खाली हाथ – कमलेश झा : Moral Stories in Hindi

Moral Stories in Hindi : प्रतिदिन की तरह आज भी मैंने शाम को ऑफिस से घर लौटने पर पोर्च में बाईक खड़ी की। बारामदे में कुर्सी पर बैठे बाबूजी आज भी एकटक मुझे ही देख रहे थे। मेरे एक हाथ में बैग था और दूसरा हाथ खाली।

मैं वहीं बारामदे में उनके पास ही खाली पड़ी कुर्सी पर बैठ गया और पूछा कैसे हो ? सब ठीक तो है ना ?

– हां बेटा। –

– और तुम? –

– अच्छा हूं। –

पिछले दो वर्षों से, जब से माँ का देहांत हुआ है, यही क्रम चल रहा था।

शाम को जब ऑफिस से लौटता तो बाबूजी मुझे दालान में रखी कुर्सी पर बैठे मिलते, लगता जैसे वे मेरी ही प्रतीक्षा कर रहे हों। मुझे वे एक मासूम बच्चे की तरह गेट खुलने की ही प्रतीक्षा करते हुए मिलते। इसके बाद वे बाहर घूमने चले जाते और मैं अपने कामो में व्यस्त हो जाता।

आज न जाने क्यों मुझे लगा कि बाबूजी मेरे हाथो की ओर भी देखते है। क्या देखते है, मेरी समझ में न आया।

अपनी टीचर की नौकरी व घर-गृहस्थी में व्यस्त प्रीति दीदी हर बार की अपेक्षा इस बार रक्षाबंधन पर एक दिन रूकने का प्रोग्राम बना कर आई थीं।

इस कहानी को भी पढ़ें:

दर्द – गीता वाधवानी

मेरी पत्नी रेनू दोनों बच्चों को लेकर दोपहर में दीदी से राखी बंधवाकर अपने भाई को राखी बांधने मायके चली गयी। घर पर बस बाबूजी, मैं और दीदी ही थे। बाबूजी तो रात में खाना खा कर जल्दी सो गये थे। मै और जीजी बिस्तरों में बैठ कर देर रात तक बातें करते रहे।

दीदी बताने लगी कि कैसे जब बाबूजी शाम को डयूटी से वापस आते थे तो हम लोगों के खाने के लिए रोज कुछ न कुछ जरूर लाते थे। हम दरवाजे पर बैठकर उनका बेसब्री से इंतजार करते थे। घर में आते ही उनके हाथों को ललचाई नजरों से देखते हुये उनके पैरों से लिपट जाया करते थे। कभी-कभी बाबूजी खाने की चीज अपने बैग में छिपा लेते थे तो हम मायूस हो मूंह लटका कर बैठ जाते। मुस्कुराते हुए बाबूजी जब बैग में से खाने की चीज निकालते तो हमारे चेहरे खिल उठते थे।

तब समय एवं परिस्थिती के हिसाब से उस बैग में रोज कुछ न कुछ नया होता हम बच्चो के खाने के लिए। फिर माँ हम दोनों भाई बहनो को बराबर में बिठाकर बड़े प्यार से खिलाती, कुछ बचता तो माँ बाबूजी भी खाते वरना हम बच्चो के खिले चेहरे और मन देखकर ही वे दोनों तृप्त  हो जाते थे।

कभी किसी वजह से बाबूजी को आने में देर हो जाती या उनके हाथ खाली हो तो लगता जैसे पूरा घर उदास हो गया हो।

दीदी दो साल ही तो बड़ी थीं। दीदी बता रहीं थीं और मेरे मस्तिष्क में बाबूजी का खाली हाथो में कुछ ढूंढना कौंध गया।

अगले ही क्षण मेरी आँखों से झर झर आंसू बहने लगे, मन हुआ कि फूट-फूट कर रो लूं।

माँ के चले जाने के बाद घर में विशेष कुछ बनता न था। पत्नी रेनू के कामकाजी होने के कारण उसे किचन में जाने का समय कम ही मिल पाता था। इसलिए मेरी शादी के बाद भी माँ जब तक रही,ं तब तक बाबूजी और हमें खाने पीने की विशेष चीजों की कमी न रही।

हे भगवान, मुझसे इतना बड़ा अपराध कैसे हो सकता है। क्यों मै यह भूल गया कि बच्चे बूढ़े एक समान होते है। पिछले वर्षो की व्यस्तताओं ने मुझे और रेनू को बच्चो एवं बुढो की छोटी मोटी इच्छाओ के बारे में कुछ सोचने का मौका ही न दिया।

वैसे तो अब घर में खाने पीने के लिए सब आसानी से उपलब्ध होता है, फिर भी बच्चो के साथ साथ बुजुर्गो को भी लगता है कि कोई बाहर से आता है तो कुछ न कुछ खाने के लिए विशेष मिलेगा ही मिलेगा।

मैनें यह बात दीदी को बताई तो मेरे साथ उनके भी आंसू बहने लगे।

इस कहानी को भी पढ़ें:

माँ – कमलेश राणा

मन ही मन मैंने कुछ प्रण कर लिया था।

दूसरे दिन जब मैं ऑफिस से लौटा तो आज भी बाबूजी यथावत उसी जगह व उसी मुद्रा में बैठे मिले।

मैं गाड़ी की डिग्गी में से एक हाथ से बैग और दूसरे हाथ से गरम जलेबी का लिफाफा निकालकर बाबूजी की ओर बढ़ गया।

बैग के अलावा दूसरे हाथ में लिफाफा देखकर बाबूजी की आंखों में चमक आ गई।

लिफाफा उनके हाथ में देकर मैं उनके बाजू में रखी कुर्सी पर बैठ गया। उन्होंने उत्सुकता से लिफाफा खोला और जलेबी देख कर बालसुलभ मुस्कुराहट उनके चेहरे पर फैल गई।

मेरी आंखें फिर भीग आयीं।

                                             —-

– कमलेश झा/झांसी

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!