सुबह के दस बजे थे। रमा अपने छोटे से घर में किचन में काम कर रही थी। किचन से हल्की हल्की खुशबू आ रही थी, पर उसके चेहरे पर वही पुराने दिन का थकान और भावनाओं का बोझ साफ़ झलक रहा था।
इतने वर्षों में रमा ने जाने कितनी मुश्किलें देखी थीं। पंद्रह साल पहले उसके पति अचानक दिल का दौरा पड़ने से चल बसे थे, उस वक्त उसकी बेटी स्नेहा बस तीन साल की थी। एकाएक दुनिया ही बदल गई थी रमा की।
रिश्तेदारों ने बहुत बातें बनाईं, कुछ ने सहानुभूति दिखाई, लेकिन ज्यादातर ने यही कहा – “अब अकेली औरत कैसे संभालेगी सब कुछ?”। मगर रमा ने हार नहीं मानी। उसने छोटे-छोटे ट्यूशन पढ़ाकर शुरुआत की और कुछ वर्षों बाद एक प्राइवेट स्कूल में नौकरी मिल गई।
स्नेहा को पढ़ाया, अच्छी शिक्षा दिलाई, उसे पैरों पर खड़ा किया। आज स्नेहा एक मल्टीनेशनल कंपनी में मैनेजर है, दिल्ली में रहती है, अपनी जिंदगी अपने तरीके से जी रही है।
पर रमा के अकेलेपन की कहानी अभी भी वही थी। स्कूल की नौकरी से रिटायर होने के बाद दिन भर घर में सन्नाटा रहता, शाम होते-होते खिड़की से बाहर का नजारा देखती और पुरानी यादें दिल में ताजा हो जातीं। स्नेहा अक्सर कहती, “माँ, दिल्ली चलो, मेरे साथ रहो।” मगर रमा को अपना शहर, अपना मोहल्ला, अपनी यादें सब प्यारी थीं।
आज स्नेहा घर आई थी, वही पुराना कमरा, वही मां की गोदी में सिर रखकर बातें करना, सब बहुत अच्छा लग रहा था। खाना खाते वक्त अचानक स्नेहा बोली, “माँ! आज अंकल मिले थे।”
रमा ने बिना सिर उठाए कहा, “अच्छा!”
“वो देवदर्शन को निकल रहे हैं, तुम्हें भी बुला रहे थे।” स्नेहा ने मां के चेहरे के हाव-भाव पढ़ने की कोशिश की।
“नहीं, पहले ही कितनी बातें बना चुके हैं लोग…” रमा ने झिझकते हुए जवाब दिया, मानो मन ही मन डर हो कि बेटी क्या सोचेगी।
स्नेहा मुस्कराई, “बस यही तो बात है! अरे, लोग हैं, वो तो कहेंगे ही। उनके डर से जीना छोड़ देंगे क्या? तुमने जब पापा के बाद अकेले सब संभाला, तब भी लोगों ने कुछ कम नहीं कहा था।”
रमा एक पल के लिए चुप हो गई। स्नेहा की बातों में सच्चाई थी, लेकिन वर्षों की सामाजिक वर्जनाओं और संस्कारों की परछाईं उसकी सोच पर भारी पड़ जाती थी।
“माँ! मुझे तीन साल का छोड़कर पापा चले गए थे। तुमने ही पापा की जगह भी निभाई, नौकरी की, मुझे पाला-पोसा, योग्य बनाया, आज मैं अपने पैरों पर हूं, तुम्हारे साथ नहीं रह पाती। क्या तुम अपनी बाकी जिंदगी भी बस ऐसे ही काट दोगी? अपने लिए भी तो कभी सोचना चाहिए।”
रमा के दिल को स्नेहा की बात चुभ गई। वह जानती थी कि उसकी बेटी सच कह रही है।
“तो जी तो रही हूं,” रमा ने धीमे स्वर में कहा।
“माँ, तुम दोनों साथ में रहोगे, तो जीवन बदल जाएगा। कितनी खुश रहोगी, किसी अपने के साथ। अंकल भी अकेले हैं, ऑफिस में ही थे न, तुम्हारे पुराने साथी? इतने साल से वो भी अकेले ही रह रहे हैं। क्या गलत है अगर तुम दोनों साथ में देवदर्शन चली जाओ?”
