हरी कांजीवरम – अमरपाल सिंह ‘आयुष्कर’ : Moral Stories in Hindi

Moral Stories in Hindi : ‘ लो पहन लो बहू !’ सासू माँ की सीलन भरी आवाज़ सुन मुड़ी, तो देखा ! 

वह अपने हाथों में बेरंग जीवन लिए खड़ी थीं | कैसे बताऊँ कि जीवन में रंग तो अब आया है , पर वो तो माँ थीं !

            निकेत अब इस दुनिया में नहीं है | मुझे इस बात का डर कब से था पर नियति के आगे तो हम सभी विवश  होते हैं |  

  आज भी वो पल आँखों के सामने छपाक –छपाक कर तैर रहे हैं | संगम में नहाते हुए निकेत ने  किनारे पर बैठी मेरी डरी -सहमी एक जोड़ी आँखों की भाषा समझ यही  कहा था  –  ‘ डरो मत , डूबूँगा नहीं  ,  तुम्हारी आँखों में डूब – डूब कर तैरना जो सीख लिया  है |’  शरमाते –शरमाते बस मैं इतना बोल पायी थी , ‘चढ़ गयी है ज्यादा क्या ?’

        सच भी यही था, जिससे मैं भाग भी नहीं सकती थी | कहते हैं , स्वीकार में हल छुपा होता है |

                कई –कई बीत जाते दिन निकेत के प्यार भरे बोलों को तरस जाती थी ,कितनी पथरीली शामें चुभीं हैं अभी तक, ज़ेहन में |कितने सपनों का क़त्ल किया था तुमने निकेत ?    

         कोलोनी पार्क के पास बेहोश मिले थे तुम | ‘ओवरडोज़ ….’ बाबूजी बस इतना ही बोल पाये थे | मेरी सारी इच्छाओं,आशाओं को  जैसे लकवा मार गया था उस दिन | किसको दोष देती, किसे कोसती ?आँख नहीं मिला पा रहे थे हम सभी किसी से |माँ ,बाबूजी तो जैसे जड़ ही होते जा रहे थे |थक चुके थे क्या करते भला ?दवा,दुआ ,प्यार ,मनुहार ,फटकार,दुत्कार के फूलों-पत्थरों को फेंकते –फेंकते मन की हथेलियों को मानो पक्षाघात हो गया था |  

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                  जानते हो ! दिया लेकर ढूँढा था पिता जी ने ये रिश्ता |खुश होती हुई अम्मा कितनी बार ,यही वाक्य दोहराती थीं | अम्मा, पिताजी  के चेहरे की आलतायी तरंगें तुमसे थीं |तुम्हे पाकर जैसे दूसरा बेटा पा लिया था उन्होंने |गौर वर्ण ,सहज ,आकर्षक व्यक्तित्व |इन सात सालों में मुश्किल से तीन-चार बार वो लोग तुमसे मिले होंगे | पर मैं उन्हें रोज उसी निकेत से मिलाती रही, जिसे उन्होंने सगाई वाले दिन देखा था | यही सब सोच कि उन्हें यह जानकर कष्ट  होगा , कभी अपने दुखों की आँच को उन तक नहीं पहुँचने दिया|

       मुझे भी कहाँ भूल पाया है वो सगाई वाला  निकेत  |झुकी, शरमाई आँखें ,सहज व्यवहार | मैं तो मिट ही गयी थी, पहली नज़र में | पर वो संतुलित क्षणबीज , कितने असंतुलित पलों की क्यारियाँ सजा रहे थे क्या पता था ?

