किसके नाम की मांग – प्रेम बजाज

रामलाल रोज़मर्रा की मजदूरी करने वाला। कभी काम मिल जाता और कभी नहीं। सारा दिन काम की तलाश में घूम-फिर कर घर वापस आ बैठता। घर पर आकर वही किट-किट।

” अजीत सुनते हो, ना दाल है ना चावल।  छबीली को क्या बना के खिलाऊं? उधर मुन्नी भी भूख से बिलख रही है”

” तो मैं क्या करूं? छबीली के खाने का तो इंतजाम मैं करूंगा, अब क्या मुन्नी को भी दूध मैं पिलाऊंगा, वो तो तु ही देगी ना”

“मैं भी कहां से लाऊं दो दिन से एक दाना भी तन के अन्दर नहीं गया, कितना निचोड़ोगे मुझे भी, और जो एक अन्दर और पल रहा है उसका क्या? उसे ही तो चाहिए कुछ”

इतने में छबीली आकर,” बाबा, बाबा, भूथ लदी है, अम्मा  थाना नहीं बनाती, अम्मा तो तहो ना थाना दे( बाबा भूख लगी है, अम्मा खाना नहीं बनाती, अम्मा से कहो ना खाना दे) “छबीली अभी ढाई साल की है, इसलिए तुतला कर बोलती है।

इतने में बड़ी बेटी रेशमा 5 साल की बाहर से खेल कर आ जाती है,” अम्मा बड़ी जोर से भूख लगी है, ला जल्दी से दाल-चावल दे दे,  मन्नु कह रहा था हम सब फिर से खेलेंगे”

इस कहानी को भी पढ़ें:

मेरे बीमार होने से किसी को फ़र्क़ नहीं पड़ता है – के कामेश्वरी   : Moral stories in hindi

मुन्नी जो अभी 6 महीने की है, भूख से ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी, रामलाल का माथा घूम गया, मुन्नी को थप्पड़ जड़ दिया, “चुप री हराम की, जब देखो टें-टें लगा रखी है”  दर्द से मुन्नी और ज़ोर से रोने लगती है, और रामलाल गुस्से में बाहर निकल जाता है।

लगभग दो घण्टे बाद जब घर आया तो सब सो चुके थे, बीवी( सावित्री) बैठी इंतजार में ऊंघ रही थी।

“अरे ई का दारू पी है तुमने”?

“चुप छिनाल, पी है, बता क्या करेगी”?

” घर में बच्चे भूख से बिलबिला रहे हैं ऐसे में तुम्हारे हलक से दारू उतरी कैसे”?

” तो क्या अकेले मैंने ही ठेका ले रखा है इन नामुरादो का, छिनाल तेरी भी तो औलादें है ये। जा नहीं दे सकता मैं इनको रोटी तु दे दे ना, तेरे बच्चे नहीं क्या”?

” हां,हां खिला दूंगी मैं अपने बच्चों को रोटी, कल से मैं जाऊंगी काम पर, जब कहती थी तो बाहर ही ना निकलने दिया, अगर मुझे भी जाने देता काम पे तो आज मेरे बच्चों को भूखों मरने की नौबत ना आती”

इस तरह लड़-झगड़कर दोनों सो जाते हैं, रामलाल सुबह उठकर  बिना चाय पिए ही काम के लिए निकल जाता है कि शायद आज कहीं काम मिल जाए, और चाय पीता भी कहां से, घर में था ही कुछ कहां!

लेकिन सावित्री सुबह एक संकल्प के साथ उठती है कि आज वो बच्चों को भूखा नहीं सुलाएगी, चाहे जो भी हो।  सावित्री सुबह-सुबह लाला की दुकान पर जाती है।

“लाला जी राम-राम”

इस कहानी को भी पढ़ें:

छांव प्यार की – अंजना ठाकुर  : Moral stories in hindi

लाला अवाक सा सावित्री को देखता ही रह जाता है, उसने इतनी सुन्दर औरत आज तक नहीं देखी थी, रामलाल सावित्री को इसलिए घर से बाहर नहीं जाने देता था, क्योंकि वो बला की खूबसूरत थी। हालांकि भूख, गरीबी और रोज़ की खिट-पिट ने उसका वो रूप छीन लिया था, लेकिन फिर भी अभी भी उसकी सुन्दरता के सामने सब पानी भरते थे।

लाला,” राम-राम! कौन हो तुम, हमने तो पहले तुम्हें देखा नहीं कभी?”

