गृहलक्ष्मी – निभा राजीव “निर्वी” : Moral stories in hindi

   मधु ने ससुर जी को चाय का कप पकड़ाया और सासु माँ को चाय का कप पकड़ा ही रही थी कि ससुर जी ने चुस्की लेते हुए तृप्त होकर लाड़ से कहा ,”- वाह क्या चाय बनाई है बिटिया! तुम्हारा नाम मधु है और चाय भी बिल्कुल वैसी ही बनाई है। इस चाय के साथ तुम जरा वह मठरियाँ भी दे देती जो कल बनाईं थीं तो बस मजा ही आ जाता..”

 कोई और दिन होता तो मधु उनकी इस बात पर बलिहारी जाती लेकिन आज उनके शब्द मानो उसके कलेजे पर बरछी चला रहे थे। वह भुनभुनाते हुए अंदर की ओर चल दी.. ‘ इन्हें तो बस मुझ पर हुक्म चलाना आता है। यह चाहिए वह चाहिए …. नौकरानी बनकर रह गई हूँ मैं तो सबकी…’

उसकी आँखों के सामने कल की वह घटना तैर गई जब उसकी सहेली सुनीता उससे मिलने आई थी। सुनीता अपने पति से अलग हो चुकी थी और यहीं किसी कंपनी में काम कर रही थी।अब चूंकि चाय नाश्ते का समय था तो मधु ने सबके लिए अच्छा सा नाश्ता और फिर चाय बनाई थी। उसने दौड़-दौड़ कर सबको बहुत प्यार से सबको नाश्ता कराया। फिर किचन समेटा और आकर बैठी अपने चाय का कप लेकर सुनीता के पास.. “-और बता सुनीता! क्या चल रहा है??”

 सुनीता ने इधर-उधर देखकर फुसफुसाते हुए कहा, “-मेरा तो जो चल रहा है वो चल रहा है.. तू बता कि तेरा क्या चल रहा है और यह सब क्या हो रहा है..??” 

मधु के चेहरे पर उलझन के भाव तैर गए।

“- मैं कुछ समझी नहीं सुनीता, तू कहना क्या चाहती है??..”

“-अरे मैं यही कहना चाहती हूं कि तुझे क्या जरूरत आ पड़ी है पूरे घर की नौकरानी बनने की??”

 सुनीता ने एक-एक शब्द पर जोर देते हुए कहा।

“-यह तो कैसी बातें कर रही है सुनीता! मैं भला नौकरानी क्यों रहूंगी? यह तो मेरा परिवार है! सुमित के जैसा इतना प्यार करने वाला पति मिला है और मम्मी जी पापा जी मुझे कितना प्यार करते हैं। हमेशा घर की लक्ष्मी मानते हैं तो मैं भी इन सबको इतना ही प्यार देती हूँ..” 

“अरे पागल है तू..”.. सुनीता फिर फुसफुसाई… “यह सब बस तुझे गृह लक्ष्मी गृह लक्ष्मी कहकर बेवकूफ बना रहे हैं। तेरी अहमियत एक नौकरानी से ज्यादा नहीं है इस घर में। सोच कर देख सुबह से शाम तक लगी रहती है सबका ख्याल रखने में। तेरी अपनी कोई ज़िंदगी है या नहीं?? सब प्यार की आड़ में अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं….मैं तो कहती हूँ अभी भी संभल जा और इन सबको अपनी औकात बता दे… तू एक पढ़ी-लिखी लड़की है किसी की नौकरानी नहीं, जो घर भर का ख्याल रखती रहे। तू भी घूम फिर…शॉपिंग कर.. सहेलियों के साथ क्वालिटी टाइम स्पेंड कर… मुझे देख शान से अकेली रहती हूँ इन सब झंझटों से दूर… अपनी ज़िंदगी अपने हिसाब से जीती हूँ। मेरे तौर तरीके मेरे पति को पसंद नहीं थे तो भई मैंने तो उसे भी टाटा बाय-बाय कर दिया .. इसीलिए तुझे भी समझा रही हूँ।इन सबके झूठे प्यार के झाँसे में आकर अपनी ज़िंदगी मत बर्बाद कर…”

मधु एक पल को सोच में पड़ गई, फिर संभलते हुए कहा,

“-छोड़ ना सुनीता, तू यह क्या बातें लेकर बैठ गई। कुछ अच्छी बातें करते हैं ना..कितने दिनों बाद मिले हैं।” 

ऊपर से तो कह दिया मधु ने मगर सुनीता के शब्द उसके कानों में और मन मस्तिष्क में हथौड़े की तरह बज रहे थे। सुनीता की यह बातें सुनने के बाद उसे भी कहीं ना कहीं सचमुच ऐसा लगने लगा था कि सब लोग उसे इस्तेमाल कर रहे हैं और घर में उसकी अहमियत एक नौकरानी से ज्यादा नहीं है।