                याद है जिस दिन मैंने पहली बार वाईन की बोतल तुम्हारे कार में देखी थी ! ‘बस कभी -कभार ले लेता हूँ ,पार्टी -शार्टी में यार ! क्यों चौंक रही हो इतना ,तुमसे ज्यादा नशा शराब में नहीं है, और क्या कमी कर रखी हैं मैंने, ठाट -बाट में तुम्हारे |’ कहकर मुझे चुप करा दिया था तुमने |

          दुःख होता है | काश! उस दिन चिल्ला- चिल्लाकर सब बता देती, दोनों घरों की दीवारों और आँगन को |पर नही ,नही था इतना साहस | एक मर्यादित रिश्ते को तार – तार करने का| नहीं थी इतनी विद्रोही कि त्याग देती तुम्हे |नही थी इतनी समर्थ की चली जाती अकेले मायके | कि लो ! लौट आई तुम्हारे घर की शान ,उतारो आरती !बँटवा दो पूरे मुहल्ले में रेवड़ियाँ ! छुपा लो अपना दमकता चेहरा समाज से ! 

                        बस जिस पल बोलना था मन और जुबान ने साथ नही दिया| मुकर गए सभी, नियति की घुड़की से  |अपने ही अस्तित्व से इतना अजनबीपन ,शरीर और संवेदना दोनों स्तरों पर | काश ! तुम जान पाते निकेत , एक लड़की बचपन से जब भी भावुक पलों को जीती है, उन सपनों में उसका एक राजकुमार भी शामिल होता है |गुड्डे से लेकर राजकुमार को खोजने की लम्बी काल्पनिक यात्रा, मेरे भी मन ने की थी , पर उस  यथार्थ के निशान  अम्मा  के माथे  और पिताजी के तलवों पर पड़े थे|कितने रिश्तों को दरकिनार कर तुम चुने गए थे | 

‘राजयोग पड़ा है तेरी कुंडली में | देख ! कैसा लड़का ढूँढ निकाला हमने और जीजा जी ने मिलकर, अपनी प्यारी भांजी के लिए ’ मामा की आवाज़ आज भी कानों में गूंजती है | अच्छा हुआ यह सब देखने से पहले ही मामा ….| 

           मैं आज तक नहीं समझ पायी कि नशे में ऐसा क्या  है, जो अपनों से बेहतर होता है |लानत है ऐसी सुरसा  प्यास पर, जो जीवन-सरिता को मरुस्थल बना दे ! एक आभासी संसार रचकर उसे जीते जाना ,ज़िन्दगी है भला ? अपनेपन की मिठास का सुख, चेतना से ही प्राप्त होता है |

                शराब की एक – एक बूँद तुम्हारे  साँसों की लय को तोड़ रही थी निकेत | काश तुम ये समझ पाते ! मेरी उम्मीदों के साथ, कितनी उम्मीदें जुड़ी थीं  | सपनों के कितने गुलदस्ते ,तुम्हारे नशे की सावनी फुहारों से मुरझा गये,    

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             जीवन की विडम्बना नहीं तो और क्या बोलूँ इसे ? तुम्हारे पाँव में प्लास्टर था, तेज बुखार से सारा शरीर तप रहा था और ऊपर से तुम्हारी जिद …..रात के नौ बजे, हाँ ! अकेले बाज़ार, वो भी शराब लाने | मैं अकेली,लोग क्या कहेंगे, पति के लिए शराब लेने आयी है या ….सारी आशंकाओं के बावज़ूद उठ गए थे मेरे कदम | ले आई थी उस रात ज़हर की बोतल | भूल पाऊँगी कभी निकेत ? जिस बेटी को बाप ने शराब शब्द बोलने पर कभी चाटा मारा था, वही बेटी शराब की बोतल खरीद कर ले आयी | सुन लेते तो, घटश्राद्ध  कर देते अपना | ना ही याद आयें वो पल तो ठीक है……|

               धीरे-धीरे एक समय ऐसा भी आया, जब मैं तुम्हे, तुम्हारे उसी रूप में स्वीकार चुकी थी |जैसे तुम थे |और  मैं इस बात से खुश हो जाती थी कि, तुम शराब पीकर घर आये हो | कितना प्यार बरस जाता था सावन-भादों – सा | दरवाजा खोलते ही निकेत मुझे बाहों में भर लेते |मेरे घने लम्बे बालों को, जिन्हें पूरे  होशोहवाश में , कभी कैंची से कुतर दिए थे |वही  कुतरे बाल  नशे में धुत होते ही लहराती नागिन लगने लगते निकेत को , उन्ही पर शायरियाँ भी कहने लगते |सूख चुके पपड़ाये होंठों को गुलाब की पंखुडियां और बेतरतीब – सी बंधी साधारण  कॉटन साड़ी में भी, मैं निकेत को ‘इज़ाज़त’ और ‘घर’ वाली रेखा ही नज़र आने लगती  |

