मत भूलो कि यह मेरा परिवार है – रेनू अग्रवाल : Moral Stories in Hindi

प्रीति हमेशा से ही एक समझदार और संस्कारी लड़की रही थी। उसकी शादी को पांच साल हो चुके थे। ससुराल में सास-ससुर, एक देवर और ननद रहते थे। शुरू से ही सबका व्यवहार उसके साथ बहुत अच्छा रहा। ननद की शादी भी प्रीति की शादी के कुछ ही समय बाद हो गई थी। धीरे-धीरे घर का माहौल और जिम्मेदारियां बदलने लगीं।

पांच साल बाद देवर की शादी हुई। उसकी देवरानी भी स्वभाव से अच्छी थी, बस उसमें थोड़ा बचपना था। प्रीति सोचती थी कि वक्त के साथ वह भी घर-गृहस्थी की जिम्मेदारी समझ जाएगी। लेकिन इसी के साथ एक और बदलाव हुआ—प्रीति की मां का हर बात में दखल बढ़ने लगा।

पहले मां कभी-कभार हालचाल पूछ लेती थीं, पर अब रोज फोन कर पूछने लगीं—“खाना कौन बनाता है?”, “तुम क्यों बनाती हो?”, “अपनी देवरानी से काम क्यों नहीं करवाती?”, “तुम सबकुछ अकेले क्यों कर रही हो?” पहले-पहल प्रीति ने अनसुना किया। लेकिन यह सिलसिला रोज का हो गया।

प्रीति जानती थी कि मां की नीयत बुरी नहीं थी, लेकिन उनका यह हस्तक्षेप धीरे-धीरे उसके मन में असंतोष भर रहा था। उसे लगता था कि मां की बातें सुन-सुनकर कहीं वह भी अपनी देवरानी के प्रति संकीर्ण न हो जाए। हर दिन मां का यह कहना—“तुम बहुत भोली हो, सब काम खुद कर लेती हो”—उसे अंदर से तोड़ने लगा था।

कई बार प्रीति ने अपने मन को शांत किया, पर एक दिन हद हो गई। सुबह-सुबह मां का फोन आया। उन्होंने फिर वही बातें दोहराईं। प्रीति की सहनशीलता जवाब दे गई। उसने कांपती आवाज में कहा—“मम्मी, मत भूलो कि यह मेरा परिवार है। इसे मैंने प्यार से, विश्वास से बनाया है। आप बार-बार मुझे उलझन में डाल रही हैं।”

मां चुप हो गईं, लेकिन प्रीति की रुलाई फूट पड़ी। उसने हाथ जोड़कर कहा—“मैं जानती हूं आप मेरा भला चाहती हैं। लेकिन जब तक कोई बहुत जरूरी बात न हो, कृपया मेरे घर की बातों में दखल न दें। मैं इस परिवार को अपनी समझ से चलाना चाहती हूं। मुझे अपनी जिम्मेदारी निभाने दीजिए।”

मां को जैसे किसी ने आईना दिखा दिया। उन्हें समझ में आया कि अनजाने में वे बेटी के सुख-चैन में खलल डाल रही थीं।

लेखिका रेनू अग्रवाल

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