घर की मालकिन मैं हूं – प्रतिमा श्रीवास्तव : Moral Stories in Hindi

बहू तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई कि,” तुम घर के निर्णय में अपनी राय दे रही हो। मैं जब तक जिंदा हूं, तुम मालकिन बनने के सपने देखना भी छोड़ दो। सास बनने की कोशिश नहीं करो तुम।अपने काम से काम का ही मतलब रखा करो”

शोभा जी ने रत्ना को बहुत ही भला बुरा कहा वजह सिर्फ इतनी थी कि सभी बैठ कर चर्चा कर रहे थे कि छोटे देवर की शादी में मेहमानों को क्या- क्या दिया जाएगा। बहू रत्ना ने भी अपने कुछ बिचार रखे ही थे कि शोभा जी तमतमा गई।

उनके हिसाब से बहू का काम है घर के काम करना ना की अपनी सलाह देना। यहां तक की कितनी बातें तो रत्ना को पता ही नहीं होती थी। गुप्त तरीके से पूरा परिवार बातचीत कर लेता और अगर अचानक से रत्ना कमरे में आ जाती तो सब मौन हो जाते।

परिवार का हिस्सा तो कभी समझा ही नहीं था। बहुत तकलीफ़ होती रत्ना को कि शादी के पांच साल हो गए फिर भी सभी ने अपनाया नहीं था। परिवार तो अपना था पर परिवार के सदस्य हमेशा पराए ही लगे थे यहां तक की पति राजेश भी सभी की जुबानी बोला करता था।

ना जाने किस गीता पर हांथ रखकर सभी ने सौगंध खाई थी कि अपने गैंग में किसी को भी शामिल नहीं होने देंगे।खैर ये तो मजाक की बात थी पर सही ये था कि उनकी बातें उनतक ही रहतीं थीं।

बहू से लोग उम्मीद करते हैं कि शादी के दूसरे दिन ही मायका भूलकर ससुराल की हो जाए, लेकिन ससुराल वाले उसे दिल से अपनाते नहीं हैं। ‌भले ही बहू कितनी बार अपने आपको साबित कर दे।

देवर रंजीत की शादी के लिए लड़की देखने भी ननद रूपा और सास – ससुर गए थे। रत्ना को तो भूलकर भी नहीं पूछा गया था।

रूपा आज आने वाली थी क्योंकि शादी को एक महीना ही बचा था और बहुत सारी खरीददारी जो करनी थी। रत्ना की मम्मी की तबीयत खराब थी तो रत्ना ने शोभा जी इजाजत मांगी की वो दिन में मम्मी से मिल कर आ जाए? शोभा जी भड़क उठीं कि,” बहू कब तक मायके की फ़िक्र करती रहोगी, यहां तुम्हारी ननद आने वाली है। उसकी आवाभगत ना करनी पड़े तो बहाना करके घर जाना चाहती हो।”

रत्ना के साथ ये सब पहली बार नहीं हुआ था। उसकी आदत पड़ गई थी कि जब भी वो अपने घर जाने की बात मम्मी जी के सामने रखेगी, उसे भला – बुरा ही सुनना पड़ेगा और अपनी बेटी को आए दिन किसी ना किसी बहाने से घर बुलाया करतीं थीं।

रुपा आते ही बिस्तर पर पसर गई और खाने की बड़ी सी लिस्ट तैयार थी  सुबह से शाम तक की। शोभा जी तो बस बेटी के चारों तरफ घूमा करतीं।

दोनों ने खाना खाया और आराम करके निकलने लगी खरीददारी के लिए तो रत्ना ने कहा कि,” मम्मी जी जिधर आप बाजार जाएंगी उधर मम्मी का भी घर है, मुझे थोड़ी देर के लिए छोड़ दीजिएगा और जब आपकी खरीददारी हो जाए तो मैं भी साथ में आ जाऊंगी।”

बहू!” तुम्हें सुबह ही समझाया था फिर भी एक ही बात को बार-बार क्यों दोहराती रहती हो? तुम बाद में चली जाना। अभी टोका – टाकी नहीं करो…शुभ काम के लिए जा रहे हैं।”

रत्ना का मन बेचैन था क्योंकि मम्मी घर में अकेली थी। उन्होंने डॉक्टर को दिखाया की नहीं?पता नहीं कुछ खाईं भी की नहीं?”