                 जब निकेत होश में होते तो सजने का मतलब क्या ?और जब नशे में होते, तो बिना सजे भी , मैं उन्हें  कातिलाना ही लगती |

      जीवन की इन्ही विडम्बनाओं ने सिकोड़ दिया था मुझे |मैं सजना भूल चुकी थी |अब तो बस शाम को निकेत के लड़खड़ाते क़दमों की आहट ही मेरे गृहसुख का पर्याय थी |इसी को मैंने जीवन का सच मान, स्वीकार लिया था | 

मेरी  उबड़ -खाबड़ नीदों ने दिव्यांग स्वप्नों को ही ,ऊँची -लम्बी कूद करने की इज़ाजत दे दी थी |अब तो निकेत जितनी देर नशे के आगोश में रहते  ,समय और जीवन दोनों शान से चलते |सुबह चढ़ते सूरज के साथ, निकेत का ढलता नशा कहर ढाता  था  |चीखना, चिल्लाना ,बर्तनों की तोड़ –फोड़ उफ़्फ़ ! कभी -कभी जी में आता शराब में ही चाय की पत्ती , चीनी उबालकर पिला दूँ |

‘बोलो आज क्या चाहिए ,आज जो भी बोलोगी दे दूँगा मेरी जान |’ मैं गुस्से से बोल पड़ी थी – ‘ज़हर पिला दो मुझे !’मेरी  आँखों में उतर आये कुहासे को अपने हाथों से साफ़ करते हुए निकेत ने मेरे गालों पर हलकी – सी चपत देते हुए कहा था  -‘चुप कर पगली ! तुझसे पहले मैं ना खा लूँ ज़हर |आज के बाद फिर कभी ऐसा मत बोलना | मैं तुम्हारे रेशमी एहसासों के बिना जी पाऊँगा क्या  ?’

 ‘तो फिर ये पीना बंद कर दो |’ मेरी ऐसी हिदायत सुनकर बोलते –‘मुझे छोड़कर ये शराब नहीं जी पायेगी मेरी जान  !’ और ऐसा कहते हुए निकेत के लड़खड़ाते ठहाके, पूरे घर में गिरने -सँभलने   लगते |

               इन्ही पतझड़ पलों को समेटती  हुई जी रही थी, निकेत के साथ | ऐसा लगता था मानो दुःख की गीली ज़मीन पर कोई आग रख जाता है रोज ,जिनमे भभक कर ना जाने कितने अंकुरित स्वप्न ,प्रश्न और इच्छाएँ भस्म हो जातीं थीं | माँ अक्सर दुआओं की लम्बी फेहरिस्त भेजतीं रहती थीं | तिनका -तिनका विलीन होता सुख उन्हें  कहाँ सम्हाल पाता भला ? 

                और एक दिन जब भैया ने पिताजी को बताया कि निकेत बहुत पीने लगा है, तो उन पर तो जैसे पहाड़ ही टूट पड़ा |

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भैया ने समझाया भी की कोई बात नहीं, लिमिट में रहकर पिए तो क्या बुरा ? पर लाख समझाने के बावजूद …..पिताजी  अब पहले वाले पिताजी  कहाँ रहे थे ? अपराधबोध की जो तख्ती उन्होंने अपने गले लटका ली थी पीड़ादायक थी |आज भी नहीं जानती कि भैया को निकेत के पीने की बात कहाँ से पता चली | पर ये जान गयी कि नियति हवाओं से भी अपना काम निकलवा लेती है |

