Moral Stories in Hindi
ठंड के मौसम में चाय की भाप मन को आत्मिक तुष्टि का एहसास करा रही थी. जगजीत सिंह की ग़ज़ल, कप से उठता भाप और पेड़ों से छनकर आती धूप ने बालकनी में बैठी तृषा को स्वर्गिक आनन्द
दे रखा था. साथ में मूंगफली के गुलाबी दानों को एक एक कर मुंह में डालती और हर उन यादों को अपने में आत्मसात करती जाती जो कभी उसकी जिंदगी का अहम हिस्सा हुआ करते थे। पास में ही टेबल पर रानू की लिखी ‘और शाम ढल गई ’ किताब रखी हुई थी.
तृषा इस किताब को जाने कितनी बार पढ़ चुकी थी,पर हर बार पढ़ते हुए उसे एक नएपन का एहसास होता. प्यार की टीस,दर्द का एहसास, नायक की निष्ठुरता, नायिका के दिल की कशिश ऐसा लगता जैसे इन चरित्रों में वह खुद गड्डमगड्ड हो गई है.
पर कहाँ…ऋषभ को उसका कहानी कविता उपन्यास में डूबना कहां अच्छा लगता, कभी कभी तो कह भी देता– क्या यार! गणित की स्टूडेंट होकर भी तुम गणित की स्टूडेंट नहीं लगती. गणित का रौब दिखना चाहिए चेहरे पर तुम तो साहित्य की चादर ओढ़े कोमलांगी सी दिखती हो.
ऋषभ की बात सुन वह हल्के से मुस्कुरा देती और कहती–दोनों की अपनी जगह है. मुझे जीने दो न दोनों के बीच.
ऋषभ एक कंपनी में मैकेनिकल इंजीनियर था, मशीनों के बीच रहकर उसके सोचने की दिशा भी यांत्रिक हो गई थी . बातों के बीच खामोशियां पसर जाने के बाद भी दोनों नदी के दो किनारों की तरह एक दूसरे के साथ बह रहे थे.
काफी महीनों से उसके घर का निचला हिस्सा खाली पड़ा था. वैसे तो उसका साथ देने के लिए किताबें थी, फिर भी वह चाहती थी कि कोई किरायेदार अगर आ जाए तो घर में थोड़ी रौनक बनी रहेगी. इसलिए अपने जान पहचान वालों में उसने किराए पर घर देने की बात कह रखी थी.
तभी कॉलबेल की आवाज से उसकी तंद्रा टूटी.
उसने कामवाली को गेट खोलने को कहा और खुद बालकनी से नीचे झांक कर देखने लगी कि कौन आया है.
गेट खुलते ही एक लंबा सुदर्शन युवक अंदर आया और बोला –मुझे शर्मा आंटी ने बताया कि यहां किराए के लिए घर खाली है, मैं देखना चाहता हूं.
हां हां… अंदर आ जाओ, कहते हुए तृषा नीचे उतरी और उस युवक से पूछी–क्या नाम है तुम्हारा? कहां से हो? क्या काम करते हो?
युवक ने थोड़ा ठहर कर सधे हुए आवाज में कहा– जी, मैं नील.. राँची से हूं और अभी कुछ दिनों पहले मेरा ट्रांसफर स्टेट बैंक में हुआ है. मुझे एक छोटे से आशियाने की तलाश थी जो मेरे अनुकूल हो.
क्या चाहिए था आपको अपने आशियाने के लिए – तृषा ने भी उसी अंदाज़ में पूछा.
जी कुछ खास नहीं….प्रकृति प्रेमी हूं , छोटे छोटे शौक हैं उन्हें जिलाये रखने की हसरत रखता हूं तो उसी को ध्यान में रखते हुए वैसी ही ख्वाबगाह चाहता हूं.
वाह…आपने तो साहित्यिक अंदाज में अपनी पसंद बता दी. फिर तो आप अंदर चलकर देख लें , यह घर आपकी रुचि का है या नहीं.
घर तो यह मेरी रुचि का ही है, क्योंकि बैंक आते जाते मैं इस घर को देख ऐसा ही घर लेने की कल्पना कर रहा था..
ओह…तब तो आप जब चाहें यहां रहने के लिए आ सकते हैं.
बहुत बहुत धन्यवाद आपका… मैं कल ही अपना सारा सामान लेकर यहां शिफ्ट होता हूं…नील ने मुस्कुराते हुए कहा और जाने को हुआ कि तृषा पूछ बैठी–परिवार में और कितने लोग हैं?
नील ने उत्तर दिया –फिलहाल यहां तो कोई नहीं, अकेला ही रहूंगा मैं अभी.
