अहंकार एक ऐसा रोग है जिसपर बंदिशें न लगाई जाए तो उसकी वृद्धि चौगुनी होती चली जाती है ।चाहे इसका कारण धन हो, बल हो , या अत्यधिक ज्ञान का गुमान हो कुछ भी हो सकता है ।अहंकार का बुखार सिर पर चढ़ कर बोलता है। वह हमारी बुद्धि भ्रष्ट कर देता है और इसका परिणाम यह होता है कि अच्छा भला -इंसान अपनी करनी से अपने ही पैरों में कुल्हाड़ी मार लेता है और वह कहीं का नहीं रह पाता
एक समय इस रोग ने मुझे भी अपने चपेट में ले लिया था। मेरा दिमाग अहंकार में चूर सातवें आसमान पर चढ़ गया था।
मैं एक माध्यम परिवार की लड़की थी। माँ-पिताजी ने मुझे बड़ी नाज़ से पाला था। उन्होंने जहां से भी हो मेरी सारी ख्वाहिशें पूरी की थी । पिताजी ने अपने हैसियत से ऊपर उठकर मुझे शिक्षा दीक्षा दी तथा पढ़ाया लिखाया जिसका परिणाम यह हुआ कि मुझे एक अच्छी नौकरी मिल गई।
मैं यह भूल गई थी कि मेरी कामयाबी में सिर्फ मेरा नहीं मेरे माता-पिता का हाथ हैं उन्होंने ही मुझे मेरी मंजिल तक पहुंचाया है। उनके कृतित्व को भूल मैं अपने आप को ज्यादा समझदार और क़ाबिल समझने लगी थी।
समय बीतने के साथ माँ -पिताजी ने मेरी शादी मेरी रजामंदी के बिना अपने ही बराबरी के परिवार में कर दिया। मिला -जुलाकर सब -कुछ अच्छा था।जैसा कि एक माध्यम परिवार का होता है लेकिन मेरे विचार से उनलोगों की सोच पिछड़ी हुई थी।
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मैं अपने आपको आधुनिक समझने लगी थी। पति और उनके परिवार के लिए ऐसा विचार मेरे अहंकार ने मुझमें कूट -कूट कर भर दिया गया। देखते ही देखते मैंने उस अहम और कीमती रिश्तों की डोर को काट डाला और ससुराल छोड़कर चली आई।
इधर से माँ -पिताजी और उधर से सास- ससुर तथा मेरे पति ने बहुत समझाने की कोशिश की पर मेरी बुद्धि मारी गई थी। मैंने वापस नहीं जाने का फैसला कर लिया।
लगभग पांच साल इंतजार करने के बाद मेरे पति ने दुसरी शादी कर ली। और मुझे मेरे अहंकार ने जिंदगी के सफर में अकेला जलने के लिए छोड़ दिया। मैंने खुद से ही अपनी जिंदगी बर्बाद कर ली।
स्वरचित एवं मौलिक
डॉ अनुपमा श्रीवास्तवा
मुजफ्फरपुर, बिहार