“ बेटा नवीन, अगर हैं तो पाचं सौ रूपए देता जा, तेरी मां की शूगर की दवाई खत्म हो गई है,दवाई खाए बगैर वो खाना नहीं खा सकती”।
अभी पिछले हफ्ते ही तो दिए थे एक हजार रूपए, अब कहां से लाऊं इतने पैसे, दुकान तो घाटे में जा रही है, यह कह कर नवीन गुस्से से बाहर निकल गया।
सतीश कुछ कह न पाया बेटे को। क्या ये वो ही बेटा है जो उसकी हर बात सिर झुका कर मानता था। सतीश की शहर में पुश्तैनी राशन की दुकान थी, जो अब एक छोटे शो रूम का रूप ले चुकी थी।
अच्छी खासी चलती थी, तभी तो ग्रेजुऐशन के बाद नवीन ने भी वहीं बैठना चाहा, और जल्दी ही सब सीख गया। बड़ी बहन सुहासनी शादी के बाद विदेश बस गई।
नवीन की भी शादी हो गई। अच्छा बड़ा दोमंजिला घर था। तीन कमरे उपर, तीन नीचे यानि कि दो परिवारों के लिए बढ़िया घर। पहले सब इकट्ठे ही रहते।नवीन के दो बच्चे भी पल कर दस बारह साल के हो गए।
सतीश अब थोड़े बीमार रहने लगे तो काम करना कम कर दिया, वैसे भी सब नवीन ने संभाल लिया था। सतीश गल्ले पर बैठते थे, धीरे धीरे नवीन ने उन्हें यह कह कर दुकान पर आने से मना कर दिया कि बहुत काम कर लिया, अब आप आराम करो।
सतीश ने इसे बेटे का प्यार समझा, जवानी में घर गृहस्थी के चलते वह घूमने नहीं जा सका। राधिका बहुत शौकीन थी घूमने की लेकिन सिवाए जरूरी रिश्तेदारी के कहीं जाना ही नहीं हुआ, सोचा चलो अब सारे अरमान पूरे कर लेगें।
उपर वाले कमरे लगभग स्टोर सामान ही थे, कुछ फालतू या दुकान का सामान पड़ा रहता। नवीन ने उपर पूरा रेनोवेट करवा कर अपनी अलग रसोई बनवा ली और ये कह कर अलग हो गए कि बच्चों को पढ़ने के लिए जगह चाहिए।
राधिका को यह सब अच्छा तो नहीं लगा लेकिन चुप रही। बहू अनु जो हर समय आगे पीछे रहती थी, अब कम ही नजर आती। कहने को नीचे तीन कमरे थे, लेकिन एक में दुकान का सामान और एक को गैस्ट रूम बना दिया गया। एक बैड रूम ही बचा सतीश राधिका के पास।
पहले तो कुछ ठीक रहा लेकिन अब नवीन ने धीरे धीरे यह कह कर कैश देना बहुत कम कर दिया कि सब सामान तो दुकान से आ ही जाता है, राशन,दूध, सब्जी वगैरह तो आ जाते लेकिन दवाईयां, कपड़े, कहीं आना जाना कहां से हो। सारी उम्र खुल्ला खर्च करने वाले सतीश को समझ नहीं आ रहा था कि वो बेटे को कैसे समझाए।
दूसरी तरफ नवीन का कहना था कि जब से आन लाईन सामान का चलन हो गया, काम बहुत कम हो गया है।जबकि ऐसा था नहीं, दुकान अच्छे से चल रही थी।
कुछ पैसे रखे हुए थे, वो ही लेकर सतीश चल पड़ा। सिरफ दो दिन की ही दवाई ली, वहीं पर उसका पुराना दोस्त शिवचरण मिल गया जो कि बैंक से सेवानिवृत था। हमेशा खुश रहने वाले सतीश के चेहरे की उदासी उससे छुपी न रह सकी।
दुकान से बाहर आकर वो सतीश को पास ही चाय की गुमटी तक बातें करते करते ले आया और चाय का आर्डर देकर बैठ गए।
पूछने पर सतीश ने अपनी आर्थिक समस्या बताई। कुछ सोचते हुए शिवचरण ने एक हल सुझाया। मकान, दुकान भले ही सतीश के नाम थी पर वो बेचना नहीं चाहता था। शिवचरण के अनुसार सीनियर सीटिजन चाहे तो बैंक से मकान के कागज रख कर पैसे ले सकते हैं।
उनके न रहने पर वारिस या तो ब्याज सहित लोन चुकता करेगें नहीं तो बैंक अपनी कार्यवाही करेगा। सतीश को ये बात सही लगी। रोज रोज बेटे के सामने हाथ नहीं फैलाने पड़ेगे और बुढ़ापा भी अच्छे से निकल जाएगा। राधिका से सलाह की तो मन न मानते हुए भी उसने हामी भर दी, मजबूरी थी।
शिवचरण की मदद से जल्दी ही सब काम हो गया। मकान की बहुत कीमत थी तो अच्छा लोन मिल गया। सतीश ने कुछ पैसे रखकर बाकी सब की एफ.डी. बनवा दी और उसके महीनावार ब्याज आने लगा।
अब दोनों आराम से रहने लगे।जब पैसे मांगने बंद हो गए तो नवीन ने पिता से तो नहीं लेकिन मां से बातों ही बातों में पूछा। राधिका ने कहा ,” कब तक तुम्हारे आगे आँचल पसारते, जब औलाद बेशर्मी की हदे पार कर जाए तो कुछ तो करना ही पड़ता है, और उसने सारी बात बता दी”। अब चौंकने की बारी नवीन की थी, हकलाते हुए बोला” लेकिन उस पर तो बहुत ब्याज पड़ जाएगा”।
तो वो तुम चुकाना, बाहर से अंदर आते हुए सतीश बोला।मकान बचाना है तो बेहतर है कि अभी से हर महीने किशत बना कर देना शुरू कर दो।
लेकिन पिताजी—, लेकिन वेकिन कुछ नहीं, अब जीवनयापन के लिए कुछ तो करना ही था, चालाकी, चालाकी का खेल तुमने ही शुरू किया। इतनी अच्छी दुकान चल रही है और तेरे पास हमारी दवाईयों तक के लिए पैसे नहीं।
मत भूलो, मैं तुम्हारा बाप हूं, इज्ज़त से रहेगें, सब हमारा ही बनाया हुआ है, और किसी के आगे आंचल पसारना कतई मंजूर नहीं।
नवीन शर्मिदां सा होता हुआ वहां से बाहर चला गया।
विमला गुगलानी
चंडीगढ़ ।
मुहावरा- आंचल पसारना