सूरज की किरणें वृद्धाश्रम के आँगन में धीमे-धीमे फैल रही थीं। चमेली के फूलों से भरी क्यारियाँ और छायादार बरगद के पेड़ के नीचे बैठे कुछ बुज़ुर्ग धीमी आवाज़ में बातें कर रहे थे। उन सबके बीच एक चेहरा था — श्रीधर जी का।
सफेद बाल, शांत आँखें और चेहरों पर स्थायी हो चुका एक मौन। उनके पास एक कुर्सी पर बैठी थी — नर्स आरती — जो हर सुबह की तरह आज भी श्रीधर जी को धूप में बैठाकर हल्की-फुल्की बातें कर रही थी।
“आपने नींद ठीक से ली ना, बाबा?”
श्रीधर जी ने हल्की सी मुस्कान दी, “अब नींद कहाँ आती है आरती बिटिया… यादें जागती रहती हैं।”
आरती जानती थी कि वह मुस्कान सिर्फ बाहर की थी, भीतर बहुत कुछ टूटा पड़ा है।
कुछ महीने पहले ही उनका बेटा रोहित और बहू स्वरा, उन्हें इस वृद्धाश्रम में छोड़कर चले गए थे। बहू ने कहा था, “अब हमें बच्चों की ज़िम्मेदारी है, और ऑफिस का भी बहुत लोड है। देखभाल नहीं हो पाएगी। यहाँ सब देख लेंगे।”
रोहित चुप रहा था। वह हमेशा चुप ही रहता था जब उसे बोलना चाहिए होता शायद आज की पीढ़ी ऐसी ही है ।
श्रीधर जी और उनकी पत्नी कमला देवी, दोनों को वही चुप्पी साल रही थी।
आरती, जो खुद अनाथालय में पली-बढ़ी थी, इन वृद्धों की दुनिया में सिर्फ एक नर्स नहीं थी — वह उनकी बेटी बन चुकी थी। वह हर बुज़ुर्ग की दवाइयों से लेकर मन के घावों तक की मरहम बन चुकी थी। विशेषकर श्रीधर जी और कमला देवी के लिए उसके मन में एक अलग ही श्रद्धा भाव था।
समय बीतता गया। एक दिन एक चिट्ठी आई — कोर्ट की।
रोहित ने अपने पिता के नाम की संपत्ति पर दावा ठोका था। कारण “पिता की मानसिक हालत ठीक नहीं है, वृद्धाश्रम में रह रहे हैं, स्वयं कोई निर्णय नहीं ले सकते।”
श्रीधर जी हतप्रभ थे।
कमला देवी ने आँसू रोकते हुए कहा, “कभी वो गोदी में चढ़ा करता था, और अब हमें नाम का भी हक़ नहीं देना चाहता?”
आरती ने उनका हाथ थामा, “बाबा, आप हिम्मत मत हारिए, जो सच है, वह सामने आकर रहेगा सांच को आंच नहीं भले ही सच्चाई कुछ पल को धूमिल पड़ जाये।।”
कोर्ट में तारीख पड़ी।
श्रीधर जी अपनी वकील के साथ पहुँचे, उनके साथ आरती भी थी — एक बेटी की तरह। रोहित और स्वरा पहले से वहाँ थे, अपनी बात रखने को तैयार।
जज ने रोहित से पूछा, “आपके पिता स्वस्थ हैं, फिर भी आपने उन्हें मानसिक रूप से अक्षम घोषित करने की याचिका क्यों डाली है?”
रोहित ने तर्क दिया, “उन्हें कई बार भूलने की बीमारी हो गई है, इसलिए उन्हें संपत्ति संभालने का अधिकार नहीं देना चाहिए। मैं बेटा हूँ, हमारी ज़िम्मेदारी है उसे सुरक्षित रखना।”
अब जज ने श्रीधर जी से पूछा, “आप क्या कहना चाहते हैं?”
श्रीधर जी ने कांपते हाथों से एक कागज़ बढ़ाया — यह उनकी इच्छा-पत्र थी, जिसमें लिखा था कि वह अपनी सारी संपत्ति वृद्धाश्रम के नाम कर रहे हैं, ताकि वहाँ रहने वाले बुज़ुर्गों की सेवा होती रहे और अपने बेटे को केवल 2 बेडरूम फ्लैट और आरती के नाम अपनी कोठी कर , मेरे बाद आरती इस बृद्धाश्रम की देखभाल जब तक करना चाहे इसे पगार और भत्ते मिलते रहें।
कोर्ट में सन्नाटा छा गया।
जज चौंके, “आपने अपने बेटे को संपत्ति देने से इनकार क्यों किया जबकि ये आपका इकलौता वारिस है ?”
श्रीधर जी की आवाज़ थरथराई, मगर शब्द दृढ़ थे ।
“क्योंकि जिस दिन मुझे ज़रूरत थी, उस दिन मेरे बेटे ने मुँह मोड़ लिया था। जो इसकी मां थी जिसने इसको अपने पेट में 9 महीने रख रक्तमांस दे पाला-पोसा पर जब हम यहाँ आए,
तो आरती ने हमें अपनों की तरह अपनाया और सम्मान दिया जिससे मेरा कोई दूर तक रिश्ता नहीं था और तो और इसे ये भी नहीं पता था कि मेरी आर्थिक स्थिति क्या है,मैं कौन हूँ ।
मत भूलो कि ये भी मेरा परिवार है — जिसने मेरे आँसू पोंछे, जब तुमने मुँह मोड़ अपनी पत्नी के कहने से मेरे अपने ही घर से निकाल दिया ।
मेरी संपत्ति वहाँ जाएगी, जहाँ से मुझे इज़्ज़त मिली, अपनापन मिला और जीने की एक वजह मिली।”
कोर्ट में मौन टूट चुका था। रोहित झेंप गया। बहू ने नजरें झुका लीं।
फैसला पिता के पक्ष में गया। संपत्ति वृद्धाश्रम ट्रस्ट के नाम कर दी गई।
उस शाम, वृद्धाश्रम में मिठाई बाँटी गई।
कमला देवी ने आरती को गले लगाया, “आज लगता है जैसे हमने फिर से बेटी पाई है।”
श्रीधर जी ने बरगद के नीचे बैठकर आँखें मूँद लीं। एक सुकून था चेहरे पर — उस सुकून का नाम था अपनापन, जो रिश्तों के खून से नहीं, भावना से जन्मा था।
“रिश्ते खून से नहीं, व्यवहार से बनते हैं। जो हाथ आँसू पोंछे, वही असली परिवार होता है।”
स्वरचित डा० विजय लक्ष्मी
अनाम अपराजिता