” लाला जी मैं रामलाल की बहु”

लाला ने चर्चा सुना तो था जब रामलाल की शादी हुई, कि पूरे गांव में ऐसी बहू नहीं जैसी रामलाल लाया, परी है परी, आज साक्षात् देख भी लिया।

” अरे, ऊऊऊऊ  रामलाल, अरे ये तो बन्दर के गले में मोतियों का हार पड़ गया। ख़ैर बताओ कैसे आना हुआ”!

” लाला जी कोई काम मिल जाता तो, बड़ी आस लेकर आई हूं, बच्चे दो दिन से भूखे हैं”

उसे देखते ही लाला की लार टपक रही है, उसे यही चाहिए था बोला, ” हां, हां क्यों नहीं, अनाज वगैरा झाड़- पटक दिया कर, तेरा भी काम चल जाएगा, मेरा भी काम बन जाएगा”

” जी, लाला जी, तनिक थोड़ा सा दाल-चावल दे दिओ, बच्चों को खाना खिलाए के  अभी काम पे आ जाऊंगी”

और लाला उसे दाल-चावल दे देता है, उसे मालूम है कि सावित्री ज़रूरत मंद है, काम पर तो आना ही पड़ेगा, थोड़े से दाल-चावल लेकर भाग तो जाएगी नहीं, और लाला को भी उस पर अपनी धाक जमानी थी, वरना ऐसे तो लाला है बड़ा कंजूस।

सावित्री घर जाकर बच्चों को खाना खिलाकर रेशमा को दोनों बच्चों को संभालने का कह कर काम पर आ जाती है। शाम को जाते समय भी खाने का इंतजाम हो गया।

उधर आज रामलाल की भी मजदूरी अच्छी हो गई तो बच्चों के लिए मिठाई इत्यादि लेता आया।

इस कहानी को भी पढ़ें:

रितेश का फैसला – मंजू ओमर  : Moral stories in hindi

आते ही,” सावित्री, अरी ओ सावित्री, उसके हाथ पे पैसे रख के, ले आज अच्छी मजूरी  मिली है, और देख मिठाई भी लाया हूं, चल सब मिलकर खाएंगे”

“बच्चे खाना खा चुके हैं”

” खाना, मगर कहां से आया खाना”

 

“मुझे लाला की दुकान पर काम मिल गया”

रामलाल को पता है लाला अच्छा इन्सान नहीं, इसलिए वो सावित्री को वहां काम करने को मना करता है, मगर सावित्री कहती है कि,” अगर वो पहले काम करती होती तो यूं दो दिन तक बच्चे भूख से ना बिलखते, ना जाने आगे क्या हो, रामलाल का तो दिहाड़ी मजदूरी का काम है, किसी दिन काम मिला, किसी दिन नहीं मिला, एवं लाला की दुकान पर वो अकेली नहीं और भी स्त्रियां है काम करने वाली”

इस तरह सावित्री रोज़ काम पर जाने लगी। पहले तो रामलाल को जिस दिन काम ना मिलता उस दिन बहुत दुःखी होता, लेकिन अब उसे कोई खास फर्क ना पड़ता, क्योंकि सावित्री के काम से घर चल जाता।

अब तो शराब पीकर देर रात को आना रामलाल का रोज़ का काम बन गया। जब काम मिलता तो उन पैसों से पी लेता, जब ना काम होता तो सावित्री से ले जाता, इस तरह सावित्री एक तो गर्भ से उस पर मेहनत भी दुगनी करनी पड़ती, एक तो घर का खर्च उस पर रामलाल की शराब का भी खर्च।

नित- रोज़ घर में कलह रहती। जैसे-तैसे समय कट रहा था। एक दिन सावित्री को रात को लेबर पेन शुरू हो गया, अस्पताल ले जाया गया। थोड़ी देर में नर्स ने आकर बताया कि लड़की हुई है।

