कुमुद – विभा गुप्ता : Moral Stories in Hindi

Moral Stories in Hindi : ” एक बार कह दिया कि मुझे दूध नहीं पीना है तो आपको सुनाई नहीं दिया…., सुनाई देगा भी कैसे….सौतेली जो ठहरी।” चौदह वर्षीय निशि दूध का गिलास फेंकते हुए कुमुद पर चिल्लाई।’ सौतेली ‘ शब्द सुनकर उसे लगा जैसे किसी ने पिघला शीशा उसके कानों में उड़ेल दिया हो।

अपने आँसुओं को पीते हुए वह फ़र्श पर से गिलास उठाकर गिरे हुए दूध को पोंछने लगी, पास खड़े अनिरुद्ध बेटी को कुछ कहने जा ही रहे थे कि कुमुद ने आँख के इशारे से मना कर दिया।जैसे कह रही हो कि धैर्य रखिये..बच्ची है…मैं सब ठीक कर दूँगी।

          दो बहनों में कुमुद छोटी थी।माँ-बाबा की दुलारी।उसके बाबा अक्सर ही उसे कहते थें कि तू मेरे लिये बहुत लकी है।तेरे जन्म के बाद मेरी दुकान पर ग्राहकों की लाइन लगने लगी थी।उसकी बड़ी बहन उससे पाँच साल बड़ी थी लेकिन दोनों में बहुत दोस्ताना था।पिता ने अपने सामर्थ्यानुसार दोनों बेटियों को शिक्षित करने का प्रयास किया।हर पिता की तरह वे भी चाहते थें

मेरी आँखों से सामने ही बच्चियाँ अपने घर में बस जाये।इसीलिए इंटर के बाद बड़ी बेटी रागिनी का विवाह कर दिया।किस्मत से उन्हें परिवार और दामाद दोनों अच्छे मिल गये।कुमुद तब आठवीं में पढ़ रही थी।अपनी दीदी की विदाई के वक्त वह बहुत रोई थी, अपने पिता से बोली,” मैं शादी नहीं करुँगी…

खूब पढ़ूँगी…आपके साथ रहकर आपका सहारा बनूँगी।” तब बेटी की बात सुनकर पिता की आँखें भर आईं थीं, मन में कहने लगे, कब तक रख पाएँगे तुझे अपने पास बिटिया..तू तो किसी की अमानत है मेरे पास…।’ 

       एक दिन कुमुद के माता-पिता नाव से देवी-दर्शन के लिये मंदिर गये थें।देवी माँ से परिवार और बच्चों की खुशियों के लिये प्रार्थना की।बेटी के लिये प्रसाद लेकर लौट रहें थें कि नदी की बीच धार में नैया उलट गई और उनके सपने चूर-चूर हो गये।कुमुद तो अपना सुध-बुध ही खो बैठी थी।घर सूना हो गया था।

किसके गले में बाँहें डालकर लाड़ करेगी…,उसके रूठने पर कौन मनुहार करेगा…।रागिनी के गले लगकर वह खूब रोई थी।ईश्वर की मर्ज़ी के आगे किसकी चलती है ‘ कहकर नाते-रिश्तेदार दिलासा दे रहें थें लेकिन वह अपने मन को कैसे समझाती।

       रागिनी और उसके पति कुमुद को अपने साथ ले जाकर उसकी पढ़ाई पूरी कराना चाहते थें लेकिन दीदी के घर वह रहना नहीं चाहती थी।माँ तो उनके घर का पानी भी नहीं पीती थी क्योंकि वह पराई हो चुकी हैं, फिर वह वहाँ कैसे रह सकती है।उसके दूर के एक विश्वनाथ मामा थें।

उनकी पत्नी ने पति को सलाह दिया कि दूर की ही सही पर है तो तुम्हारी भांजी ही।लड़की जात है, अकेले कैसे छोड़ दोगे।ननदोई जी की दुकान और घर को भाड़े पर देकर कुमुद को संग ले चलो।जगह बदलेगा तो इसका मन बहल जायेगा।कुमुद को यही सही लगा और वह मामा-मामी के साथ चली गई।

          शुरु-शुरु में तो मामी किराये के पैसे कुमुद की पढ़ाई और उसके विवाह के लिए जमा कर रही थी।फिर बाद में उनके मन में लालच आ गया।कुमुद के पैसों पर अपने बच्चों का हक मानकर वे पति पर कुमुद के विवाह का दबाव डालने लगी।पत्नी भक्त मामा ने कुमुद को इंटर की परीक्षा भी देने नहीं दिया

और अपने परिचित के छोटे भाई से जिसका अपना व्यवसाय था लेकिन विधुर था और दो छोटे बच्चों का पिता भी था।स्वाभाविक था कि लड़का उम्र में कुमुद से काफ़ी बड़ा था।रागिनी तो इस शादी से इंकार करने लगी थी लेकिन कुमुद ने इस रिश्ते को अपनी किस्मत मानकर स्वीकार कर लिया और अनिरुद्ध की पत्नी बनकर उसके बच्चों की माँ बन गई।

