मैंने अपने माता-पिता के घर दूसरी बेटी के रूप में जन्म लिया..उनके लिए तो मैं उनकी दूसरी संतान थी पर बाकी घर वालों और रिश्तेदारों के लिए मैं दूसरी बेटी थी।मेरे जन्म पर माता-पिता के अलावा कोई भी खुश नहीं था..ना ही घर वाले और ना ही रिश्तेदार बल्कि आस पड़ोस वालों का भी मन बुझ गया था क्योंकि सब जानते थे कि मेरी दादी मेरा जन्म होने से पहले ही कितनी उत्साहित थी।उन्हें तो पूरा विश्वास था कि इस बार वह अपने पोते को ही गोद में खिलाएंगी।
ऐसा नहीं था कि उनके पास पोता नहीं था।मेरे बड़े पापा (मेरे ताया जी) के दो बच्चे थे एक बेटा और एक बेटी और मेरी एक बड़ी बहन थी।अपने छोटे बेटे का परिवार पूरा होने की कामना में मेरी दादी बहुत उत्साहित थी पर शायद..मैंने जन्म लेकर उनके उत्साह पर पानी फेर दिया था।मैं नहीं जानती कि दो बेटियों से परिवार क्यों नहीं पूरा होता।क्या एक बेटा और बेटी होने से ही फैमिली को कंप्लीट माना जाता है.. इस प्रश्न का उत्तर हमेशा मेरे मन को कचोटता रहता।
खैर, मुझे शुरू से ही माता-पिता का तो भरपूर प्यार मिला क्योंकि उन्होंने कभी बेटे या बेटी की चाह नहीं रखी थी।उनके लिए तो उनकी संतान का स्वस्थ होना ही सबसे बड़ी बात थी।अपने पिता के कंधों पर झूलती मैं जब धीरे-धीरे दादी की तरफ मुस्कुरा कर देखती तो उनकी तरफ से कभी भी पुचकार या प्यार नहीं मिलता।उस समय शायद वह छोटी सी बच्ची भी समझ गई थी कि उसे प्यार कहां से मिलता था इसलिए हमेशा मां-बाप के साथ ही चिपकी रहती।दादी के पास जाने का प्रयास उसने अब धीरे-धीरे छोड़ दिया था शायद वह जान गई थी कि वहां से उसे तिरस्कार के अलावा कुछ नहीं मिलेगा।
समय के साथ मैं बड़ी होती गई.. बड़े पापा का परिवार आता तो दादी कटाक्ष करने से बाज़ नहीं आती और मेरी बड़ी बहन को बोलती अगर यह छुटकी ना होती ना तो तेरा भी आज एक भाई होता।उन्हीं सब बातों से मेरी बहन के मन में मेरे प्रति ईर्ष्या के अंकुर फूटने लगे थे जिन्हें मेरी दादी ने ही बोया था।बड़े पापा की बेटी भी कहती,” हम तो भाई बहन हैं और यह दोनों बहने”। उसकी यह बातें मेरी बहन की ईर्ष्या की आग को बढ़ाने में घी का काम करती।
मुझे लगता कि मेरी अपनी बहन भी मुझे पसंद नहीं करती जैसे उसने भी मुझे जैसे एक दूरी बना ली थी ।दादी की वह लाडली थी..मैं समझ नहीं पाती कि अगर वह बेटी होकर दादी का प्यार पा सकती है तो मैं क्यों नहीं.. क्या दूसरे नंबर की बेटी बन कर आना इतना बड़ा गुनाह है।मां सब समझती थी..पापा भी दादी को बहुत बार समझाते पर जानते थे कि उन्हें समझाना किसी के वश में नहीं।
दादी उन्हें भी कभी ना कभी याद दिला देती,” वंश लड़कों से ही चलता है”।
पापा कहते ,”कौन से ज़माने की बात कर रही हो अम्मा.. अब लड़के लड़की में कोई भेदभाव नहीं रहा। लड़कियां भी बहुत तरक्की कर रही हैं।ज़माना बदल गया है”।
