इंदु एक होशियार और मेहनती चार्टर्ड अकाउंटेंट थी। शादी के बाद वह अपने करियर और घर के बीच संतुलन बनाने में संघर्ष कर रही थी। सुबह ऑफिस के लिए जल्दी उठना, फिर घर के सारे काम निपटाना और समय पर ऑफिस पहुंचना — यह सब उसके लिए बेहद थकाऊ हो गया था।उसे लगने लगा था की वह अपने करियर बच्चे ऑफिस सब नहीं संभाल पायेगी ।
उसकी यह जद्दोजहद उसकी सास, सुधा देवी, रोज़ देखती थीं। एक दिन उन्होंने इंदु से कहा,
“बिटिया, तू अपने सपनों को पीछे क्यों छोड़ रही है? घर का काम बच्चों को तो मैं संभाल लूंगी, तू बस अपना ध्यान अपने काम पर रख।”
इंदु चौंकी, लेकिन आंखों में आंसू भी आ गए — यह समर्थन जिसकी उसे सबसे ज़्यादा ज़रूरत थी, उसी घर से मिल रहा था जहाँ अक्सर बहुओं से उम्मीदें ही की जाती हैं।
सुधा देवी का दिल भी भावनाओं से भरा था। वे जीवन में खुद कुछ नहीं कर पायी थी ।समय और हालात ने उन्हें हमेशा घर की चारदीवारी में बाँध कर रखा। लेकिन अब उन्होंने ठान लिया था कि इंदु को वो मुकाम दिलाना है, जो वो खुद न पा सकीं।
इंदु ने फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। सास के सहयोग, सराहना और प्रोत्साहन ने उसमें नया आत्मविश्वास भर दिया। कुछ वर्षों में उसकी मेहनत रंग लाई — आज वह एक नामी कंपनी की मुख्य वित्तीय अधिकारी (CFO) है।
कभी जो रसोई और दफ्तर के बीच उलझी रहती थी, आज वह बड़े-बड़े बोर्ड मीटिंग्स की अगुवाई करती है।
जब लोग इंदु की सफलता का राज पूछते हैं, तो वह मुस्कुराकर कहती है —
“अगर मेरी सास माँ जैसा साथ न देतीं, तो मैं आज यहाँ न होती। उन्होंने सिर्फ मुझे नहीं, मेरे सपनों को भी अपनाया था ।
माधवी मूंदरा
मुंबई