अब तो पिताजी और  भैया मुझे लेकर अक्सर आपस में उलझ जाते, ‘कमाता तो है ना पिताजी ,अब ये तो सुविधि के ऊपर है कि  कैसे उसे पीने से रोक पाती है ! पत्नी अगर चाहे तो ……..हुंह दिन भर बेटी का रोना लिए बैठना कहाँ तक उचित है ? नही निभ रही , तो अलग हो  जाये |आये दिन का स्यापा ख़त्म |’

       मुझे याद है ! मायके में जब भी भैया और भाभी मेरी नरक होती ज़िन्दगी के गुणा – गणित में उलझते तो दादी अक्सर वो  दर्दभरा  लोकगीत  गुनगुनाने लगतीं – “माता के रोये से नदिया बहत है ,बाबुल  के रोये सागर पार , भैया के रोये से टूका भिजत है, भौजी के दुई –दुई आँस…….|

बेटी के लिए अपने ही घर में भावों और आँसुओं का ऐसा बँटवारा  …..! सुनकर ,झीने चादर -सा मन निचुड़ जाता |

             ‘एक बच्चा हो जायेगा तो सब सही हो जायेगा |’ लोगों की ऐसी बातें सुनकर गठिया लेती |आखिरकार ! ढेर सारी गांठों ने मेरे  संकल्पों  की चादर को फटने पर मजबूर कर दिया |

अविक को मेरे आँचल में आये पाँच साल हो गया था , पर पुत्रमोह भी निकेत को उसके संकल्पों से ना डिगा सका |

“भला बताओ कैसे दूँ ये ज़हर ,अपने हाथों से तुम्हे निकेत ?सिर्फ़ इसलिए कि मुझे अपने प्यार भरे सार्थक पल चाहिए |नहीं –नहीं ! मैं इतनी स्वार्थी नही हो सकती |तुमसे मिली उपेक्षा ,झिड़कियां भी तो प्यार ही हैं मेरे लिए !”  

           2 अप्रैल , अविक का जन्मदिन ,बहुत संतुलित कदमों और आवाज़ों को बुलाया था | चैत्र नवरात्रि चल रहा था ,पूरे दिन निकेत के लड़खड़ाते क़दमों की  प्रार्थना की | भगवान ने सुन ली, नशे में बहके निकेत के संग  पूरी पार्टी कब बीत गयी, पता ही ना चला |अब तो मुझे नशे में डूबे निकेत की आदत   हो गयी थी |संवेदनाओं का अथाह सागर था मेरे पास , जिसमें मैं  गोते लगाती रहती थी | मन बुद्धू -सा महसूसता, मानो दुनिया का सबसे अच्छा पति भगवान ने मेरी ही कुंडली के सप्तम भाव में डाल दिया है |

     ‘तो क्या और कोई उपाय नहीं बचा ?’ बाबू जी ने डॉक्टर साहब से यह पूछते हुए थूक को सूखते हलक से नीचे उतारा |  ‘पूरे शरीर को ख़त्म कर रहा है धीरे –धीरे ये ज़हर ..’ बुदबुदाते हुए बाबू जी  कमरे से बाहर चले गए थे |और   निकेत की मुखाग्नि के बाद से आज तक , हम दोनों  एक- दूसरे के  सामने  जाने की हिम्मत नही जुटा पाये | 

            कैसे बताती उन्हें कि मैंने मार डाला उनके बेटे को ! क्या कोई औरत इतनी क्रूर भी हो सकती है ? आज मैं खुद से भी तो यही सवाल करती हूँ ! सिर्फ़ सुकून के दो पल और निकेत का प्यार, यही पाना था ना मुझे, बस….!  