“ज़माने की बात छोड़..ज़माना कितना भी बदल जाए पर वंश तो हमेशा लड़कों से ही चलता है।लड़कियों का क्या है वह तो दूसरे घरों में चली जाती हैं पर मां-बाप का सर गर्व से ऊंचा उनका बेटा ही करता है”।दादी भी अपने तर्क देने से पीछे नहीं हटती।उनकी मेरे प्रति अवहेलना देख मेरे माता-पिता मुझ पर अपना और प्यार लुटाते।
समय बीत रहा था।हम दोनों बहनें धीरे-धीरे बड़ी हो रही थी।दीदी अब कॉलेज जाने लगी थी।भगवान ने उसे रूप रंग भी खूब दिया था। थोड़ा सा भी बनती संवरती तो लोगों की आंखें खुली रह जाती और वहीं मेरा रंग दबा था और मैं दिखने में भी कुछ खास नहीं थी।दीदी को अपने रूप रंग पर बहुत गुमान था।आते जाते वह मुझ पर अपने सौंदर्य का रोब जमाने में पीछे नहीं हटती।कहीं ना कहीं शायद वह मुझ में अपने ईर्ष्या के भाव जगाना चाहती थी पर मैं इन सब बातों से दूर अपनी पढ़ाई में मगन रहती। मैं सोचती मैं किसी से क्या ईर्ष्या करूं।
दादी का तिरस्कार और कटाक्ष अभी भी जारी थे..अक्सर कहती,” मेरे बेटे का कारोबार कौन संभालेगा.. इतनी जायदाद है कौन देख रेख करेगा इनकी”।
मां कहती,” अम्मा, जिनके बेटे नहीं होते क्या उनकी बेटियां उनका काम नहीं संभाल सकती”।
“तू अपनी सोच अपने पास रखा कर” दादी की ऊंची आवाज़ के आगे मां उनके साथ बहस करना व्यर्थ समझती और चुप रहती।
मैं इन बातों से दूर अपनी पढ़ाई में ध्यान देती रही। नतीजा यह हुआ कि दसवीं की कक्षा में मैंने पूरे स्कूल में प्रथम स्थान प्राप्त किया।माता-पिता की आंखों में अपने लिए प्रशंसा और गर्व के भाव देखकर मैंने अपनी मेहनत को और बढ़ा दिया और फिर 12वीं में मैंने पूरे जिले में प्रथम स्थान हासिल किया।अखबारों में छपी मेरी फोटो देखकर तो दादी भी चुप्पी लगा गई थी। माता-पिता सबको गर्व से मेरी उपलब्धि के बारे में बताते।
बड़े पापा भी अपने बेटे को मेरी मिसाल देते नज़र आते हैं क्योंकि उनका बेटा मेरे से एक साल ही बड़ा था और 12वीं की परीक्षा में कुछ खास नहीं कर पाया था।मेरी मिसाल देने पर दादी तब कुछ नहीं बोल पाती क्योंकि उन्हें भी पता था कि जो बड़े पापा कह रहे हैं वह सब सच है पर इन बातों से मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता था मैं तो जैसे घर में रहती आ रही थी वैसे ही अब भी रह रही थी।
इसी बीच दीदी के लिए एक बहुत ही अच्छे घर से रिश्ता आया था।लड़के ने उसे किसी विवाह समारोह में देखा और उसके रूप पर रीझ गया था।दीदी का रिश्ता पक्का होने पर वह अपने ही घमंड में चूर अपने सुंदर भविष्य की कल्पना में गोते लगाती रहती।दो बहनों में जो आत्मीयता होती है वह मैंने कभी नहीं जानी। दादी उसके ससुराल वालों की दिन भर प्रशंसा करती और कहती,”अच्छा रूप रंग हो तो घर बैठे ही रिश्तें आ जाते हैं”। मैं समझ नहीं पाती कि वह दीदी की प्रशंसा में यह बातें बोलती या मुझ पर कटाक्ष करने को।