“-आज नहीं मधु! आज अब घर जाने दे! मुझे जरा ब्यूटी पार्लर भी होते हुए घर जाना है…तेरी तरह बालों का जुड़ा बाँधकर सबका नाश्ता तो नहीं बनाती हूँ ना मैं…”…वह कटाक्ष करती हुई हँसकर अपना पर्स उठाकर चल दी। दरवाजे तक पहुंच कर वह पीछे मुड़ी और मधु से कहा, “-मधु तू मेरी बहुत प्यारी सहेली है इसीलिए तुझे यह सब कहा। मेरी बात पर सोचना जरूर।”

    तभी फिर ससुर जी की आवाज से उसकी तंद्रा भंग हुई..”- अरे मधु बेटा, अब तो चाय खत्म हो जाएगी… मठरी कहाँ रह गई मेरी…”

ढेर सारी कड़वाहट जैसे घुल गई मधु के मुंह में…उसने तीक्ष्ण स्वर में कहा,”- पापा जी अभी मुझे बहुत काम है. आज बिना मठरी के ही चाय पी लीजिए। अगली बार मठरी दे दूंगी।”….उसके इस अप्रत्याशित उत्तर पर चौंक गए ससुर जी लेकिन कहा कुछ नहीं।… चुपचाप चाय पीकर कप रख दिया। सासु माँ भी उसके बोलने के इस ढंग पर चौंक पड़ी। फिर भी उन्होंने कुछ नहीं कहा बल्कि उठकर वह आई और मधु के कंधे पर हाथ रखकर आत्मीयता से पूछा ,”-क्या हुआ बेटा? कुछ परेशान लग रही है.. कोई परेशानी है क्या?”

उनके स्वर में मधु को चापलूसी ही दिखाई दी। मधु ने कटु स्वर में उत्तर दिया..

“-नहीं मुझे भला क्या परेशानी हो सकती है। मैं तो औरों की परेशानियाँ दूर करने के लिए हूँ।आप जाएँ पापा जी के पास बैठकर चाय पिएँ..”

और सासु माँ को वहीं खड़ी छोड़कर अपने कमरे में चली गई। रात का खाना भी उसने बेमन से जैसे तैसे बनाया और सबको परोस दिया। पहला निवाला खाते ही सुमित ने हल्के फुल्के अंदाज में कहा, “-आज सब्जी का स्वाद कुछ अलग नहीं लग रहा है??”

उसका इतना कहना था कि बिफर पड़ी मधु,

“-जैसी मैं हूँ, वैसी ही सब्जी भी है। पसंद आ रही है तो खाओ वरना फेंक दो।” सुमित भौंचक्का रह गया लेकिन फिर किसी ने कुछ नहीं कहा। सब ने चुपचाप खाना खा लिया और सब अपने-अपने कमरे में सोने चले गए। रोज की तरह अगली सुबह भी मधु की नींद समय पर ही खुल गई थी पर वह जानबूझकर कमरे से बाहर नहीं निकली…’ आज मैं तो नहीं निकलने वाली..बनाती रहें बूढ़ी माता सबके लिए चाय.. कुछ ही दिनों में आटे दाल का भाव ना समझा दिया सबको तो मेरा नाम भी मधु नहीं..” तभी आदतन ससुर जी की आवाज आई, “-अरे मधु बेटा!आज चाय की हड़ताल है क्या??मैं तो कब से इंतजार कर रहा हूं कि चाय मिले और साथ में वह वाली मठरी भी..”

मधु फिर तिलमिला गई,

.’ मैं तो मुफ्त की नौकरानी बनकर रह गई हूँ घर में…सब को चाय नाश्ता देती रहूँ…अब बहुत हो गया..!!! अभी और इसी वक्त इन सब से कह दूंगी कि मुझे इतनी उम्मीदें नहीं रखें! मेरी भी कुछ अपनी ज़िंदगी है..झूठा लाड़ लड़ा कर मुझे काम निकलवाने की जरूरत नहीं है। वह तैश में आकर उठी और तेजी से बाहर के कमरे की तरफ बढ़ी। तभी अचानक उसका पर फिसला और वह बगल में रखी हुई मेज से टकराते हुए धम्म से नीचे गिर पड़ी। उसका सिर पर मेज का कोना लग गया। सिर से खून का फव्वारा बह निकला! पैरों में भी चोट आ गई। ससुर जी के पास ही बैठी सासु माँ बैठकर बातें कर रही थी। वह दौड़ कर उसके पास पहुंच गई। ससुर जी भी पहुँच गए। सुमित जो अपने दफ्तर जाने की तैयारी कर रहा था, उसे भी सासु माँ ने आवाज़ देकर बुलाया! सुमित ने फटाफट थोड़ा प्राथमिक उपचार देकर मधु के सिर पर पट्टी बाँधी। फिर सुमित ने गाड़ी निकाली और सब मधु को लेकर अस्पताल की तरफ चल पड़े। पट्टी बंधी होने के बावजूद मधु के सर से हल्का-हल्का खून अभी रिस रहा था। गाड़ी में सासु माँ मधु के बगल में बैठी रही और अपने हथेली से उन्होंने मधु का सिर दबा कर पकड़ कर रखा हुआ था और लगातार उसे हौंसला भी बंधाती जा रही थी। अस्पताल पहुंचने के बाद डॉक्टर ने तुरंत मधु को देखा और यह भगवान की कृपा रही कि डॉक्टर ने कहा कि चोट ज्यादा गहरी नहीं है, ठीक हो जाएगा। शाम तक मधु घर आ गई। 