          घर में एक वृद्ध सास थी जो बच्चों को देख रहीं थीं।कुमुद के आने से उन्हें भी कुछ देर के लिए सौतेले शब्द का भय तो लगा लेकिन कुमुद ने अपने सरल व्यवहार से वह भय भी दूर कर दिया था।

      घर में उसके सुख-सुविधाओं की तो कोई कमी नहीं, अनिरुद्ध के साथ भी उसका ताल-मेल बैठ गया था लेकिन बच्चों का विश्वास जीतने में वह अभी भी फेल थी।बेटा अंकुर तो उसकी तरफ़ हाथ बढ़ाना भी चाहता था लेकिन दीदी का भय…, वह अपना खींच लेता था।   

          एक दिन अंकुर स्कूल से आया तो उसका बदन आग की तरह तप रहा था और तब उसने कुमुद का आँचल पकड़ लिया।रात भर वह बेटे के पास बैठकर ठंडे पानी की पट्टियाँ बदलती रही।सुबह तक बुखार उतर गया था।डाॅक्टर की दवाइयों से अधिक तो अंकुर पर कुमुद के प्यार ने असर दिखाया था।

उसी दिन से उसने दीदी के भय को त्याग कर कुमुद को माँ कहने लगा था।वह माँ के साथ ही बैठकर अपना होमवर्क भी करने लगा था।इसी बीच एक दिन उससे मिलने मामा-मामी आये।मामी तो उसकी शानो-शौकत देखकर दंग रह गई।अपने स्वभावानुसार मामी ने धीरे-से कुमुद पर एक तीर छोड़ दिया,

” कुमुद.., अपना बच्चा कर ले…, इन परायों का क्या भरोसा।” उसने भी उसी लहज़े में मुस्कुरा कर ज़वाब दिया,” मामी.., क्या यशोदा मैया ने कान्हा को पराया कहा था? ये दोनों मेरे ही बच्चे हैं और मैं ही इनकी माँ हूँ।”

      अनिरुद्ध के मित्र भी उसे बात-बात में कह ही देते,” यार…बड़े किस्मत वाले हो जो कुमुद भाभी जैसी पत्नी मिली है। अनिरुद्ध की माताजी भी बेटे का घर बसा देखकर संतुष्ट थीं और एक दिन उन्होंने सोये-सोये ही हमेशा के लिये अपनी आँखें मूँद लीं।

        एक दिन स्कूल से खबर आई कि निशि स्कूल में बेहोश हो गई है। कुमुद तो दौड़ पड़ी।डाॅक्टर ने चेकअप करके बताया कि कमज़ोरी है और कैल्शियम की भी कमी है।इसीलिए वह निशि को दूध पीने के लिये कह रही थी जिसके लिये निशि ने उसे दुत्कार दिया था।

       समय अपने पंख लगाकर उड़ता गया।अंकुर नौवीं कक्षा में आ गया और निशि काॅलेज़ में।निशि पहले से बहुत शांत हो गई थी लेकिन अभी भी वह कुमुद को माँ के रुप में स्वीकार नहीं कर पा रही थी।कुछ महीनों से वह अपना खाली समय अपने से सीनियर प्रशांत के साथ बिताने लगी थी।प्रशांत देखने में हैंडसम था

और धनाड्य परिवार से ताल्लुक रखता था।उसके पिता उस काॅलेज़ के ट्रस्टी थें।ऐसे में निशि का उसकी ओर आकर्षित होना स्वाभाविक-सी बात थी।घर आकर भी वह घंटों फ़ोन पर लगी रहती।कुमुद को बेटी के रंग-ढ़ंग देखकर शक तो होता लेकिन कुछ पूछने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही थी।

       एक दिन अंकुर ही उसके पास आया और बोला, ” माँ…दीदी…।”

  ” दीदी! क्या हुआ निशि को?” वह घबरा उठी।

अंकुर बोला,” अभी तो कुछ नहीं हुआ लेकिन…।”

” अरे क्या लेकिन..बता ना।” कुमुद दोनों हाथों से उसे झकझोरते हुए पूछने लगी।तब अंकुर ने बताया कि उसके दोस्त का बड़ा भाई दीदी के ही काॅलेज़ में पढ़ता है।उसी ने बताया है कि दीदी जिस लड़के से घूमती है वह रईस बाप की बिगड़ी औलाद है और…।

   ” बस अंकुर…, मैं सब समझ गई।तू निशि या पापा से अभी कुछ नहीं कहना।मैं कल ही काॅलेज़ जाकर सब ठीक करती हूँ।” कहकर वह कल की योजना बनाने लगी।