रमेश जी जो रत्ना के ससुर जी थे वो भी रत्ना के साथ हो रहे व्यवहार से खुश नहीं थे लेकिन शोभा जी की घर में इतनी चलती थी कि कोई अपनी राय देने के बारे में सोच भी नहीं सकता था।घर की मालकिन जो थीं, उनके बिना घर का पत्ता भी नहीं हिलता था।

सबके चले जाने के बाद रमेश जी ने रत्ना को बुलाया…” रत्ना बेटी तुम जल्दी से तैयार हो जाओ और समधन जी से मिल कर आ जाओ और हां बेटा मां – बेटी के आने से पहले आ जाना।”

धन्यवाद आपका बाबूजी,” मैं जल्दी से घर के काम समेट कर जाती हूं, वरना आकर घर फैला रहेगा तो मां जी नाराज हो जाएंगी।” कहने को मायका पास में ही था लेकिन जल्दी ना तो रुकने मिलता था रत्ना को ना ज्यादा जाने की इजाजत थी।

रत्ना ने सबकुछ निपटाया तब तक रमेश जी ने गाड़ी बुला दिया और बोला कि इसको ही रोक कर रखना और बेटा समय पर आ जाना वरना हम दोनों ही फंस जाएंगे और मैं भविष्य में तुम्हारी मदद नहीं कर पाऊंगा।

रत्ना घर पहुंची और मम्मी का हालचाल लिया और फटाफट शाम का खाना बनाई। “दवाइयां सब है ना मम्मी? आप समय-समय पर चेकअप करवाती रहा करिए। अभी आरम करिए। मैं गीत ( जो छोटी बहन थी) उसको बोलतीं हूं कि आपके  साथ आकर दो – चार दिन रहे ” रत्ना को अच्छा नहीं लग रहा था कि मम्मी की तबीयत ठीक नहीं है और वो उनके लिए कुछ भी नहीं कर पा रही है।

बेटा!” तुम परेशान नहीं हो मैं ठीक हूं और तुम समय पर घर पहुंच जाना वरना समधन जी बेवजह ही तुमसे नाराज़ हो जाएंगी। मेरी फ़िक्र नहीं करो ” ।

दुनिया की भी रीति अनोखी है कि जिस मां – बाप ने जन्म लिया उनसे मिलने के लिए भी इजाजत की जरूरत पड़ने लगी है और उनके दुख – तकलीफ़ में मैं एक बेटी होकर भी कुछ नहीं कर पा रहीं हूं।

समय से पहले घर पहुंच कर, कपड़े बदलने के बाद रसोई घर में लग गई थी रत्ना। पहले तो चाय – बिस्कुट दिया बाबूजी को और खुद भी बैठ कर शांति से चाय पी और सोचने लगी कि बाबूजी की वजह से मम्मी को मिल पाई।अब थोड़ा संतोष हुआ जाकर। चलो ठीक ही है गीत आ जाएगी रात तक।

शोभा जी और रूपा भी खरीददारी करके वापस आ गए थे और सीधे मां जी के कमरे में सारा सामान रख दिया था।

बाबू जी को कहते सुना था कि रत्ना के लिए भी एक – दो अच्छी साड़ी ले आती? मां जी भड़क गई थीं कि अभी तो राखी पर मायके से साड़ी मिली थी पहन लेगी। आपसे तो फालतू खर्चे करवा लो बस।

रत्ना के दिल में बहुत तकलीफ़ हुई थी कि वो भी तो बड़ी भाभी है और अपने देवर की शादी में पहनने के लिए एक भी नई साड़ी नहीं लिया मां जी ने। पतिदेव से अगर कुछ कहती तो उल्टा चार बात और सुना देंगे कि तुम्हारी शादी है क्या जो इतना सजना – संवरना है और इतने खर्चे हैं सिर पर काम चला लो जो भी है तुम्हारे पास।सब नई दुल्हन को देखेंगे तुम को नहीं।

वक्त अपनी रफ़्तार से बढ़ रहा था शादी का दिन भी आ गया था। रत्ना को सांस लेने की फुर्सत नहीं थी क्योंकि बड़ी बहू जो थी और देवर के शादी की पूरी जिम्मेदारी उसकी ही थी। सही मायने में एक मुफ्त की नौकरानी थी जिस पर बहू का टैग लगा था।

