“जी भैया जी” – जयसिंह भारद्वाज

मकान मालकिन चाची जी से कहते कहते थक गए किन्तु पिछले दस सालों से जब कमरों की पुताई नहीं की गई तो अमृता ने सुझाव दिया कि जब हम रह ही रहे हैं तो क्यों न हम अपने ही पैसों से कमरों की पुताई करा लें! बीस-पच्चीस हजार के अतिरिक्त खर्च को सोचकर मन तनिक खट्टा तो हुआ किन्तु अमृता की रिक्वेस्ट थी अतः मीठे मन से सहमति दे दी। क्या और कोई विकल्प था मेरे पास?

हमारे दफ्तर में पुताई का कार्य हो रहा था। जब काम समापन पर था तब मैंने एकदिन मुख्य पुताईकर्मी बीरबल को बुलाकर शाम को घर पर आने को कहा।

बीरबल ने दो बड़े कमरे, एक छोटा कमरा, आँगन, बरामदा, रसोई और लेट्रिन-बाथरूम आदि देख कर बारह हजार रुपये तय किये और दफ्तर का काम पूरा होते ही अगले दिन से आने को बोला। उसने पुताई से सम्बंधित सामान भी लिखा दिया।

निर्धारित समय पर बीरबल ने आकर दीवारों पर रेगमाल रगड़ना आरम्भ कर दिया। दोपहर में अमृता ने देखा कि बीरबल ने एक अखबार में लिपटी चार सूखी सी रोटियाँ अपने झोले से निकाली और प्याज व पानी के साथ निगलने लगा तो वह भाग कर रसोई गयी और एक कटोरी में सब्जी और पाँच ताजी रोटियाँ लेकर उसे देते हुए कहा – “ये लो बीरबल, इन्हें खा लो और उन रोटियों को बाहर नीम के नीचे बैठी गाय को खिला देना। और आगे से तुम घर से खाना नहीं लाना। यहीं भोजन कर लेना। ठीक है।”

बड़ी श्रद्धा व नत दृष्टि से बीरबल ने कहा – “जी भैया जी!”

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मैं, बेटा या अमृता में से कोई भी कुछ भी सुझाव या बात बीरबल से कहते तो उसका एक ही जवाब होता – जी भैया जी!

तीन दिनों तक एक कमरा ही कम्प्लीट हुआ था किंतु बीरबल आधे से अधिक नौ हजार रुपए ले जा चुका था। चौथे दिन वह नहीं आया। जब पांचवे और छठवें दिन भी बीरबल नहीं आया तब लगा कि वह हमसे चीटिंग कर गया। अमृता ने भी कह दिया – “आप भी न बहुत बड़े दानवीर बन जाते हैं कामदारों के लिए। ले गया पैसे और घर बैठ गया। यहाँ पूरा घर अस्तव्यस्त पड़ा है।”

मैं बार बार स्वयं से कह रहा था कि मुझसे कोई छल कर ही नहीं सकता है क्योंकि मैं सामने वाले में प्रभु की छवि देखकर ही बात करता हूँ। यदि छला भी गया तो यह मेरा दोष होगा, ईश्वर का नहीं.. फिर बीरबल क्यों नहीं आया! शायद कोई आवश्यक कार्य होगा!


आखिर सातवें दिन जब वह आया तब बेटे ने उसे डपट दिया। उसने मुस्कुरा कर “जी भैया जी” कहा तो बेटे के साथ साथ अमृता का भी क्रोध हवा में उड़ गया।

जिसदिन काम पूरा हुआ उसदिन रविवार था। मैं भी घर पर था। अबतक इतनी सी पुताई में पन्द्रह दिन खर्च हो गए थे। अभी फर्श की साफ सफाई में एक दो दिन और लगने वाले थे। उसी दोपहर जब बीरबल भोजन कर रहा था तब अचानक उसकी सिसकी सी आने लगी और फिर वह रोने लगा।

मैं समीप ही था। उसके पास आया और उसके कंधे पर हाथ रख कर धीरे से सहलाया और कहा – बीरबल, भोजन कर लो, फिर इत्मीनान से बात करते हैं। ठीक है।

वही उत्तर – जी भैया जी!

कुछ देर बाद मैंने घर से कुर्सी निकाली और नीम के पेड़ के नीचे डालकर बैठ गया और बीरबल को बुलाकर पूछा – “अब बताओ बीरबल! क्या बात है जिसने तुम्हें भोजन के समय रोने को विवश कर दिया? बिना झिझक कहिए।”

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“जी भैया जी! अभी हम तीन दिन बीच में नहीं आये थे न! भैया जी तब मेरी नौ साल की बिटिया बीमार थी। इलाज चल रहा था इसीलिए पैसे ज्यादा ले लिए थे। लेकिन भैया जी हम बिटिया को बचा न सके.. अस्पताल में उसके अंतिम शब्द थे, ‘पापा.. चने की दाल और भात खिला दो।’ भैया जी जबतक हम इंतज़ाम करते तबतक बिटिया भूखी ही निकल गयी। आज जब दोपहर में आपके घर से चने की दाल, रोटी और चावल मिले भोजन करने के लिए तो अचानक बिटिया के अंतिम शब्द व उसका लालायित चेहरा आँखों के सामने आ गया। बस इसीलिए आँसू आ गए थे।” कहते कहते बीरबल फफक पड़ा।

मैंने उसे दिलासा देते हुए कहा – बीरबल, जो बिगड़ गया उसे कोई भी फिर से नहीं बना सकता है। हाँ, अब हमें कोशिश यह करनी चाहिए कि भविष्य में न बिगड़ने पाए। ठीक है न!

“जी भैया जी!”

शाम को अमृता ने सभी प्रकार की दालों का पाँच किलो का एक झोला, कुछ चावल, आटा, आलू व अन्य सब्जियों का अन्य झोला तैयार किया। उसके पाँच व दो वर्ष आयु के दो बेटों के लिए कुछ कपड़े, पत्नी के लिए कुछ साड़ियां व तयशुदा राशि से एक हज़ार रुपये अधिक देते हुए उससे हाथ जोड़ते हुए कहा – बीरबल, तुम्हारे तीन दिन न आने पर मैंने तुम्हें गलत समझा बावजूद इसके कि भारद्वाज जी मुझसे सहमत नहीं थे। मुझे माफ़ कर दो।

“अरे! भैया जी! ये क्या कह रही हैं आप? आप का परिवार बहुत अच्छा है। भगवान इस पर नज़र न लगे। अच्छा! भैया जी राम राम।”

फिर उसने झोले उठाये और अपने घर के लिए निकल पड़ा। आज उसकी चाल में तीव्रता, अभिमान, आत्मविश्वास और ठसक थी।

मूल लेखक:©जयसिंह भारद्वाज, फतेहपुर (उ.प्र.)

 

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