ओके.. उसकी परिष्कृत रुचि को देख तृषा मन ही मन खुश हो गई…
शाम में ऋषभ के आने के बाद उसने काफी उत्साहित होकर नील के आने की बात बताई…
पर ऋषभ ने ज्यादा इंटरेस्ट न लेते हुए कहा –तुम हर जगह अपनी पसंद के लोग ढूंढ लेती हो.
तृषा कुछ न बोली बस मुंह बना कर रह गई.
अगले ही दिन नील अपना सामान लेकर आ गया. सामान क्या था, बस दो चार बर्तन, एक गैस का चूल्हा, कुछ कपड़े.
पर साथ में वह गिटार और किताबों से भरी आलमारी ले आया था.
तृषा को सुकून सा महसूस हुआ. शायद समान रुचि वाले अपना सुकून इसी तरह तलाशते हैं..
शाम को ऋषभ अक्सर देर से आते..तब तक वह खाना बना अपनी पसंद की किताब और गज़लों के साथ बालकनी में बैठी रहती…
नील बैंक से शाम में ही आ जाता और बालकनी से आती धुनों को सुनता..
एक दिन तृषा को सीढ़ियों से उतरते देख उसने कहा – तृषा जी, आपकी गज़लों का संकलन बहुत अच्छा है , आपकी पसंद की छाप दिखती है उन पर..और घर को कितने सुंदर से सजा रखा है आपने, बगीचे में तो जैसे सारे फूल मुस्काते है .
अब शाम में अक्सर जब तृषा बालकनी में चाय पी रही होती, नील भी बाहर चबूतरे पर चाय का कप ले बैठ जाता और संगीत का आनंद लेता..
कभी कभी गिटार ले मधुर स्वर लहरियां छेड़ देता..और उस दिन शाम में जब तृषा घंटियों की ध्वनि के साथ अगरबत्ती जला भजन गा रही थी जाने किस वशीभूत हो वह ऊपर चला आया और सीढ़ियों पर खड़ा हो देर तक सुनता रहा.
जैसे ही तृषा की संध्या आरती खत्म हुई उसने कहा–सुपर्ब, स्पीचलेस…
तृषा कुछ कह न सकी..उसकी खामोशी जैसे गूंज रही थी, मौन ने आँखों में शब्द ढूंढ लिए थे.. आँखों के कोर भींग उठे, बस इतना ही बोल सकी–तुम्हारे गिटार के स्वर भी जैसे बातें करते हैं..फिर धीरे से पूछा–गाजर का हलवा बनाया है मैंने –खाओगे?
उसकी मौन स्वीकृति को समझ जैसे ही हलवे का कटोरा उसने आगे बढ़ाया.. अंगुलियां छू गई आपस मे. तृषा ने महसूस किया जैसे सैकड़ों दीप एक साथ जल उठे हों, जैसे मौन मुखर हो उठा हो, जैसे भीतर कोई ख्वाब मचल उठा हो..
जिंदगी बदल गई हो जैसे…नजरों ने धड़कनों की भाषा पढ़ ली .. एक अनकही दास्तान लिखी गई और मिटती गई..
अगली सुबह ऋषभ के जाने के बाद नील ने तृषा से कहा– ट्रांसफर हो गया है मेरा…कहते कहते उसके आँखों के कोर की जमीन गीली हो गई जैसे बादल फटने ही दोनों के दिल बरसने लगे हों..
हमें पहले मिलना था …सदियों पहले…क्या हम फिर मिलेंगे कभी…तृषा ने थरथराई आवाज में पूछा.
जरूर…हर उस बेला में हम मिलेंगे जब रिश्ते की खूबसूरती उकेरी जायेगी..सांध्य आरती के वक्त, गज़लों की धुनों के बीच, आपके रानू की लिखी प्रेम अभिव्यक्त पंक्तियों के बीच…मिट्टी की सोंधी खुशबू के साथ भी…और जब ऋषभ जी आपको आपके शौक के लिए दो बातें बोलें तब भी ..
ओह…इतनी सूक्ष्म दृष्टि से पढ़ा तुमने मुझे… कहते हुए तृषा का चेहरा कुछ पल के लिए भाव शून्य हो गया ..
सालों बाद एक चिट्ठी आई…सफेद लिफाफे में..
लिखा था –
पढ़ता रहता हूं आपकी लिखी कहानियाँ विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में और जीता हूं उन पलों को..सब कुछ अच्छा है फिर भी एक कमी सी है..
कुछ रिश्तों का कोई नाम नहीं होता बस एक अहसास होता है जो समय प्रवाह में बहता चला जाता है ..जिसकी कहानी किसी किताब में लिखी नहीं होती पर इसकी कसक दिल के हर कोने को सुकून देती है…
वीणा राज