रमा की आँखों में पानी आ गया। समाज क्या सोचेगा, रिश्तेदार क्या कहेंगे, मोहल्ले वाले क्या बातें बनाएंगे—इन सबका डर उसके मन में था।
“अभी सोचती हूं,” रमा ने नजरे झुकाते हुए कहा। “तू अपने जाने की तैयारी कर।”
स्नेहा मुस्करा कर बोली, “मैने अंकल से बात कर ली है, उन्होंने आपकी बुकिंग भी करवा दी है, बस अब आपको हां कहना है।”
रमा ने आश्चर्य से स्नेहा की ओर देखा।
“हाँ माँ! सब तैयारी मैंने तुम्हारी कर दी है, मैचिंग साड़ी के साथ एसेसरी भी रखी है। मुझे पिक्चर भेजना,” स्नेहा ने हँसते हुए कहा।
रमा ने गहरी साँस ली। वह जानती थी, आज की पीढ़ी में उसके जैसे डर नहीं हैं, लेकिन उसके मन में पुरानी सोच की जड़े गहरी थीं। स्नेहा का साथ और विश्वास देखकर उसके मन का डर थोड़ा कम हुआ।
अगले दिन
सवेरे का सूरज कमरे में झाँक रहा था। रमा तैयार हो रही थी। नई हरी साड़ी, हल्के गहने, और चेहरे पर हल्की सी मुस्कान। इतने सालों बाद खुद को सजाते हुए उसे अपने पुराने दिन याद आ गए। एक नन्हा सा डर अब भी उसके दिल में था—क्या लोग ताने देंगे? क्या मोहल्ले में बातें होंगी? मगर स्नेहा की बात बार-बार उसके मन में गूंज रही थी, “माँ, अपने लिए जी लो।”
घर की घंटी बजी। स्कूल के दिनों के साथी, विजय जी दरवाजे पर थे। वो भी अकेले ही थे, वर्षों से दोनों एक दूसरे को सिर्फ समाज के डर से दूर-दूर से देखते आए थे।
“नमस्ते रमा जी,” विजय जी ने मुस्कराकर कहा।
रमा ने हल्की मुस्कान के साथ सिर झुका दिया। दोनों साथ देवदर्शन जाने के लिए निकल पड़े। रास्ते में ज्यादा बातें नहीं हुईं, लेकिन दोनों के चेहरों पर एक नई उम्मीद, एक नया सुकून दिख रहा था। मंदिर के पास पहुँचकर, दोनों ने भगवान के सामने सिर झुकाया, और मन ही मन अपने नए जीवन के लिए शुभकामनाएँ मांगीं।
शाम को
स्नेहा को माँ की फोटो मिली—रमा सजी-धजी, हल्की मुस्कान के साथ, विजय जी के साथ देवदर्शन के सामने खड़ी थीं। स्नेहा की आंखें खुशी से भर आईं।
स्नेहा ने जवाब में मैसेज किया—”माँ, आज बहुत खूबसूरत लग रही हो! Proud of you!”
रमा ने फोन देखा, आँखें नम थीं, लेकिन दिल में वर्षों बाद एक नयी खुशी और आज़ादी महसूस हो रही थी।
दोस्तो जिंदगी हर किसी को दूसरा मौका देती है। समाज की परवाह किए बिना, हर व्यक्ति को अपने हिस्से की खुशी और सुकून पाने का अधिकार है। बच्चों का कर्तव्य है कि वे अपने माता-पिता के मन की बात को समझें और उन्हें भी अपनी बाकी जिंदगी अपने तरीके से जीने का हक दें।लेखिका : डॉ विद्यावती पाराशर