चौथी बार फिर से बेटी, लेकिन इसके बाद सावित्री ने नसबंदी करा ली। रामलाल ने बहुत झगड़ा किया कि नहीं करानी नसबंदी।

लेकिन सावित्री नहीं मानी बोली,” एक लडके की चाह में चार छोरियां हो गई और कितनी पैदा करनी है, इनको तो ढंग से रोटी-टुकड़ा नसीब नहीं और को इस दुनिया में लाकर उन्हें भी भूखा मारना है क्या”

इस पर डाक्टर ने भी समझाया तो मजबूरन रामलाल को चुप हो जाना पड़ा।

समय यूं ही बीतता रहा खाने को ढंग का खाना नहीं तो बच्चे स्कूल कहां से जाते। रेशमा दस साल की हो गई और छबीली भी 7-8 साल की हो गई। दोनों घर का काम और छोटी दोनों बहनों को संभालती और सावित्री तड़के ही काम पर निकल जाती और देर रात आती। रामलाल अपनी शराब और यारों-दोस्तों में मस्त रहता। उसे तो बस शराब चाहिए और कुछ नहीं।

जब मुन्नी 7 साल की हुई छुटकी सबसे छोटी बेटी 6 साल की, छबीली 10साल और रेशमा लगभग 13 साल की होने को है।

इस कहानी को भी पढ़ें:

मन की गांठ – संगीता त्रिपाठी   : Moral stories in hindi

अब रेशमा भी मां की तरह काम करने जाती है, और छबीली घर और दोनों बहनों को संभालती है।

रेशमा भी मां की तरह ही बला की खूबसूरत है, गांव का हर जवान लड़का रेशमा से बात करने को तरसता लेकिन रेशमा किसी को घास तक ना डालती, घर में रोज़ मां को बाबा से गालियां और मार खाते देखती।

कभी बाबा गुस्से में उसकी मां की मांग में से सिंदूर पोंछ कर कहता,” कुलछणी जब मेरे साथ नहीं बसना तो इसे पोंछ दे, क्यों सजा रखा है ये सिन्दूर, ये भी उसी से भरा ले जाके”    तो मन ही मन दुःखी होती।

ईश्वर से सदा एक ही प्रार्थना करती,” हे ईश्वर, मैं खुद तो अनपढ़ हूं लेकिन मैं मेहनत करके अपनी बहनों को पढ़ाऊंगी। मेरी मांग में सिंदूर ऐसे शख्स से भरवाना जो इसकी कद्र भी करें”

 

सावित्री रेशमा को लाला की दुकान पर काम करने नहीं ले जाती थी, उसे स्कू्ल के प्रिंसिपल के घर पे काम के लिए भेजती थी, जहां रेशमा को कभी-कभी प्रिंसीपल की पत्नी थोड़ी देर पास बैठाकर कुछ पढ़ा दिया करती, रेशमा को ही पढ़ना अच्छा लगता था।

एक दिन अचानक रेशमा किसी काम से मां से मिलने लाला की दुकान की दुकान पर पहुंच गई, सावित्री को यही डर था वो बेटी को लाला के सामने नहीं लाना चाहती थी, आज वही हुआ, लाला की नज़र पड़ गई रेशमा पर ।

लाला,” क्यों री सावित्री छोरी को कहीं और भेज दिया, तु इतने सालों से यहां है तुझे कोई कमी है का, इसे भी ले आ यहीं पे”

” नहीं लाला, कोई कमी नहीं, बस छोरी को पढ़ने का शौंक है इसलिए मास्टर जी के भेजा”

” अरे तो यहां हम पढ़ा देते, इसने कौन सा एम.ए.- बी. ए. करना है, इतना तो हम भी पढ़ा देंगे, ले आईयो कल  से यहां”

सावित्री ने बहुत कोशिश की, कि रेशमा लाला की नज़रों में ना आए, मगर होनी को कुछ और ही मंजूर था। सावित्री की एक ना चली, उसे रेशमा को लाला की दुकान पर काम के लिए लाना पड़ा। सावित्री रेशमा को दिन में दो घण्टे के लिए ले आती।

एक दिन लाला,”सावित्री आज रेशमा को शाम के काम के लिए रोक लिओ, रेशमा बहुत अच्छी है, मन को भा गई”

