उदयपुर की पतली गलियों में, गुलमोहर के पेड़ों से ढकी एक कॉलोनी में अभय मेहता का घर था। अभय एक निजी कंपनी में मैनेजर थे और पत्नी संध्या के साथ रहते थे। उनकी बारह साल की बेटी आठवीं कक्षा में पढ़ती थी।
संध्या पड़ोस के एक स्कूल में गणित पढ़ाती थीं। पढ़ाने में सख़्त, लेकिन दिल से बेहद नरम थीं। आर्या के लिए उन्होंने बचपन से ही यह तय कर लिया था कि पढ़ाई के साथ-साथ उसे दया, ईमानदारी, और सही-गलत की पहचान भी सिखाएँगी।
मेहता परिवार में एक नियम था — घर का दरवाज़ा मदद के लिए हमेशा खुला रहता ।मोहल्ले का सफ़ाई कर्मचारी, डाकिया, दूधवाला या कोई बुज़ुर्ग — किसी को भी जरूरत हो, ये लोग खुला दिल लेकर सामने होते। आर्या ने बचपन से यह सब अपनी आँखों से देखा था।
उस दिन की शाम सुनहरी थी। हल्की हवा खिड़की के पर्दों से खेल रही थी। संध्या रसोई में चाय चढ़ा रही थीं कि दरवाज़े पर दस्तक हुई। बाहर खड़ी थीं रेखा बाई।उनका चेहरा थका हुआ था, आँखों में घबराहट तैर रही थी।
“भाभी… ज़रा बैठने दें? बड़ी परेशानी में आ गई हूँ,” उन्होंने कुर्सी खींचते हुए कहा।
संध्या ने पानी का गिलास बढ़ाया — “क्या हुआ बाई जी ।
रेखा बाई की आवाज़ टूट रही थी —
“मेरे पति की नौकरी चली गयी है । मैं अब अकेली हूँ कमाने वाली ।तीन बच्चे हैं… दो बेटे सरकारी स्कूल में हैं, पर छोटी को पढ़ाई का बड़ा शौक है। दसवीं कर रही है, कोचिंग की पंद्रह सौ रुपये महीना फीस है। मैं सिलाई-कढ़ाई भी करती हूँ, पर इतने पैसे नहीं जुटते। और झाड़ू पोछे बर्तन से मुश्किल से गुजारा होता है ।सोच रही थी… अगर दस हज़ार रुपये मिल जाते, तो दो महीने का कोचिंग और थोड़ा घर का खर्च हो जाता।”
आर्या, जो कोने में होमवर्क कर रही थी, चुपचाप सुन रही थी। उसने झिझकते हुए पूछा —
“माँ, हम इन्हें पैसे क्यों नहीं दे सकते? मदद तो अच्छी बात है न?”
संध्या ने बेटी की तरफ देखा, और उसके सिर पर हाथ फेरते हुए बोलीं —
“बेटा, मदद अच्छी बात है, लेकिन समझदारी से करनी चाहिए। अगर आज हम दस हज़ार रुपये दे भी दें, तो ये बस दो महीने का सहारा होगा। उसके बाद? फिर वही परेशानी। मदद का असली मतलब है किसी को इतना मज़बूत बनाना कि वह खुद अपना सहारा बन सके।”
शाम को अभय घर लौटे, तो संध्या ने पूरी बात सुनाई। अभय ने बिना समय गंवाए अपने पुराने दोस्त राकेश को फोन किया, जो एक गारमेंट फैक्ट्री में सुपरवाइज़र थे। उन्होंने अगले ही हफ़्ते रेखा बाई के पति के लिए वहाँ नौकरी पक्की करवा दी। तनख्वाह कम थी, पर महीने का भरोसा था कि पैसे आयेंगे ही । और आश्वासन भी था कि यदि भविष्य में अच्छा काम किया जाएगा तो पैसे दुगुने भी कर दिये जाएंगे।
जब यह खबर रेखा बाई को मिली, उनकी आँखों में आंसू छलक आए —
“भाभी, आपने तो मेरी डूबती नैया पार लगा दी।”
उस रात, चाँदनी में बालकनी में बैठी आर्या ने माँ से कहा —
“माँ, आज समझ आया कि मदद सिर्फ पैसे देना नहीं है, बल्कि रास्ता दिखाना है। मैं अपना जन्मदिन इस बार दोस्तों के साथ पार्टी करके नहीं मनाऊँगी ।
जन्मदिन से एक हफ़्ता पहले माँ और बेटी दोनों स्कूल के कुछ ग़रीब बच्चों की लिस्ट तैयार करती हैं, जो फीस या किताबें न होने के कारण पीछे रह जाते हैं।
और एक दिन सुबह की धूप खिड़की से छनकर आ रही थी। घर में कोई गुब्बारे या सजावट नहीं थी, लेकिन बेटी के चेहरे पर एक अलग-सी चमक थी। आज उसका जन्मदिन था — और माँ, जो स्कूल में टीचर थी, ने उसे पहले ही कह दिया था,
“इस बार हम केक काटने की बजाय कुछ ऐसा करेंगे, जो तुम्हारे दिल में उम्रभर रहेगा।”
माँ और बेटी दोनों ने कुछ बैग, किताबें, खूब सारी पेंसिल, और रंग-बिरंगे नोटबुक्स उठाए, और उनके छोटे-छोटे पैकेट बना रही थीं। हर पैकेट के ऊपर बेटी ने खुद अपने हाथ से नाम लिखा — उन बच्चों के, जिनके पास किताबें खरीदने की भी सुविधा नहीं थी।
स्कूल की छुट्टी के बाद, मैदान के एक कोने में बेटी ने बच्चों को एक-एक पैकेट देते हुए कहा,
“ये तुम्हारे लिए… आज मेरा बर्थडे है ।
किसी ने हिचकिचाते हुए पैकेट लिया, तो किसी ने आँखों में चमक छुपाने की कोशिश की। माँ बस चुपचाप देख रही थी — ये खुशी के आँसू थे, जो किसी पार्टी की रोशनी से कहीं ज़्यादा चमकदार थे।
उस दिन न कोई मोमबत्ती जली, न केक कटा, लेकिन बेटी को समझ आ गया कि उसका ये जन्मदिन, शायद उसकी ज़िंदगी का सबसे ख़ास दिन है — क्योंकि उसने सीखा था कि जश्न सिर्फ़ अपने लिए नहीं, किसी और के चेहरे की मुस्कान के लिए भी मनाया जा सकता है।
ये कहानी उम्मीद है सभी को पसंद आयेगी ।
ज्योति आहूजा