             उसके घर आने से पूर्व ही सासु माँ घर आ चुकी थी ताकि पहले से सब प्रबंध कर सकें और उसका कमरा बहुत ही सुघड़ और सुव्यवस्थित तरीके से तैयार कर रखा था। ससुर जी और सुमित के साथ वह घर पहुँची। सुमित ने उसे ले जाकर कमरे के बिस्तर पर लिटाया। तुरंत सासु माँ ने उसके लिए गरम-गरम सूप बनाया। ससुर जी खुद बाजार जाकर उसके लिए ढेर सारे फल लेकर आए। सुमित ने बड़े प्यार से बिस्तर के पास ही छोटी मेज रखकर उसकी सारी दवाएं, कुछ पत्रिकाएं, फूलों का गुलदस्ता… सब व्यवस्थित ढंग से रख दिया। 

              सब इतने स्नेह के साथ उसका ध्यान रख रहे थे कि उसकी मन ग्लानि से भर गया कि कहाँ वह सुनीता की बातों में आकर अपने इतने प्यारे परिवार के साथ ऐसा व्यवहार करने चली थी। उसे समझ में आ गया था कि उसकी अहमियत इस घर में क्या है.. वह नौकरानी नहीं, इस घर की लक्ष्मी है जिस पर सभी हुक्म नहीं चलाते बल्कि अपना अधिकार समझते हैं.. घर की खुशियों की बागडोर थमाने का विश्वास रखते हैं और ढेर सारा स्नेह रखते हैं। अब वह कभी किसी की बातों में आकर अपने स्वर्ग जैसे घर को नहीं तोड़ेगी।” ससुर जी पास ही बैठे थे। उनकी अब उम्र हो चली थी और इतनी दौड़-भाग के बाद थकान उनके चेहरे पर स्पष्ट दिखाई दे रही थी, फिर भी वह बड़े मनोयोग से प्लेट में उसके लिए सेब काट रहे थे। ढेर सारा प्यार उमड़ आया उनके ऊपर मधु के मन में. तभी सासु माँ ने कहा, “-चलो, भगवान की कृपा से अब सब कुछ संभल गया है। सब कुछ ठीक हो रहा है तो अब मन थोड़ा शांत हुआ। अब मैं थोड़ी देर में सबके लिए चाय बनाती हूँ।” 

ससुर जी बच्चे की तरह खुश हो गए, “-यह सही कहा श्रीमती जी! चाय की बड़ी तलब महसूस हो रही है।”

तभी लाड़ से मुस्कुरा कर मधु ने कहा,”- जी मम्मी जी और जो मठरियाँ बनाकर मैंने पापा जी के लिए डब्बे में रखी है, वह पापा जी को खिलाना मत भूलिएगा…” 

“-ये तो हैं ही चटोरे!”..सासु माँ ने चुहल करते हुए कहा तो सब हँस पड़े!

तभी सुनीता का फोन आ गया। मधु ने होठों को भींचते हुए फोन उठाया। उधर से सुनीता की आवाज आई, “-अरे यार!कैसी है तू? मैं तुझे फोन करने वाली थी लेकिन पैर में मोच आ गई तो दो दिनों से दर्द से हाल बेहाल है और घर में तो कोई है भी नहीं कि ध्यान रखे मेरा..तू बता क्या हाल है? तेरे ससुराल वालों की अकल कुछ ठिकाने लगी या नहीं??” 

क्रोध और वितृष्णा से भर गई मधु!पर उसने अपने स्वर को संयत रखने का प्रयत्न करते हुए कहा, “-सब ठीक है सुनीता और बहुत खुश हूँ मैं! मुझे भी चोट लग गई थी लेकिन मैं तेरी तरह अकेली तो हूँ नहीं.. मेरे साथ मेरा पूरा परिवार है जो मेरा बहुत ध्यान रख रहा है और अब मैंने भी सोच लिया है कि नकारात्मकता से खुद को जरा दूर ही रखूंगी.. चलो मैं फोन रखती हूँ… मेरी प्यारी सी माँ मेरे लिए चाय लेकर आती ही होंगी… वैसे कुछ जरूरत हो तो बताना, मेरे परिवार में सब इतने अच्छे हैं और तुम मेरी सहेली हो तो तुम्हारी मदद से भी कोई नहीं हिचकिचाएगा। टेक केयर! बाय!!!” 

            एक बहुत प्यारा सा परिवार आज फिर एक साथ मुस्कुरा रहा था।

निभा राजीव “निर्वी”

सिंदरी, धनबाद, झारखंड

स्वरचित और मौलिक रचना

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