मतलबी काकी – विभा गुप्ता : Moral Stories in Hindi

Moral Stories in Hindi : ” चलो.. अब राहत मिली।काकी चली गईं..बड़ी शांति है।इतने दिनों तक तो…ओफ़्फ! अच्छा जिया बेटा…ज़रा उनके कमरे में जाकर देख आओ…कुछ छूट तो नहीं गया है।” सोफ़े पर बैठते हुए अविनाश ने एक ठंडी साँस भरी और अखबार के पन्ने पलटने लगा

    ” जी..पापा ” कहकर जिया गेस्ट रूम की ओर चली गई।रविवार का दिन था, अनिता की भी छुट्टी थी तो वह अपने बेडरूम की अलमारी को व्यवस्थित करने लगी।

        अविनाश तीन भाई-बहनों में बड़ा था।उसके पिता काॅलेज़ में प्रोफ़ेसर थे।माँ सुघड़ गृहिणी थीं।उसके पिता के एक छोटे भाई भी थें जिन्हें तीनों बच्चे काका कहकर बुलाते थें।काका गाँव में अपनी पैतृक खेती-बाड़ी की देखभाल करते थें।विवाह के कई वर्षों के बाद भी जब काकी माँ नहीं बनी तब रिश्तेदारों ने उन्हें दूसरा ब्याह करने पर बहुत ज़ोर दिया।जवाब में वे पत्नी की तरफ़ मुस्कुराकर देखते हुए बोले, ” भईया के बच्चे भी तो अपने ही हैं।अविनाश-अतुल यहाँ आते हैं तो कैसे हमसे लिपट जाते हैं।” उसके बाद से तो काकी ने भी उनसे कुछ भी कहना छोड़ दिया था।

       कभी-कभी काका-काकी उनके पास आते थें तो तीनों काकी के इर्द-गिर्द ही घूमते रहते थें और काकी भी अपनी संपूर्ण ममता उन पर लुटा देती थीं।

           अविनाश की नौकरी लगे छह महीने ही हुए थें, अतुल बैंक की परीक्षा की तैयारी कर रहा था और अनीशा काॅलेज़ के सेकेंड ईयर में थी।उनकी माँ सोच रहीं थीं कि अतुल की बैंक में नौकरी लग जाए और अनीशा का ग्रेजुएशन पूरा हो जाये तो वे बहू-दामाद का स्वागत एक साथ कर देंगी।लेकिन सोचा हुआ कब किसी का पूरा होता है।एक दिन फ़ोन की घंटी सुनकर फ़ोन उठाने के लिये तेजी-से सीढ़ियाँ उतरने लगीं…बुनाई वाला ऊन कब उनके पैर से उलझ गया ,उन्हें पता ही नहीं चला।कई सीढ़ियाँ लुढ़कती हुई वो ऐसी गिरी फिर कभी नहीं उठ सकी।तब बिन माँ के बच्चों को काकी ने अपने सीने से लगा लिया।

इस कहानी को भी पढ़ें:

बड़े अच्छे लगते हैं – जयसिंह भारद्वाज

        अविनाश की बहू उतारने के बाद उन्होंने अनीशा को ससुराल विदा किया और फिर अतुल को घोड़ी पर चढ़ाया।अतुल की नौकरी दूसरे शहर में थी, अविनाश अपने पिता के साथ रहा…।काका अस्वस्थ रहने लगे तो काकी का आना बहुत कम हो गया।

         अविनाश के पिता के देहांत पर काका-काकी आयें थें, कुछ महीनों के बाद काका भी चल बसे।काकी अकेली हो गयीं थीं, अविनाश ने साथ चलने को कहा लेकिन वे तैयार न हुईं।

      अविनाश की पत्नी स्कूल में शिक्षिका के पद पर कार्यरत थीं।बेटियाँ जब छोटी थीं तब उन्होंने फुल टाइम आया रख लिया था।अतुल की पत्नी जब प्रेगनेंट थी तब काकी महीनों उसके पास रहीं थीं।फिर अनीशा की बेटी पैदा होने वाली थी, तब भी  काकी उसके पास थीं ताकि उसे अपनी माँ की कमी न हो।

     इसी बीच अविनाश ने भी काकी को अपने पास बुलाना चाहा तो अतुल बोला,” अरे भाई…काकी से तो दूर रहना ही अच्छा है।उनके इतने नखरे है कि क्या बताएँ…ऊपर से फ़रमाइशें भी बड़ी-बड़ी..।” 

      अविनाश ने जब अनीशा से बात की तो काकी का नाम सुनते ही उसका स्वर भी बदल गया, ” भईया…अब तो काकी के तेवर ही बदल गये हैं।हमने तो उनका नाम ही मतलबी काकी रख दिया है।” दोनों की बातें सुनकर अविनाश के मन में काकी की एक इमेज बन गई थी।