बारात जाने को तैयार थी और रत्ना सभी की तैयारी में इधर-उधर भाग रही थी। किसी को फ़िक्र नहीं थी कि वो भी तो बारात जाएगी, उसके भी तो कुछ अरमान होंगे देवर की शादी के। हर कोई अपनी छोटी-सी चीज के लिए भी रत्ना को आवाज लगाता और रत्ना चकरघिन्नी की तरह भाग रही थी।

तभी रंजीत ने कहा,” भाभी सारा काम छोड़कर पहले तैयार हो जाइए बारात निकलने का वक्त हो रहा है।”

हां ” भइया बस मां जी की साड़ी ठीक कर दूं और तैयार हो जाती हूं।”

दुल्हे के साथ गाड़ी में ननद जी बैठीं थीं और सासू मां। रत्ना और राजेश अलग कार में बैठ कर जनवासा के लिए रवाना हो गए थे।

बारात में सभी  नाच रहे थे तो दूर के चचेरे देवर ने रत्ना को भी खींच लिया डांस के लिए, तभी शोभा जी से उसकी निगाह मिली तो वो उसे घूर रही थी। रत्ना ने चुपचाप वहां से निकलना ही बेहतर समझा।

शादी व्याह सम्पन्न हो गया था। छोटी बहू गुंजन का खूब अच्छी तरह से स्वागत हुआ था। गुंजन थोड़ी चंचल और बातूनी सी थी। उसने घर में घूसते ही सबकुछ समझ लिया था कि जेठानी जी बहुत ही दबी – संभली सी रहती हैं।

कुछ दिन बाद तो गुंजन ने घर के माहौल को भांप लिया था कि सासू मां की ही चलती है और उनके आगे कोई भी मुंह नहीं खोल सकता है और बिचारी जेठानी जी के साथ तो कुछ ज्यादा ही गलत हो रहा है।

गुंजन शोभा जी की गलत बातों का विरोध करने लगी थी और उन्हें टोक भी देती थी।एक बार उसे मायके जाना था और ननद आने वाली थी तो शोभा जी ने गुंजन को मना किया जाने से। गुंजन ने पलट कर जबाब दिया कि,” मम्मी जी दीदी अपने मायके कभी भी आती – जातीं हैं तो हम लोग क्यों नहीं जाएंगे।वो आपसे मिलने आ रहीं तो आप तो हैं घर पर और अच्छा भी है कि मां – बेटी एक साथ समय बिताइए।”

शोभा जी को बिल्कुल उम्मीद नहीं थी कि अब बाजी पलट रही थी ।रत्ना ने तो कभी कुछ कहा ही नहीं। रत्ना ने देखा कि देवरानी पर रोक – टोक करने में तो मां जी सफल ही नहीं हो पा रहीं ना ही उसके उठने – बैठने, पहनने – ओढने पर पाबंदी है तो अब वो भी विरोध करने लगी थी। सही तो है इतना मत दबाओ किसी को की वो पलट कर जबाब देना शुरू कर दे।

अब घर की असली मालकिन सासू मां का तख्ता हिलने लगा था और बड़ी बहू की कद्र बढ़ने लगी थी।

कहते हैं ना कभी – कभी वक्त भी हमारी तरफ से सबक सिखाता है और अब वक्त पलटने लगा था। उम्र भी बढ़ने लगी थी शोभा जी की तो बहूओं पर पूरी तरह से निर्भर होना

शुरू हो गया था।

रूपा का भी आना जाना थोड़ा कम हुआ था। रत्ना अब मायके जा कर मम्मी के साथ भी कभी कभी रहने लगी थी। जेठानी – देवरानी एक दूसरे का हांथ भी बंटाती काम में और एक दूसरे की अनुपस्थिति में एक दूसरे का काम भी संभाल लेती।

रत्ना को अब घर अपना लगने लगा था क्योंकि कोई तो ऐसा आया था जो उसका साथ भी निभाता और उसके लिए खड़ा भी होता था।

शोभा जी चाह कर भी कुछ नहीं कर पातीं थी बस कुढ़ती रहतीं थीं अंदर ही अंदर।अब घर की मालकिन होने का टैग भी जाता रहा। सभी घर में समान रूप से राय बात करते और सभी के बात की अहमियत थी।

गुंजन के आने से अच्छा बदलाव आया था। रत्ना बहुत खुश रहने लगी थी। सबकुछ सही से चल रहा था।अब किसी एक के हांथ में सत्ता नहीं थी बल्कि एक खुशहाल परिवार का रूप निखर कर आया था।

                        प्रतिमा श्रीवास्तव                        नोएडा यूपी

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