नीले स्वच्छ आसमान में ढलते सूरज की पीले सेन्दुरी किरणों का सम्मोहन। ऊंचे-ऊंचे हरे घने वृक्ष ,घनी झाड़ियां, घोंसले में लौटते चिड़ियों का तीव्र शोर अपनी ओर खींच रहा था। इस दिलकश वातावरण के खिंचाव में हरीश यूं ही इस ओर बढ़ता चला गया।
जब व्याकुल मन कहीं नहीं बंधे तो उसे प्रकृति के गोद में ही मिलती है। वह थक-हारकर वहीं हरी-हरी घास पर लेट गया !लेटे-लेटे कुछ दिन पहले की घटना याद आ गई। वह किराये के मकान में पत्नी पलक के साथ रहता था। दोनों अपने घर माता-पिता से सैकडों मील दूर यहां नौकरी कर रहे थे।
प्राइवेट भाग-दौड़ वाली नौकरी… पैसे ठीक ठाक मिल जाते थे …इसलिये बास के दो बातें भी सुन लेता था। । उसमें से पैसा घर भी भेजना होता था। पलक भी एक प्राइवेट फर्म में पार्ट टाइम जाॅब कर कुछ कमा लेती थी। पलक से उसने घरवालों के मर्जी के खिलाफ प्रेमविवाह किया था। तीन वर्ष हो गये… थोड़ा पैर जमे तब बच्चे के लिये सोचा जाये।
इधर पता नहीं हरीश को पलक की प्रत्येक बात में कुछ न कुछ कमी दिखता… फलतः टोका- टोकी, “ऐसा क्यों किया, वैसा क्यों किया”!पलक इसे नजर अंदाज कर देती लेकिन धीरे-धीरे उसका मुँह भी खुलने लगा और कुत्ता बिल्ली के जैसा दोनों आपस में लड़ने लगे। उसदिन भी वही हुआ और बात बिगड़ गई।
“यह क्या खाना बनाया है “! हरीश ने भोजन की थाली खिसका दी।
“मतलब … इस खाने में क्या बुराई है… दिनभर घर बाहर का काम देखूं और उपर से तुम्हारे नखरे ” पलक चीख उठी।
” मुझपर चिल्लाओ मत, फूहड़ औरत …दिन भर का थका आदमी घर आता है… सुकून के लिये, दो मीठे बोल और स्वादिष्ट भोजन के लिये… और यहाँ तुमसे कुछ भी नहीं होता… ले जाओ मुझे नहीं खाना “भरी थाली ठेलकर हरीश कमरे में जाकर मुँह फुलाकर सो गया। भूख जोर से लगी थी उम्मीद थी पलक आकर माफी मांगेगी और वह उठकर खा लेगा।
लेकिन हुआ उल्टा… पलक भी अपनी कड़वाहट शब्दों में उगलने लगी और खाना ढंककर नीचे जमीन पर रोते-रोते सो गई इस उम्मीद में कि हरीश उसे मना लेगा और दोनों एकसाथ खा लेंगे क्योंकि उसे भी जोरों की भूख लगी थी ।दोनों भूखे ही सो गये।
चिड़ियों की चहचहाहट से पलक की नींद खुली। हरीश घर में नहीं था।
घबराकर पलक उसे चारों ओर ढूंढने लगी उसका कोई पता नहीं चला।
एक हफ्ते अकेले पलक ने कैसे दिन बिताये वही जानती है, ” शादी के पहले कितनी मीठी-मीठी बातें करता था ,मेरे लिए अपने घरवालों से पंगा लिया और अब उसकी नजर में मुझसे बुरा कोई नहीं, लोग उसके बारे मे पूछते हैं मैं क्या बताऊं मुझे क्यों छोड़कर चला गया। “
पलक भी घर छोड़ कहीं चली जायेगी। उसका गोरा मुखड़ा मुर्झा गया था ।आंखें धंस गई थी जैसे बीमार हो… उसे अपनेआप से नफरत होने लगी… कहीं इस अलगाव, लड़ाई झगड़े का कारण वह खुद तो नहीं है। वह भी हरीश के प्रति असंवेदनशील हो गई थी। जबकि अब वह उसका पति था,
“हे ईश्वर मुझे हरीश वापस कर दो, मैं उसके बिना नहीं रह सकती। उसके सुख-दुख की भागीदार हूं मैं “पलक रो पडी़।
प्रकृति के गोद में हरीश का स्वतः से साक्षात्कार हुआ, “कितना निर्दयी हूं मैं अपनी पत्नी को छोटी छोटी बातों पर झिड़कता रहा। इस संसार में ऐसे कितने खुशनसीब हैं जिन्हें अपना प्यार पत्नी के रुप में मिलता है और मैं अपना पति गिरी दिखाने के दुराग्रह में उसे इस अनजान शहर में अकेला छोड़ आया। धिक्कार है मुझपर “जैसे किसी ने आंखें खोल दी
हो… पलक की याद आते ही सारे गिले शिकवे भूल हरीश
घर की ओर भागा।
घंटी बजी पलक ने दरवाजा खोला… सामने हरीश बांहे फैलाये अपनी गलती पर माफी मांगते हुए गिड़गिडा़ उठा, “कुछ भी न कहो, मुझे माफ कर दो, मेरे आंखों पर पता नहीं कौन सा परदा पडा़ था, मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकता, दिल पर कोई जोर नहीं चलता है। “
…और पलक… उसकी सच्ची प्रार्थना ईश्वर ने सुन ली।
सर्वाधिकार सुरक्षित मौलिक रचना –
डाॅ उर्मिला सिन्हा ©®
#दिल पर कोई जोर नहीं चलता है