इस कहानी को भी पढ़ें:

पारखी नज़र – करुणा मलिक : Moral stories in hindi

सावित्री,” लाला जी, मैं हूं ना मैं रोज़ आपका काम करके ही जाती हूं, इतने सालों से जैसा आपने चाहा वैसा किया, कभी आप को ना नहीं कहा, अब रेशमा नहीं लाला जी, वो बच्ची है, उसे बक्श दो”

लाला,” देख सावित्री तुने अगर मन बहलाया तो मैंने भी तुझे कभी कोई कमी नहीं होने दी, तेरे शराबी पति की सारी कसर मैंने ही पूरी की तन-मन और धन से, बता कभी तेरी औलाद भूखी सोई क्या”?

“आपके इसी अहसान में दबकर तो मैंने भी सबकुछ आपके पैरों में रख दिया था, हर रोज़ एक वेश्या बन कर रह गई मैं, लेकिन अपनी बेटी का सौदा नहीं करूंगी”

” देख सावित्री लाला का जिस पर दिल आ जाता है ना उसे साम,दाम, दण्ड, भेद कोई भी रास्ता अपनाना हो लाला हासिल करके रहता है, प्यार से मेरी गोद में बैठा दे, नहीं तो तु जानती है ना, तु भी तो कितने नखरे करती थी, आना पड़ा ना मेरे बिस्तर पर, तो कल भेज दिओ फुलझड़ी को”

 

सावित्री उलझन में थी क्या करती अगर रेशमा को लाला के पास भेजती है तो बच्ची की ज़िंदगी खराब हो जाएगी, और अगर नहीं भेजती तो ना जाने क्या करेगा?

सावित्री अच्छे से जानती है लाला की नज़र में जो चढ़ जाए लाला उसे छोड़ता नहीं, हासिल करके ही रहता है। उसने सोचा कल फिर लाला से बात करके देखती हूं, कि छोड़ दे उस मासूम को, लेकिन जैसे ही सुबह दुकान पर गई लाला,” सावित्री तु इतने साल काम करके तक चुकी है, अब तु घर जा और आराम कर, रेशमा को भेज दें, रेशमा देख लेगी सारा काम”

सावित्री समझ गई कि अब उसे काम से निकाल दिया और अब रेशमा को रखना है,” मरता क्या ना करता” सावित्री को मजबूर होकर रेशमा को लाला की दुकान पर भेजना पड़ा।

देर रात रेशमा घर आई तो साथ में तीनों बहनों के लिए खाने के लिए बहुत सी मिठाई, और खाने का सामान लाई।  सावित्री रेशमा से नज़रें नहीं मिला पा रही थी। किस मुंह से बात करे रेशमा से आज खुद अपने हाथों जो उसका सौदा किया था।

रेशमा अब तक सब समझ चुकी थी बस इतना बोली,” मां कल से मैं भी तुम्हारी तरह अच्छे से काम किया करूंगी, ताकि मेरी किसी बहन को भूखा ना सोना पड़े”

सावित्री की ऑंखों से ऑंसुओं की धारा बह निकली, उसने रेशमा को गले से लगा लिया, आज मां-बेटी गले मिलकर बिन लब खोले ऑंसुओं की भाषा में बातें कर रही हैं।

अब सावित्री की तरह रेशमा लाला के पास जाने लगी। एक साल बाद लाला को हार्टअटैक आया और लाला की मौत हो गई।

इस कहानी को भी पढ़ें:

प्रेम-विवाह – शुभ्रा बैनर्जी  : Moral stories in hindi

हां दोस्तों यही कहेंगे, स्वर्ग सिधारना तो नहीं कह सकते ना ऐसे लोगों को तो नरक ही नसीब होगा।

रेशमा जैसी बदनसीब, जो लाला की दुकान पर काम करती थी सबको चैन की सांस आई कि चलो अब तो बच गई वे बेचारियां।

लाला का काम अब लाला का बेटा दीपेन संभालता था। वो कहते हैं ना कि

” मां पे पूत, पिता पे घोड़ा, बहुत नहीं तो थोड़ा-थोड़ा”

बेटा भी बाप के नक्शे कदम पर चल रहा था, रेश्मा अब 15 साल की हो चुकी थी, जवानी फूट कर बह रही है, कैसे ना किसी का ईमान डोले।

दीपेन तो रेश्मा पर पागल था, एक दिन साफ-साफ कह दिया,” रेशमा आज शाम को हवेली पे आ जाना”

रेशमा ने घर जाकर मां से कहा, “मां पहले लाला, अब दीपेन बाबु, क्या मेरी मांग को सिन्दूर नसीब नहीं होगा?”