      फिर एक दिन अचानक ही काकी अविनाश के घर आ पहुँची।उसकी दोनों बेटियाँ तो खुश।अतुल-अनीशा ने काकी के बारे में जो कुछ बताया था,उसी के आधार पर अविनाश-अनिता ने अपनी दिनचर्या बना ली थी।दोनों समय पर घर आने लगे।अपनी इधर-उधर की पार्टियों को कैंसिल करके बच्चों को समय देने लगें।काकी को कोई शिकायत न हो, इस बात का वे पूरा ख्याल रखते थें।फ़ास्ट-फूड को गुड बाय कह दिया गया।

डाइनिंग टेबल पर बच्चे अपनी मनपसंद की चीजें देखते तो खाने पर टूट पड़ते और खाते हुए अपनी ऊँगली के इशारे से कहते,” मम्मी…यम्मी-यम्मी..”।पूरे परिवार को डाइनिंग टेबल पर एक साथ खाना खाते देख काकी तो खुशी -से फूली नहीं समाती थीं।पोतियों के साथ खेलते-बतियाते उन्हें समय का पता ही नहीं चलता था।

अनिता के लाख मना करने के बाद भी वे किचन में जाकर खाने में अपने स्वाद का तड़का अवश्य लगाती थीं। एक दिन अविनाश उन्हें बाहर घुमाने के लिए ले जाना चाहा तो उन्होंने मना करते हुए कहा था कि हमारा तो घर भी यहीं है, मंदिर भी यहीं और तीर्थ भी….तो और कहीं क्यों जाएँ बेटा।

इस कहानी को भी पढ़ें:

पश्चाताप – पूजा मिश्रा : Moral Stories in Hindi

उस दिन  अविनाश ने पत्नी से कहा,” अनिता..अतुल-अनीशा ने तो काकी के बारे में न जाने क्या-क्या कहा था लेकिन ऐसा तो कुछ भी दिख नहीं रहा है।बल्कि उनके आने से तो बच्चे बहुत खुश हैं।हमलोग भी एक-दूसरे के साथ टाइम स्पेंड करने लगे हैं।” अनिता हम्म…कहकर चुप रह गई थी।

      बच्चों के साथ काकी को अविनाश के घर में रहते हुए एक महीना कैसे बीत गया, उन्हें पता ही नहीं चला।एक दिन वो अविनाश से बोली,” अब हमें चलना चाहिये…नहीं रहने से तो मजूरा लोग(मजदूर) कामचोर हो जाते हैं।” अविनाश ने भी उन्हें रुकने के लिए दबाव नहीं डाला।अनिता उनके लिये दो साड़ियाँ खरीद लाईं। एक-दो नमकीन के पैकेट और थोड़े फल भी एक डिब्बे में रखकर उन्हें दे दिया।अविनाश ने कुछ रुपये भी उनके हाथ में दे दिये।जाते समय काकी बड़ी पोती बुलबुल से बोलीं,” फ़ोन करती रहना बिटिया…तुम लोगन की आवाज़ सुन लेती हूँ तो जी को….।” कहते-कहते उनकी आवाज़ भर्रा गई थी।जब बुलबुल और जिया उनसे लिपट गई तब वे अपने आँसुओं को नहीं रोक पाईं थीं।

      ” पापा…ये देखिये..मम्मी ने जो कपड़े-पैसे दादी को दिये थें,वो सब यहीं रख गईं हैं।एक चिट्ठी भी है।” मुड़ा हुआ कागज का एक टुकड़ा अपने पापा को देती हुई जिया बोली।अविनाश उसे खोलकर पढ़ने लगा,” बेटा अवीनास…कपड़े-लत्ते और पैसे की दरकार हमें तनिक भी नहीं है।फोन पर बुलबुल का रोना सुना तो रहा नहीं गया।तुम सबको हँसते-मुसकराते देख लिया.., हमारा तो जी जुर गया।तुम सबन को हमारा बहुत सारा आशीरवाद।” काकी की बूढ़ी अँगुलियों से लिखे उन टूटे-फूटे अक्षरों में अविनाश ने वो सब भी पढ़ लिया था जो काकी नहीं लिख पाई थी।

       उसने अनिता से कहा,” इसका मतलब है कि अतुल और अनीशा ने मुझसे काकी के बारे में सब झूठ-झूठ कहा था… लेकिन क्यों? अभी पूछता…।”

