बेटा आप भी आंखें बंद करो।”
दोनों बच्चों की आंखें बंद करने के बाद सुबोध ने उनके मुंह में कुछ डाला। उस चीज को टेस्ट करते ही दोनों बच्चे खुशी से चिल्लाए”जलेबी”, दोनों को जलेबी बहुत पसंद थी। जब भी सुबोध दुकान के लिए माल खरीदने बड़े बाजार जाता था, बच्चों के लिए कुछ ना कुछ मीठा जरूर लाता था।
एक बार सुबोध को बुखार हो गया। दोनों बच्चे उसके पास बैठकर अपने छोटे-छोटे हाथों से बहुत देर तक उसका माथा सहलाते रहे। ख्याति उस दिन बहुत उदास दिख रही थी। यश अभी छोटा था उम्र के हिसाब से उसमें उतनी समझ नहीं थी।
सुबोध का एक पक्कम पक्का दोस्त भी था शिव। दोनों की बचपन वाली यारी थी। शिव उम्र में सुबोध से थोड़ा छोटा था। दोनों जब तक एक दूसरे को मन की बातें बता नहीं लेते थे दोनों को चैन नहीं पड़ता था। शिव उनके परिवार का प्यार देखकर बहुत खुश होता था। वे दोनों सदा सुख दुख में एक दूसरे का साथ निभाते थे। कुछ ही दिनों में शिव का विवाह नीरू से होने वाला था।
सर्दियों के दिन थे। कड़ाके की सर्दी पड़ रही थी। सुबोध को माल लेने जाना था। कमाई को बढ़ाने के लिए उसने अपनी दुकान पर दूध की थैलियां, अंडे और ब्रेड भी रखना शुरू कर दिया था और सही में कमाई थोड़ी बढ़ गई थी।
उसने मीना को थोड़ी देर के लिए दुकान की देखरेख करने को कहा और बड़े बाजार चला गया। हर बार की तरह उसने रिक्शा में सामान लदवाया और रिक्शा वाले को घर की तरफ रवाना करते हुए बोला-“तुम घर पहुंचे और सामान उतारो मैं थोड़ी देर में आता हूं और हां, यह पैसे रख लो, कुछ खा लेना, ऐसा लग रहा है तुमने सुबह से कुछ खाया नहीं है।”
रिक्शावाला सचमुच भूखा था पर फिर भी उसने कहा-“आपका सामान पहुंच कर मजदूरी मिल जाएगी भाई जी, आप यह पैसे ₹50 अलग से मत दीजिए।”
सुबोध-“रख लो भाई, तुमने थोड़ी ना मुझसे मांगा, मैं अपनी मर्जी से दे रहा हूं, ले लो कुछ खा लेना।” सुबोध हर बार रिक्शा वाले को कुछ ना कुछ किसी न किसी बहाने से दे देता था।
रिक्शा वाले ने पैसे ले लिए और उसके बच्चों को दुआएं देते हुए घर की तरफ रवाना हो गया।
शाम हो रही थी। सुबोध अभी घर नहीं आया था। सर्दी में अंधेरा भी जल्दी हो जाता है। मीना को बड़ी चिंता होने लगी थी। देखते देखते सात बज गए। अब तक सुबोध आया नहीं था। वैसे तो वह 4:00 बजे तक आ जाता था। वह अपने टू व्हीलर पर गया था जोकि एक-एक पैसा जोड़कर उन लोगों ने खरीदा था। इसके अलावा उसके पास सिर्फ अपना वॉलेट था, जिसमें उसने परिवार की तस्वीर लगा रखी थी। मीना की समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करे। उसके पास इंतजार करने के अलावा कोई रास्ता नहीं था। इंतजार करते-करते आठ बज गए। अब उससे रहा नहीं गया और वह सुबोध के दोस्त शिव के घर गई। उसका घर उसी गली में था। उसने सुबोध के बारे में बताया।
शिव ने कहा-“मैं बड़े बाजार जाकर देखता हूं और अगर दुकान खुली होगी तो दुकानदार से पूछ लूंगा, शायद कुछ पता चल जाए।”
शिव अपना टू व्हीलर लेकर चला गया। थोड़ी देर बाद उसने आकर बताया कि सुबोध माल घर भिजवाने के बाद दोपहर को ही चला गया था। अब इंतजार करने के अलावा कोई रास्ता नहीं था। सुबह हुई, शाम हुई, सुबोध नहीं आया। शिव के साथ जाकर मीना ने पुलिस स्टेशन में सुबोध के गुमशुदा होने की रिपोर्ट दर्ज करवा दी।
उधर बच्चे पापा को याद कर रहे थे। मीना ने उन्हें दिलासा देते हुए कहा-“तुम्हारे पापा किसी काम से दो-तीन दिन के लिए कहीं दूर गए हैं, काम निपटाकर जल्द ही आ जाएंगे।”
दो-तीन दिन तक बच्चे हर आहट पर दरवाजे की तरफ देखते थे पर मीना से सवाल नहीं करते थे। 3 दिन बीत गए तब ख्याति जोर-जोर से फूट फूट कर रो पड़ी और मीना से बोली-“मम्मी बताओ ना, पापा कब आएंगे?”
मीना क्या बोलती, वह तो खुद रो पड़ी। क्रमशः
(आगे की कहानी जल्द ही दूसरे भाग में)
स्वरचित अप्रकाशित गीता वाधवानी दिल्ली