” नहीं मेरी बच्ची अब ऐसा नहीं होगा, आज दीपेन बाबु के पास मैं जाऊंगी, तेरी मांग को सिन्दूर मिलेगा बेटा, बस ईश्वर से यही दुआ है जैसा सिन्दूर मुझे मिला ऐसा ना मिले किसी को भी, जो खुद अपने हाथों से मैला करें”

रात को सावित्री लाला की हवेली पर दीपेन बाबु के पास चली गई, लेकिन दीपेन ने आते हुए वही लाला की तरह धमकी दी कि अगर कल से रेशमा को ना भेजा तो छबीली को बुला लेगा।

अब रेशमा को छोटी बहन के लिए कुर्बानी देनी थी, भूल गई अब वो अपनी मांग के सिन्दूर को, सजाने लगी बहनों की मांग के सिन्दूर के सपने, और चल पड़ी लाला की हवेली की तरफ।

पहले लाला और अब उसका बेटा दीपेन, एक -दो साल में दीपेन का मन भर गया तो छोड़ दिया।

रेशमा अब 17 साल की हो गई, दूर गांव में उसकी शादी कर दी गई, ताकि किसी को यहां की जिंदगी के बारे में पता ना चले।

लेकिन वाह री किस्मत, शायद किसी की बदकिस्मती मरते दम तक साथ नहीं छोड़ती।

सुहाग सेज पर बैठी रेशमा बहुत खुश थी, छोटा सा शीशा लेकर बार-बार उसमें अपनी लाल सिंदूर से भरी मांग देख रही थी, उसे बचपन से ही लाल गहरे रंग से भरी मांग बहुत पसंद थी, कभी-कभी खेल-खेल में वो अपनी मांग भर लेती थी लाल रंग से, मां मना करती तो रूठ जाती, तब नहीं जानती थी कि मांग में सिन्दूर का क्या मतलब है।

इस कहानी को भी पढ़ें:

माँ दुख सहने की भी एक सीमा होती है…. – रश्मि प्रकाश : Moral stories in hindi

 

अचानक कमरे का दरवाज़ा खुला उसे लगा रमेश( उसका पति) आया है उसने झट से घूंघट निकाल लिया।

लेकिन लड़खड़ाती आवाज़ से चौंक गई, ” ओ छमिया सुन, ये हमारे अन्नदाता है, इनकी हर बात मानिओ, खुश कर दे हमारे राजा जी को, तुझे बक्शीश देंगे” ये रमेश की आवाज़ थी।

रेशमा ने घूंघट हटाकर हैरानी से देखा, कि आज सुहाग रात में रमेश किसे लाया और ऐसी बातें क्यों कर रहा है!  जैसे ही घूंघट हटा रमेश,” देखिए मालिक आपके मतलब की चीज़ है के नहीं”

” अरे रमेश ये तो हीरा है हीरा, मेरी ऑंखो में चुभ रहा है ये हीरा, अब तु जल्दी से दफा हो यहां से और मुझे इसकी गोद में सोने दे ऑंखें मूंद के”!

रेशमा सब समझ गई, हाथ पकड़ कर रमेश को रोकने लगी, अभी कुछ बोलने के लिए लब खोले ही थे कि चटाक, रेशमा के गाल पर झन्नाटेदार चांटा,” तुझे समझ नहीं आई मैंने क्या कहा अभी, आज की रात मालिक की रात है, और जितनी रातें चाहेंगे मालिक का हुक्म बजाना, हम बाद में मिलेंगे अगर मालिक की आज्ञा हुई तो”

” क्यों नहीं रमेश तेरा भी नम्बर आएगा, पहले मैं तो अपनी ऑंखें सेक लूं” इतना कहते ही रमेश के सेठ हीरालाल ने रेश्मा को  पकड़कर बिस्तर पर पटक दिया। रेशमा जानती थी, चीखने-चिल्लाने से या विरोध करने से कुछ हासिल नहीं होगा।

