हर रोज़ की तरह आज की सुबह भी वैसी ही थी। ममता जी ने सुबह उठकर अपने काम निपटाए और नहा धोकर मंदिर में पूजा की। उनकी सुबह सवेरे पांच बजे उठने की शुरू से ही आदत थी। पूजा कर वह उठी तो देखा उनकी बेटी पूनम मुस्कुराती हुई उन्हीं के पास खड़ी थी।
उन्हें उठते देख उनके गले में बाहें डालते हुए पूनम बोली,” मां, आज तुम रहने दो आज का नाश्ता मैं बनाऊंगी”।
“सच में”
” हां… मैं इतना भी बुरा नहीं पकाती हूं”, पूनम बनावटी गुस्से से बोली।
” हां हां… जानती हूं.. तू बेहतरीन कुक है”, हंसते हुए ममता जी ने कहा।
दोनों मां बेटी ही एक दूसरे की ज़िंदगी थी। पूनम के पिता का निधन तब हो गया था जब वह छोटी थी।
नाश्ता करने के बाद पूनम दफ़्तर जाने के लिए तैयार हो गई। आज की सुबह उसके लिए अलग थी। आज एक नई सुबह थी जो उसके लिए एक नई उमंग, नई स्फूर्ति लेकर आई थी। आज उसे अपने दफ़्तर में मैनेजर का पद संभालना था ।कुछ दिन पहले ही उसे प्रमोशन लेटर मिला था..पर यह सब उसके लिए इतना आसान नहीं था इसके पीछे उसकी कड़ी मेहनत और लगन थी।
पूनम दफ्तर पहुंची तो सबने बड़ी गर्मजोशी के साथ उसका स्वागत किया ।अपने मधुर व्यवहार की वजह से वैसे भी वह अपने सहकर्मियों के बहुत करीब थी पर साथ साथ अनुशासन में काम करना भी उसका एक बहुत बड़ा गुण था जो उसे आज इस मुकाम तक ले आया था।
शाम को उसके सहकर्मियों ने एक छोटी सी पार्टी रखी थी। मालनी उन्हें चाह कर भी मना नहीं कर पाई थी। कुछ सहकर्मी तो उससे उम्र में बड़े थे जिनका वह सम्मान करती थी और एक दो नए भी थे जो उससे बहुत प्रभावित थे.. ज़ाहिर था इतनी कम उम्र में मैनेजर की पोस्ट पर आना आसान नहीं था ।
“मैम, अपने बारे में कुछ बताएं “,रूपा ने पूछा उसे अभी चार-पांच महीने ही हुए थे दफ़्तर आते हुए।
“मैंने भी बाकी लोगों की तरह ही कॉलेज की पढ़ाई के साथ साथ ही कंपटीशन की तैयारी की और आज देखो तुम्हारे सामने हूं”, पूनम मुस्कुराते हुए बोली।
“मैम, मैंने सुना है आपने पहली बार में ही प्रवेश परीक्षा पास कर ली थी और इंटरव्यू राउंड भी “,दूसरा सहकर्मी राजीव बोला।
‘हां’ पूनम ने सहमति में सिर हिलाया।
“आपके परिवार की बहुत सपोर्ट होगी ना तभी इतनी लगन से मेहनत कर पाई”, रूपा फिर से बोली।
“हां बहुत सपोर्ट थी.. मेरी मां की। मेरे परिवार में सिर्फ मेरी मां ही हैं… पिताजी का तो बरसों पहले ही निधन हो गया था। हां मैं शुक्रगुज़ार हूं अपने रिश्तेदारों की… सच कहूं तो आज मैं उन्हीं की वजह से यहां पर हूं”।
” इसका मतलब आपके रिश्तेदार बहुत अच्छे थे”, किसी और ने पूछा।
“बहुत अच्छे इतने अच्छे की पिता के निधन के बाद उन्होंने कभी हमें पूछा ही नहीं”, पूनम धीमे से हंसी।
“मतलब”
“मतलब यह कि मेरे पिताजी के एक बड़े भाई और दो बहनें थी।मां अपने माता-पिता की इकलौती बेटी थी और मेरे नाना नानी का स्वर्गवास हो चुका था। पिताजी का व्यापार अच्छा खासा था। हमारे घर सदा रौनक लगी रहती। त्यौहारों पर मां हमेशा बुआ के तोहफे खरीदने में व्यस्त दिखाई देती ।
“बेटियां घर से खाली हाथ जाती अच्छी नहीं लगती”, वह हमेशा कहती।
समय गुज़र रहा था मैं कोई 8 बरस की थी पिताजी को व्यापार में बहुत बड़ा नुकसान हुआ। बाहर जाने वाले किसी माल की सारी पेमेंट डूब गई थी मुझे बस इतना ही पता था। पिताजी चुप चुप से रहने लगे थे शायद उन्हें बहुत बड़ा सदमा लगा था। धीरे-धीरे उन्होंने बिस्तर पकड़ लिया। मां भी परेशान सी दिखाई देती… अब हमारे घर में रौनक खत्म हो गई थी ।
