आज बेटियां दिवस के शुभ अवसर पर सभी बेटियों बहुओं और बहनों को हार्दिक शुभकामनाएं… प्रस्तुत है मेरी रचना,”मायका”!
जैसे जैसे मायके की गलियां नजदीक आ रही थी नीलू की धड़कनें तेज हो गई थी।बगल में बैठे दूल्हे राजा कुछ अचकचाये से थे।
दरअसल नीलू का विवाह पलास के साथ दस दिनों पहले शहर के होटल में हुआ था। बिदाई के पश्चात् भाई पहली बार उसे पति के संग पगफेरे के लिए लाने गया था।
नीलू को सबकुछ सपने जैसा लग रहा … नवविवाहिता ससुराल में बिताये गये दस दिन… रस्मों रिवाज के साथ।
उसका वश चलता तो उड़ कर अपने मायके पहुंच जाती… सब-कुछ बताने के लिए।
गाड़ी दरवाजे पर आ पहुंची। उतावली नीलू भारी-भरकम साड़ी संभालते उतरना चाही कि ताई ने रोक लिया,” रुक लाड़ो…अभी तेरी मां आरती उतारेगी।’
पीले गोटेदार साड़ी में मां आरती का थाल और लोटे में पानी लेकर आई। बड़े प्यार से बेटी दामाद की आरती उतारी। बिटिया को गले लगा सिसक उठी।
फिर आवभगत शुरू हुई। दामाद जी कुछ सकुचाये से थे लेकिन नीलू,”अभी आई ” उछलकर अपने कमरे में पहुंच गई,”ओह यह साड़ी बहुत भारी है, मैं कपड़े बदल लेती हूं” झट आलमारी खोल दिया,” अरे मेरे कपड़े कहां गये “नीलू चीख उठी। आलमारी में उसका कोई सामान नहीं था… छोटी बहन और भाई का पूर्णरूपेण कब्जा उसके बिस्तर आलमारी और कमरे पर हो चुका था।
” मम्मी “चीखने के स्थान पर वह इस बदलाव पर रो पड़ी। मम्मी, भाभी,ताई सभी उसे बहलाने लगे। छोटी बहन अपनी जीत पर इतरा रही थी और नीलू के पति पलास मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे। अकेला मिलते ही धीरे से बोले,
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” मायके में ही रहना है क्या मेरे साथ बंगलोर नहीं चलना ‘”नीलू हकीकत से सामना होते ही नरम पड़ गई।
फिर मायके का लाड़ दुलार, भाई-बहनों की बातें, कपड़े … मां की सीख, पिता की हिम्मत… उसी के पसंद का भोजन… सब-कुछ सहज सुंदर।
आज बिदा होते समय मां ने जब खोईंछे में हल्दी में रंगा अरवा चावल,दूब चांदी के सिक्के देकर धीरे से कहा,” बेटियां घर की लक्ष्मी होती है वह मायके में अपने पापा की परी होती है और ससुराल में अपने सास-ससुर की मान-मर्यादा अपने पति की रानी गृह लक्ष्मी होती है। दोनों कुलों का साथ निभाना ही स्त्री का धर्म है।”
नीलू ने स्वीकृति में सिर हिला दिया।
” दामाद जी नीलू अभी नादान है इसका ख्याल रखियेगा। जल्दी ही आने का कार्यक्रम बनाइयेगा”पलास ने हामी भरी।
मायके की सुनहरी यादें लिये भारी हृदय से नीलू बिदा हुई। आंसुओं से भरी धुंधली आंखों से उलट उलट कर मायके की गलियां निहारती रही।
मौलिक रचना -डाॅ उर्मिला सिन्हा