अपनी किस्मत को कोसती हुई चुपचाप एक चादर के जैसे बिछी रही, ऑंखो के कोने ऑंसुओं से गीले हो रहे थे, चुपचाप सहती रही सब कुछ। कई दिन, कई रातें यही सिलसिला चला, सेठ का जब भी मन हो बुला भेजता रेशमा को, रमेश जाता छोड़ने के लिए।

लेकिन रेशमा जब भी सेठ के पास जाती सेठ कहता, ” रेशमा डियर ये सिन्दूर वगैरा मत लगा कर आया करो मेरे पास, मुझे फूल नहीं कलियां अच्छी लगती है, सिन्दूर से तुम्हारे ब्याहता का अहसास होता है”

उधर शराब अधिक पीने के कारण रेशमा की शादी के कुछ ही दिनों बाद रामलाल की मौत हो गई थी, इस पर रेशमा को छबीली की चिंता सताने लगी, जो मां और रेशमा के साथ चल रहा था वही जीवन वो बाकी छोटी बहनों को नहीं देना चाहती थी, इसलिए उसने मां सहित परिवार को अपने ही गांव बुला लिया, और बाकी बहनों का जीवन सुरक्षित हो गया।

एक-एक करके तीनों बहनो की शादी करवा दी, लेकिन अब वो इस जिंदगी से ऊब चुकी थी।  थक गई थी हर रात एक नए बिस्तर की चादर बन कर उसने भी मां की तरह मांग में सिंदूर भरना छोड़ दिया था। सिन्दूर भरती भी तो किसके नाम का हर रात नए पति की पत्नी बनती थी, कभी रमेश की कभी रमेश के लाए ग्राहक की।

आज रात को भी रमेश बाहर आंगन में सोया था क्योंकि कमरे में नए ग्राहक ने जो डेरा लगाया। वो रात को किस समय चला गया, रमेश को कुछ पता नहीं, वो तो रोज़ ही नशे में धुत्त रहता, जिस दिन कोई ग्राहक ना होता उस दिन टूट पड़ता रेशमा पर, रात भर ना सोने देता, जब ग्राहक लाता तो चुपचाप आंगन में सो जाता।

सुबह जब रमेश उठा, उसने देखा आज अभी तक रेशमा नहीं जगी थी, ऐसा कभी हुआ नहीं था। रेशमा तड़के ही जग जाती थी। आज सूरज सिर पर चढ़ आया, उसने जैसे ही कमरे का दरवाज़ा खोला तो सामने रेशमा की लाश झूल रही थी पंखे के सहारे, उसने रोना-धोना शुरू कर कर दिया सब गांव वाले इकट्ठा हो गए, रेशमा की लाश को पंखे से उतारा, रेशमा की मां को भी सन्देश पंहुचा वो भी आ चुकी थी। सामने देखा तो बिस्तर पर एक कागज़ का टुकड़ा जिस पर कुछ लिखा था, (क्योंकि रेशमा जब प्रिंसिपल के घर काम करती थी, थोड़ा सा पढ़ना और लिखना सीख गई थी)।

उस कागज़ को अक्षर जोड़-जोड़ कर जब पढ़ने लगे तो सब की ऑंखें नम हो गई। उसमें लिखा था,” बस अब मैं थक चुकी हूं इस नार्कीय जीवन से, जीवन भर मेरी तमन्ना रही कि मेरी मांग गहरे लाल सिंदूर से भरी जाए, लेकिन मेरा जीवन ऐसा रहा कि मुझे ये नहीं समझ आया कि मैं मांग किसके नाम की भरूं, जिसका हर रात नया पति हो वो किसके नाम की मांग भरेगी, कोई जानता हो तो बताएं और अन्तिम समय मेरी मांग उसी से भरवाए”

सेठ सहित सब एक -दूसरे का मुंह ताक रहे हैं, रेशमा की अन्तिम इच्छा कौन पूरी कर सकता है, किसको ये हक दिया ईश्वर ने।

प्रेम बजाज©®

जगाधरी (यमुनानगर)

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!