शहर की भीड़भाड़ में एक आलीशान अपार्टमेंट था — ऊँची इमारतें, चमकते फ्लैट, और भीतर रहने वाले वो लोग जो अपनी-अपनी दुनिया में उलझे थे। इसी अपार्टमेंट की दसवीं मंज़िल पर रहते थे संजय वर्मा, एक रिटायर्ड बैंक अफसर, उम्र लगभग 70 साल। सफेद बाल, चेहरे पर समय की लकीरें, और आंखों में गहराती तन्हाई।
संजय जी को इस सोसाइटी में रहते चार साल हो गए थे। पत्नी की मृत्यु के बाद अकेलेपन ने उन्हें घेर लिया था। बेटा अमेरिका में बस गया था, अब शायद वही उनकी दुनिया थी—वो भी सिर्फ वॉट्सएप कॉल तक सिमटी हुई।
लोग उन्हें देखकर नज़रें फेर लेते। बच्चे गलती से भी उनकी घंटी बजा देते, तो डांट सुनने को मिलती।
“कितने कठोर हैं न ये संजय अंकल?”
“बिलकुल पत्थर दिल हैं… किसी से न बोलते हैं, न मुस्कराते।”
ऐसे ही उपनामों से वो जाने जाने लगे थे। लेकिन ये कठोरता उनके भीतर की टूटी भावनाओं का लिबास थी — जो शायद किसी ने समझने की कोशिश ही नहीं की।
एक दिन उसी अपार्टमेंट में एक नया परिवार शिफ्ट हुआ विकास, उनकी पत्नी पूजा और दस साल का बेटा आरव।
एक शाम पूजा अपने बेटे के साथ टहल रही थी, तभी लिफ्ट में संजय जी से मुलाकात हुई।
पूजा ने मुस्कुराकर कहा, “नमस्ते अंकल!”
संजय जी ने बिना देखे सिर हिलाया और चुपचाप बाहर निकल गए।
“कितने रूखे हैं ये… लेकिन इनकी आंखें कुछ और कह रही थीं,” पूजा ने मन ही मन सोचा।
पूजा हर बार मिलने पर नम्रता से मुस्कराती, लेकिन संजय जी कभी संवाद नहीं बढ़ाते। एक दिन आरव की गेंद गलती से उनके दरवाज़े के पास चली गई। जैसे ही आरव ने दरवाज़ा खटखटाया, संजय जी बाहर आए और बोले —
“क्या घर में तमीज़ नहीं सिखाई जाती अब बच्चों को?”
आरव डर के मारे वापस दौड़ गया।
पूजा ने आरव को गले लगाया और कहा, “डर मत बेटा, शायद वो बहुत अकेले हैं।”
कुछ दिनों बाद होली आने वाली थी। सोसाइटी के बच्चों ने मिलकर कार्यक्रम रखा। सभी ने मिलकर फूल, गुलाल और मिठाई की तैयारी की। लेकिन आरव थोड़ा मायूस था। पूजा ने देखा और पूछा —
“क्या हुआ बेटा? सब खुश हैं, तुम क्यों नहीं?”
आरव ने आँखें नीचे करते हुए कहा —
“मम्मा, सबके दादाजी हैं, जो उन्हें रंग लगा रहे हैं, गले लगा रहे हैं। मेरे तो हैं ही नहीं।”
पूजा का दिल भर आया। तभी उसने निर्णय लिया — आरव को संजय जी के पास लेकर गई।
दरवाज़ा खोला तो वही सख्त चेहरा…
“जी?”
“अंकल, माफ कीजिए पर एक गुज़ारिश है। मेरा बेटा आपको देखकर दादाजी कहता है। क्या आप थोड़ी देर उसके साथ बैठ सकते हैं होली के दिन? रंग न लगाइए, बस उसके साथ थोड़ा समय बिताइए।”
संजय जी ने बिना कोई जवाब दिए दरवाज़ा बंद कर लिया।
अगले दिन दोपहर को सोसाइटी में सब होली मना रहे थे। पूजा और आरव भी तैयार होकर नीचे आ चुके थे। तभी सबकी नज़रें लिफ्ट की ओर गईं…
सफेद कुर्ता-पायजामा पहने, हाथ में मिठाई का डिब्बा लिए संजय वर्मा उतर रहे थे।
बच्चे चौंक गए, कुछ बड़े खुसर-पुसर करने लगे।
आरव ने दौड़कर उनके पैर छुए —
“दादाजी, आपने मेरी बात मानी!”
संजय जी की आँखें भर आईं। हल्का सा गुलाल आरव ने उनके माथे पर लगाया, और फिर सबने मिलकर उन्हें अपने घेरे में ले लिया।
उस दिन संजय जी ने खुलकर मुस्कराया, बच्चों के संग गुझिया खाई, और पहली बार बहुत हल्का लेकिन भावनात्मक संवाद किया।
अब हर शाम संजय जी पार्क में मिलते, बच्चों के साथ बैठते, बड़ों से बात करते। पूजा कभी-कभी उनके लिए चाय लेकर जाती।
एक शाम पूजा ने उनसे कहा —
“अंकल, अगर बुरा न माने तो एक बात पूछूं?”
“पूछो बेटी।”
“आप इतने कटे-कटे, खामोश और सख़्त क्यों थे? आप वैसे से तो बहुत प्यारे हैं।”
संजय जी कुछ पल चुप रहे। फिर धीमे स्वर में बोले —
“पत्नी के जाने के बाद सब कुछ सूना हो गया था। बेटा भी अपनी दुनिया में व्यस्त हो गया। यहाँ कोई बात करने वाला नहीं था। अकेलापन धीरे-धीरे दिल को जकड़ने लगा। भावनाएँ मरती गईं। और एक दिन खुद को बचाने के लिए मैं पत्थर बन गया।”
पूजा ने उनका हाथ थामा,
“अंकल, ये दिल पत्थर नहीं था… बस कोई उसे समझने वाला नहीं मिला। अब आप अकेले नहीं हैं।”
Rekha saxena
#”पत्थर दिल”