    ” नहीं अविनाश..।कुछ मत पूछिये..मैं आपको बताती हूँ।” अनिता ने अविनाश को रोक दिया और कहने लगी,” अतुल और अनीशा को काकी से अपना मतलब साधना था।वे जानते थें कि काकी उन्हें कभी ना नहीं कहेंगी।उन्हें काकी से कभी लगाव था ही नहीं।लेकिन जब आपने काकी को अपने पास बुलाना चाहा तो उन्हें डर हो गया।”

   ” डर.., किस बात का?” अविनाश ने आश्चर्य-से पूछा।

अनिता बोली,” आप काकी का आदर करते हैं।उन्हें डर था कि यदि काकी आपके पास रुक गईं तो एक मुफ़्त की नौकरानी उन दोनों के हाथ से निकल जाएगी।इसलिये उन्होंने काकी की बुराई करके उन्हें आपकी नज़रों से गिराना चाहा ताकि आप काकी से दूर हो जायें और वे दोनों काकी से अपना काम निकलवा सके।उन्हें काकी से कोई स्नेह नहीं और न ही वे उनकी परवाह करते हैं।काकी के साथ उनका सिर्फ़ मतलब का रिश्ता है।”

इस कहानी को भी पढ़ें:

बेशर्म – रश्मि प्रकाश : Moral Stories in Hindi

      ” हाँ पापा…,एक दिन मैंने भी सुना था..चाचू दादी को आने के लिये कह रहें थें।दादी माँ ने मना कर दिया तो उनपर बहुत गुस्सा करने लगे थें।मम्मी..दादी को मैंने रोते हुए भी देखा था।अब दादी कभी नहीं आयेगी क्या मम्मा..? बुलबुल दादी को याद करके रोने लगी।

    ” आयेगी बेटा..।” कहते हुए अनिता ने बच्चों को अपने सीने-से लगा लिया।

    अविनाश बोला,” काकी के साथ इतना कुछ होता रहा और मुझे पता भी न चला।लानत है मुझ पर…काकी ने अपना जीवन हम भाई-बहन पर न्योछावर कर दिया और मतलबी अतुल-अनीशा ने….।उनसे तो मैं बाद में निबटता हूँ, पहले….।” कहकर वह फ़ोन पर किसी से बात करने लगा।

       दो महीने बाद बुलबुल ने काकी को फ़ोन किया।काकी के हैलो बोलते ही वह रोते हुए बोली,” दादी…मम्मा..पापा…।” 

” अच्छा-अच्छा..रो मत बिटिया।मैं कल ही आती हूँ।” कहकर उन्होंने फ़ोन डिस्कनेक्ट कर दिया और इतने बड़े हो गये लेकिन अक्ल नहीं आई इन्हें…’ अपने-आप बुदबुदाते हुए काकी अविनाश के पास जाने की तैयारी करने लगी।

     अविनाश के घर में घुसते ही काकी ने उसे बच्चों के साथ बातें करते देखा तो चकित रह गईं,” अरे! तुम लोग तो…मैं तो घबरा गई थी कि पता नहीं क्या हो गया..।”

” हा-हा…दादी को बुद्धु बना दिया…।” बुलबुल और जिया काकी से लिपट गयी।काकी आश्चर्य-से अविनाश को देखने लगी।काकी के हाथ से उनका थैला लेते हुए अविनाश बोला,” काकी…अतुल-अनीशा की तरफ़ से मैं आपसे माफ़ी माँगता हूँ।अब आप कहीं नहीं जायेंगी।यहीं हमारे साथ रहेंगीं।”

” लेकिन बेटा…वहाँ का काम…।” 

” मैंने सब सेट कर दिया है।दो लोग बारी-बारी से सब देखते रहेंगे और हमें पूरी खबर देते रहेंगे।फिर मैं भी चला जाया करुँगा।आप तो बस इन्हें संभालिये..।” हँसते हुए उसने अपनी बेटियों की ओर इशारा किया।

 ” मतलबी कहीं के…।” कहते हुए काकी ने अविनाश के गाल पर एक हल्की-सी चपत लगा दी।

” जैसा भी हूँ काकी…आपका हूँ…” उसने काकी की गोद में अपना सिर रख दिया और काकी को ऐसा लगा जैसे जीवन की सारी खुशियाँ उन्हें मिल गई हो।

                                       विभा गुप्ता

# मतलबी रिश्ते                  स्वरचित 

      अक्सर हम जिस रिश्ते को अपना समझते हैं वो मतलबी निकलते हैं जैसे कि अतुल और अनीशा और जिसे मतलबी समझते हैं वो हमें अपनों से भी बढ़कर  प्यार देते हैं।अविनाश की काकी भी ऐसी ही थी, सब पर प्यार लुटाने वाली और सबके दुख हरने वाली ममतामयी छवि की धनी।

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!