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             बिना नशे के निकेत की वहशियाना हरकतें अपनी हदें पार कर जातीं थीं |जो भी थोड़ा -बहुत सुख सहेजा, वो तो नशे में बहके हुए निकेत से मिला उपहार था| और मैं अभिशप्ता, अपने जीवन -अलाव को गर्म रखने की चाह में ,छाँव उपजाने वाली टहनियों को ही झुलसाये जा रही थी | 

    मेरे पूरे शरीर पर निकेत के हैवानियत की कितनी तूलिकाएं सजी हुई हैं | और उस दिन तो निकेत ने मुझे कुलटा ही करार दे दिया ,जिस दिन अविक ने उनकी गोद में जाने से मना कर ,हमारे यहाँ किराये पर रहने वाले भाई साहब के साथ पार्क में चला गया था | बार –बार पिघलते काँच सरीखे निकेत के वो अपमानजनक शब्द –  ‘मुझे तो यकीन ही नहीं होता कि ये मेरा बेटा है सुविधि ….’ मुझे भावशून्य बना गए ,मैं स्तब्ध थी |कुछ भी ना बोल सकी | मानो मेरे चिंतन से उत्पन्न नवजात शब्द, ज़ुबान तक आते – आते आत्मघात कर ले रहे हों | 

           कैसे बताती , अविक के स्कूल में लोकल गार्जियन भाई साहब ही हैं | जी में तो आया था ,चीख- चीख कर सारा नशा उतार दूँ उसी पल, निकेत का | पर घर –परिवार को सोच, चुप रह गयी थी  …..मन में तो आया था बता दूँ ,कि जब तुम नशे के आगोश में समा चुके होते हो और अचानक घर में किसी की तबियत ख़राब हो जाती है तब | सिलिंडर बदलना हो तब  |तुम्हारी लड़ी –भिड़ी गाड़ी पार्क करनी हो तब | बाबू जी की डायलेसिस करानी हो तब …. और ना जाने कितनी-कितनी  जिम्मेदारियाँ ….सब भाई साहब ही करते हैं| कहने भर को उनके परिवार नही है बस्स ! तुम्हारे शराबीपने ने उन्हें भी परिवार, उपहार में दे दिया है | और तो और अविक, एक शराबी बाप का बेटा होने की कितनी बड़ी सजा काट रहा है | काश ! तुम ये बातें समझ पाते निकेत ! 

एक औरत को शराब के नशे में धुत पाकर ,एक पति  कब का तिलांजलि दे देता उसे, पर ये तो हमारे संकल्पों  की गहरी नीवों ने मुझे अब तक टिकाये रखा है | 

बस इन्ही मनहूस लम्हों के साये से खुद को ,अविक को बचाते- बचाते मैंने, तुम्हे हमेशा के लिए खो दिया निकेत !                             

             मुझे माफ़ कर देना ! क्या करती, हमारे शादी  की सालगिरह थी उसदिन | मैं तुम्हारे साथ अपने खूबसूरत पलों को जी लेना चाहती थी | क्या कहूँ ! मेरे जीवन की विडम्बना ….काश ! उस दिन तुम्हारा वालेट ना चोरी हुआ होता ! तुम आये भी तो, घर में तूफ़ान लेकर | मेहमानों ने आना शुरू भी कर दिया था | मैं तुमसे चुप होने की भीख माँगती रही | भैया –भाभी,बुआ सारे रिश्तेदारों के सामने बस अपने माँ -बाप की इज्ज़त बचाना चाहती थी | डॉक्टर के लाख मना करने के बावज़ूद मैंने पूरी बोतल तुम्हारे सामने रख दी | पता था, एक भी बूँद शराब की , कभी भी जहर बन सकती थी तुम्हारे लिए | कैसे कहती सबसे ,तुम्हारे लड़खड़ाते कदमों से  ही मेरे  संतुलित जीवन का राग जन्म लेता  है | और हाँ ! मेरे स्वार्थी मन ने जी लिया उन पलों को,  उस दिन|

            जब तुम मुझे पहली बार इस घर में लाये थे तो मुझसे कहा था – “ मरते दम तक तुम्हे रानी बना के रखूँगा, और तुमने किया भी वही ! जी भर के सभी रिश्तेदारों के सामने मेरी तारीफ़ की | भाभी और बुआ जी का चेहरा तो देखते बन रहा था | बुआ जी तो भाँप भी ना पायीं कि तुमने पी रखी है | जाते –जाते सभी आशीर्वाद की भारी –भारी गठरियाँ भी गिरा गए | पर मेरी नियति  के  कमज़ोर कंधे उसे उठाने में समर्थ कहाँ थे निकेत ? चंद पलों में तुमने मुझे जीवन का वो सुख दे दिया,जिसकी शायद मैं पूरी तरह से हक़दार  थी भी या नहीं !