फिर एक दिन अचानक से पिताजी हमें छोड़ कर चले गए शायद वह अपने नुकसान का सदमा बर्दाश्त नहीं कर पाए थे। सबका आना धीरे-धीरे काफी कम होता गया और फिर बंद हो गया। किसी ने पूछने की ज़हमत नहीं उठाई कि हम दोनों का जीवन कैसे चलेगा।
मेरे ताया जी का घर हमारे घर से दो गली छोड़कर ही था। एक दिन मैंने बुआ की गाड़ी को उनके घर के बाहर देखा। शाम तक मुझे उनका इंतज़ार रहा। मां से पूछा तो वह बोली,” तेरी बुआ जानती है ना कि मुझे और भी काम है इसलिए यहां नहीं आई… कोई बात नहीं अगली बार आएगी”, बोलते वक्त कितनी बार मां ने अपना चेहरा मुझसे छुपाने की कोशिश की थी… मैंने देख लिया था।
वक्त बीतता गया… मैं थोड़ा और बड़ी हो गई थी लेनदेन का काम तो पिताजी के होते ही हो गया था। अब गुज़र-बसर के लिए मां पास के दर्जी़ से तुरपाई के लिए कपड़े ले आती अपने नाम के अनुरूप उन्होंने ममता कभी नहीं छोड़ी थी। शाम को वह ट्यूशन पढ़ाना भी शुरू कर चुकी थी। घर काफी बड़ा था तो दो कमरे किराए पर भी दे दिए तो ज़िंदगी कट रही थी।
मैं अब कॉलेज में आ गई थी। वक्त के थपेड़ों ने उम्र से पहले ही मुझे काफी समझदार बना दिया था। दोनों बुआ और बड़े पापा कभी कभी मिलने आते और आकर ढेरों हिदायतें दे जाते ,”लड़की पर नज़र रखा कर.. बिन बाप की लड़कियों को डर खत्म हो जाता है “,बड़े पापा के मुंह से ऐसे शब्द सुनकर मेरा मन आहत हो गया… पर शायद उनके इन्हीं शब्दों ने मेरे जीवन का रुख बदल दिया था। मैं कुछ करना चाहती थी… कुछ बनना चाहती थी… मैं यह साबित करना चाहती थी कि यह बिन बाप की लड़की कहीं भटकी नहीं है आज भी उसके अंदर अपने पिता के दिए हुए संस्कार हैं।
मैंने कॉलेज की पढ़ाई के साथ-साथ कुछ बच्चों को घर जाकर पढ़ाना शुरू कर दिया। अच्छे पैसे मिलने लगे थे जब मेरी पहली कमाई आई तो मैंने वो पैसे मां को दे दिए मां ने आंसू भरी आंखों से पिताजी की तस्वीर की तरफ देखा.. वह मंज़र आज भी मेरी आंखों के सामने है। मुझे सच में पहली बार बहुत खुशी हुई थी। मैंने मां को सिलाई का काम करने से पूरी तरह से मना कर दिया था। मेरी पहली कमाई ने ही मुझे और आगे बढ़ने का हौंसला दिया था।
“अब बेटी को कमाई पर लगा दिया… अच्छा लगता है दूसरों के घरों में भेजते हुए”, बड़े पापा फिर आ धमके थे
वक्त बेवक्त अपना रौब झाड़ने आना उनकी फितरत थी… पर मैं शुक्रगुजार हूं उनकी फिर से उन्होंने मुझे झकझोर दिया था नहीं तो शायद मैं ट्यूशन ही पढ़ाती रह जाती।
मैंने कॉलेज के साथ-साथ कंपटीशन की डटकर तैयारी शुरू की। कभी कभी अगर मनोबल टूटता भी तो ऐसे रिश्तेदारों को याद कर लिया करती। हां इन सब में मुझे मेरे अध्यापकों और मेरी मां ने बहुत सहयोग दिया। जानते हो जब मुझे यह नौकरी मिली तो सबसे पहले बधाई देने वालों में से मेरे बड़े पापा और बुआ ही थे।
तब से आए दिन मेरी बुआ मुझे फोन करती है और अपनी बेटियों को मुझ से सलाह लेने को बोलती है। मैं शुक्रगुज़ार हूं उनकी कि इतने सालों में उन्होंने मुझे फोन नहीं किया नहीं तो शायद मेरे अंदर कुछ बनने की ज़िद भी ना आती जिसकी वजह से मैं आज आप सब के साथ यहां बैठी हूं और ना ही कभी अपना आत्मसम्मान बचा पाती…तो कभी भी अगर कोई रिश्तेदार आपको कोई ऐसी बात कहे तो उसे एक चुनौती की तरह स्वीकार करें और उन्हें गलत साबित करने में जुट जाएं”, पूनम हंसते हुए बोली।
सब ने मिलकर तालियां बजाई… एक बार फिर से बधाईयों का दौर शुरू हो गया… सब खाने पीने में व्यस्त हो गए। पूनम के मोबाइल पर उसकी बुआ का नंबर चमका और उसके होंठों पर फिर से एक मुस्कान तैर गई।
स्वरचित
#आत्मसम्मान
गीतू महाजन,
नई दिल्ली।