तपती दोपहरी में घर से निकलना अपनेआप को लू-लहर के चपेटे में झोंक देना है। मुग्धा ने दुपट्टा खींचकर मुँह कान ढंकने का असफल प्रयास किया।
न एक रिक्शा न कोई सवारी…।
वह लगभग दौड़ती हुई आगे बढी़। घर यहाँ से डेढ-दो किलोमीटर ही है लेकिन… भीषण गर्मी से सड़कें वीरान है।
आज से कुछ वर्षों पूर्व यह सड़क पतली सी थी। दोनों ओर घने, फलदार वृक्ष लगे हुये थे। न तब इतनी चारपहिया गाडियां थी न लोगों का रेला ।मौसम में कच्चे पक्के फल गिरे रहते जिसे आसपास के बस्ती के बच्चे बड़ी स्वाद से खाते।
राहगीरों को पेड़ों की घनी छाँव सर्दी-गर्मी से बचाती… बारिश की बूंदे टप-टप चूकर माथे को भिंगो देती और धूप से बचाव करती… लगता था सिर पर बडे़-बुजुर्गों का हाथ है… कितना सुकून… चिंतारहित जिंदगी।
लेकिन जबसे विकास के नाम पर घरों, सड़कों, फ्लाईओवर का निर्माण शुरु हुआ है सभी पेड़ पौधों की अंधाधुंध कटाई… जल स्रोतों नदी नालों को भरकर अपार्टमेंट का निर्माण… रहवासियों का जीवन ही बदल गया है।
मन ही मन कुढते हुये मुग्धा घर पहुंची।
नीला लिफाफा मेंज पर मुँह चिढा़ रहा था।
“क्या करूं रानी, प्रयास में हूं… काम निपटाकर जल्दी घर लौटूं। “
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“हूँ… हूँ.. वही रटा-रटाया जवाब ” मुग्धा जलभुन गई।
दर असल मुग्धा के पति रमण फौजी थे। दोनों बच्चे आर्मी स्कूल के हाॅस्टल में रहकर पढाई कर रहे थे। फौजी पति किसी विशेष मिशन पर थे जहाँ परिवार रखने की अनुमति नहीं थी। फोन और दूसरे साधनों का उपयोग भी शायद वर्जित था। हां महीने दो महीने में चंद पंक्तियों की चिट्ठियां अवश्य आती थी।
जिससे मुग्धा की चिंता बढ जाती… छः महीने के लिए गये थे। अब दो वर्ष होने को आये। अकेलापन काटे न कटता।
दोनों पति-पत्नी की व्यथा एक ही थी। अनाथालय में पले-बढे !रमण होशियार था फौज में चयनित हो गया और मुग्धा एक प्राइवेट स्कूल में पढाने लगी। वहीं स्कूल में रमण अपने सहकर्मी के साथ किसी काम से गया और मुग्धा के तीखे नाक-नक्श ,घनी केश राशि, सहज सरल स्वभाव का मुरीद हो गया।
“आप कहाँ रहती हैं “एक दिन रमण ने हिम्मत किया।
“क्यों “मुग्धा ने बेरुखी से प्रत्युतर दिया।
“अरे, आप नाराज हो गई …सच्ची बात यह है कि मैं एक फौजी हूं… और आपसे प्रभावित भी… अगर आपके घर का पता मिले तब आपके माता-पिता से मिलता। “
“मेरे माता-पिता नहीं हैं”मुग्धा की बड़ी बड़ी आँखें छलछला आई।
“ओह, मेरे भी नहीं हैं “रमण भावुक हो गया।
उसके पश्चात दोनों का मिलना-जुलना बढ़ गया। कभी पार्क में… कभी रास्ते में।
दोनों की कहानी एक थी… अनाथालय में पलते-बढ़ते अपने पैरों पर खडे़ हो गये।
रमण फौज में देश-सेवा कर रहा है और मुग्धा शिक्षिका के रुप में आत्मनिर्भर है।
दोनों के हृदय में एक-दूसरे के लिये कोमल भावनाएं पनपने लगी। नहीं मिलते तो जिया बेकरार होने लगता। शायद प्रीत का अभ्युदय हुआ था।
“मेरे हमसफ़र, मेरे हमसफ़र, किसी राह में कभी छोड़ कर कहीं चल न देना “गाना रेडियो में बज रहा था …दोनों ने एक-दूजे की ओर देखा और हृदय में खलबली मच गई।
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इससे पहले की देर हो जाये दोनों ने कोर्ट मैरेज कर लिया। अपनों के नाम पर दो-चार सहकर्मी थे।
इतना प्यार भरोसा सामंजस्य था दोनों में कि देखने वाले रश्क करते।
अब मुग्धा एक फौजी की पत्नी थी…देश के प्रति जिम्मेदारी को समझती थी लेकिन पति से दूरी ने उसे भावुक बना दिया था।
इसी बीच आ पहुंचा वटसावित्री का त्यौहार। मुग्धा सोलहों श्रृंगार कर महिलाओं के साथ बट वृक्ष का पूजन कर पति के दीर्घजीवन की कामना करने लगी। “जय माँ गौरी मेरे सुहाग की रक्षा करना “!किसी काम में मन न लगता।
वह आसपास के निर्धन बच्चों को निःशुल्क पढाया करती थी। जिससे थोड़ी देर के लिए ही सही उसके मन का खालीपन भर जाता।
आज सुबह से ही कागा सामने नीम के पेड़ पर कांव-कांव कर रहा है।ऐसा प्रतीत होता है जैसे उछल- उछल कर कुछ कहना चाहता हो।
“शुभ शुभ बोल कागा… मेरे हमसफ़र का संदेशा ले आना। “
“कांव-कांव” करता कागा उड़ चला।
सांध्य बेला में मुग्धा तुलसी चौरा दीप जला रही है। किसी ने कुंडी खटखटाई, “रानी, रानी। “
“अरे आप… “सामने पति को देख वह जड़वत हो गई।
“अचानक…
न चिट्ठी न पत्री “!
फिर रमण ने जो बताया उसे सुनकर मुग्धा के हृदय से सारे गिले-शिकवे दूर हो गये।
“हम विशेष मिशन पर थे… नाम पहचान छुपाकर गुप्त जानकारी के लिये दुश्मन देश में गये जहाँ हमें बडी़ सावधानी से सूचनाएं एकत्रित करना था। वेश बदलकर ,आधे पेट खाकर अपने मिशन को अंजाम देने में दिन-रात एक कर दिया। “
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“हमारी याद नहीं आती थी और बच्चों की “मुग्धा रुंधे कंठ से बोली।
“तुम्हारी और बच्चों की छवि ने ही हमें इतने कठिन कार्य संपादित करने की शक्ति दी… एक तरफ अपनी मातृभूमि की सेवा और दूसरी ओर पत्नी और बच्चों की शुभकामनाएं… मैं सफल रहा। “
वियोग के बादल छंट गये थे। मुग्धा और रमण बच्चों से मिलने चल पड़े। एक दूजे का हाथ… हृदय में उल्लास… हमसफ़र का साथ …!
“मेरे हमसफ़र… मेरे हमसफ़र “दोनों एक साथ गुनगुना उठे।
सर्वाधिकार सुरक्षित मौलिक रचना -डाॅ उर्मिला सिन्हा ©®