जानते हो निकेत ! आज भाई साहेब भी कमरा छोड़कर जा रहे हैं, तुम्हारे शान्तिपाठ तक रुकेंगे बस |

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 क्यों ? ये प्रश्न पूछने का साहस नहीं मुझमें,किरायेदार हैं कहीं भी जा सकते हैं अपनी सुविधा से | पर उनकी पवित्र और निर्दोष आँखों में तुम्हारे लिए कोई शिकायत नहीं है |अविक को नहीं बताया है ,पूरा घर सिर पर उठा लेगा |बाबूजी बिलकुल शांत हैं,अंतिम महीने का किराया भी नही लिया भाई साहेब से, उन्होंने | ‘अविक के लिए दे रहा हूँ, रख लीजिये कहकर’ , मुझे देकर चले गये | 

            तुम तो चले ही गए थे निकेत और आज भाई साहब भी जा रहे हैं | एक –एक कर सबको जाना है…… रीचेबल ….नॉट रीचेबल| बस यही फर्क रहता है | एक अनकहा खालीपन रहेगा यहाँ| यादों की ना जाने कितनी बेतरतीब कहानियाँ रोज यूँ ही लिखती रहूँगी, पर भेज कहाँ पाऊँगी ? एक बात बोलूँ निकेत ! तुम्हारे जाने के बाद का सन्नाटा अंतिम सत्य की बुझ चुकी अनलशिखा से भी ज्यादा भयावह लगता है |और शोर से तो जैसे प्यार ही हो गया है अब | जीवन को स्वीकार ,आत्मसात करना पड़ता है, नये संकल्प -विकल्प तलाशने पड़ते हैं | बहुत कुछ है तुम्हारा दिया हुआ निकेत | चाहे शोर था या सन्नाटा सब स्वीकार है |   

              हुम् ….हरे रंग की कांजीवरम में देखना चाहते थे ना, मुझे तुम ! ये जानते हुए कि मुझे हरा रंग पसंद नहीं | सालगिरह वाले दिन भी मैं तुम्हारे वादे को पूरा ना कर सकी | 

और आज एक अशान्त मन लिए तुम्हारे शान्तिपाठ में जाना है |जी में आता है आज तुम्हारे पसंद का रंग पहनूँ ……पर !

       अचानक ! मैंने देखा कि अविक के नन्हे कदम हाथों में पार्सल लिए हुए मेरे कमरे की तरफ आ रहे थे | अविक के हाथों  से  पार्सल लेते हुए, माँ जी बस इतना बोल सकीं ,     ‘ निकेत ने ऑनलाइन ऑर्डर किया था बहू , तुम्हारे लिए…….. हरी कांजीवरम ! …….. पर तुम्हे तो हरा रंग ….’ | माँ जी की  कंपकपाती आवाज़  को, बीच में ही काटते हुए मैं बोल पड़ी – ‘अब पसंद है माँ जी !’ 

    पलट कर देख रही हूँ तो बिस्तर पर निकेत के पसंद की हरी कांजीवरम रखी हुई है |अविक के नन्हे –नन्हे हाथ उसकी परतें खोल रहे हैं |

‘ तुम परेशान मत होना बेटा ,हरे रंग का ब्लाउज रखा है मेरे पास,  लाती हूँ अभी ……………………..!’यह कहते हुए, माँ सफ़ेद साड़ी को अपने हाथों में लिए , मेरे कमरे से बाहर चली गयीं |

लेखक

  अमरपाल सिंह ‘आयुष्कर’

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