       दोनों बच्चों और अनिरुद्ध के जाते ही वह काॅलेज़ गई और प्रिंसिपल सर को पूरी बात बताई।प्रिंसिपल सर ने भी उसे बताया कि प्रशांत तो ट्रस्टी का बेटा है, वह तो टाइम पास करने ही काॅलेज़ आता है लेकिन उसके चक्कर में निशि बहुत क्लासेज़ मिस कर रही है।फिर उन्होंने कुमुद को आश्वासन दिया

कि आप निश्चिंत होकर घर जाइये, मैं सब ठीक कर दूँगा।फिर उन्होंने निशि को अपने केबिन में बुलाया और प्रशांत की सच्चाई उसके सामने रख दी।पहले तो उसे विश्वास ही नहीं हुआ।बाद में उसकी अन्य सहेलियों ने बताया कि तू तो नई है निशि लेकिन हम तो उसे स्कूल से जानते हैं।खुद तो पढ़ता नहीं

और दूसरों को भी पढ़ने नहीं देता।घूमने-फिरने में ही उसकी रुचि है और लड़कियों को तो वह खिलौना…।इसके आगे वह सुन न सकी।उसकी आँखें खुल चुकी थी।उसने प्रिंसिपल सर को धन्यवाद देना चाहा तब सर ने उससे कहा कि धन्यवाद तुम अपनी माँ को दो।तुम बहुत लकी हो जो तुम्हें इतनी अच्छी माँ मिली है।मैं जानता हूँ

कि उन्होंने तुम्हें जनम नहीं दिया है लेकिन बचपन में किसी एक के कहने से तुमने मान लिया कि सभी सौतेली माँ लालची और स्वार्थी होती है।तुम नहीं जानती…हर महीने यहाँ आकर तुम्हारे बारे में पूछती रहती हैं कि तुम्हें कोई परेशानी तो नहीं है और तुम…।”

    ” साॅरी सर!” कहते हुए उसकी आँखों से आँसू बहने लगे जिसमें उसे अपनी गलती और माँ को गलत समझने का पछतावा था।उस दिन घर में नई निशि का प्रवेश हुआ था।

      निशि कुमुद को माँ तो कह रही थी लेकिन अभी भी दोनों के बीच दूरी थी।छह महीने लगे दोनों को सहेली बनने में।निशि जब टेक्सटाइल डिजाइनिंग का कोर्स कर रही थी,तभी निशांत से उसकी दोस्ती हुई थी।दोस्ती फिर प्यार में बदल गई।कोर्स कंप्लीट होते ही निशांत ने अपने पिता की टेक्सटाइल मिल ज्वाइन कर ली।

       निशि अपनी माँ को निशांत के बारे में बताने वाली ही थी कि एक दिन निशांत अपने पिता के साथ निशि के घर आ गया।सब कुछ जल्दी-जल्दी तय हो गया।अनिरुद्ध और कुमुद खुश थे कि बेटी उस घर में जा रही है जहाँ उसे अपनी प्रतिभा को निखारने का पूरा मौका मिलेगा।विदाई के समय तो निशि अपनी माँ से लिपटकर इतना रोई थी कि साथ खड़े सबकी आँखें भी नम हो गई थी।

     अंकुर भी ग्रेजुएशन के बाद एमबीए करने मुंबई चला गया।वहाँ से आकर उसने अपने पिता के काम को संभाल लिया।अनिरुद्ध अब अस्वस्थ रहने लगे थें।चाहते थें कि बहू का मुँह देख ले।अनिरुद्ध की कोई अपनी पसंद थी नहीं तो कुमुद ने अपनी सहेली की बेटी आशी से बात पक्की कर दी।पहली मुहूर्त में ही उसने अंकुर का विवाह करा दिया और आशी को बहू बनाकर घर ले आई।निशि के जाने के बाद जो खालीपन था,वो आशी के आने से फिर से भर गया।

     ईश्वर हमें कुछ देता है तो हमसे कुछ लेता भी है।अनिरुद्ध की किस्मत में बहू का सुख कुछ महीनों का ही लिखा था।आशी को चाय लाने का कहकर अनिरुद्ध कुमुद का हाथ अपने हाथ में लेकर जो बैठे तो बस बैठे ही रह गये।उनकी आँखें खुली ही रह गई और कुमुद की माँग उजड़ गई।

         जाने वाले चले जाते हैं और कुछ दिनों में जीवन पूर्ववत हो जाता है।अब तो आशी भी अंकुर का हाथ बँटाने लगी थी।और कुमुद ….कुमुद राजरानी बन गई थी।उसकी गोद में अंकुर का बेटा होता और कंधे पर निशि की बेटी बैठती। उनके साथ खेलते हुए वह अपनी किस्मत पर रश्क करती।

                                    विभा गुप्ता

# किस्मत                        स्वरचित 

              मनुष्य के जीवन में कई उतार-चढ़ाव आते हैं लेकिन कभी हिम्मत नहीं हारना चाहिए क्योंकि किस्मत भी उसी का साथ देती है जो धैर्य रखकर अपना कर्म करते जाते हैं जैसे कि कुमुद ने किया।

 

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!