कुछ महीनो में दीदी अपने ससुराल चली गई और मैंने दिल्ली यूनिवर्सिटी में एडमिशन ले लिया।मम्मी पापा का फोन आता रहता..घर जाती तो वह अपने अकेलेपन का उलाहना देते।दादी से भी औपचारिकता वश बात होती। मैं समझ नहीं पाई कि इतने सालों में दादी के स्वभाव में परिवर्तन क्यों नहीं आया।हां..मेरे जीजा जी और उनके घर वाले भी मुझसे बहुत प्यार से बात करते।
समय की गति चलती रही.. मैंने ग्रेजुएशन पूरा करने के बाद यूपीएससी के लिए फॉर्म भर दिया।इतनी कड़ी परीक्षा के लिए पापा ने मुझे एक दो बार अपने निर्णय पर दोबारा सोचने के लिए कहा पर मैं अडिग थी।दो बार के प्रयास में विफल होने पर भी मैंने हिम्मत नहीं हारी और तीसरी बार के प्रयास में सफल हो गई। अपनी अथक मेहनत और माता-पिता के विश्वास की जीत पर पहली बार मुझे अपने ऊपर गर्व महसूस हुआ था।घर पहुंची तो बधाईयों का तांता लग चुका था।
हर तरफ से आशीर्वाद और बधाईयों के लिए फोन आ रहे थे।आस पड़ोस और रिश्तेदार घर में जमा हो गए थे।हर कोई आगे बढ़कर मुझसे मिलना चाहता था।सब की ज़ुबान पर एक ही बात थी,”आपकी बेटी ने आपका सर गर्व से ऊंचा कर दिया है।सच कहते हैं कि बेटियां भी बेटों से कम नहीं होती और आपकी बेटी ने यह बात सच कर दिखाई है” माता-पिता के दमकते चेहरों की रोशनी से मेरा चेहरा भी चमक रहा था।
आस पड़ोस की औरतों ने दादी को भी बधाई देते हुए कहा,” आपकी पोती तो छा गई अम्मा जी.. अब तो मिठाईयां बांटो..अफसर बिटिया की दादी होने पर कैसा लग रहा है”।
उनके पूछते ही दादी ने पहली बार मेरी तरफ प्यार से देखकर मेरे सिर पर हाथ रखकर कहा,” जीती रह मेरी बच्ची..तूने आज सबके साथ साथ मुझे भी गलत साबित कर दिया है।आज तूने माता-पिता का नाम रोशन कर कर दिया है”।
दादी का आशीर्वाद पाते ही मेरी आंखों में आंसू बह निकले शायद.. बरसों का जमा सैलाब अब आंखों के द्वारा निकल रहा था।ऐसा लग रहा था मन बहुत हल्का हो गया हो।कुछ ही देर में दीदी और उसके ससुराल वाले बधाई देने आ गए थे।अपनी जीत की चमक बहन के चेहरे पर देख बहुत सुकून सा लग रहा था।आगे बढ़कर जब दीदी ने मुझे गले लगाया और प्यार से बोली,” वाह छुटकी!! तू तो छा गई “।
उस वक्त मुझे पहली बार अपने अस्तित्व की अहमियत महसूस हो रही थी क्योंकि हर तरफ मेरे लिए प्यार था।आज किसी के लिए भी मैं घर की दूसरी बेटी नहीं थी..आज मैं सिर्फ उनके लिए बेटी थी.. वो बेटी जिसने उन्हें गर्वित होने का एक मौका दे दिया था।मुझे सुकून था कि एक मेरे एक निर्णय ने ही मुझे वह स्थान दिला दिया था जिसकी मैं बरसों से कामना करती आई थी।ईर्ष्या की भावना को मैंने अपने संयम और अथक परिश्रम से प्यार में तब्दील कर दिया था।
#स्वरचितएवंमौलिक
#अप्रकाशित
शीर्षक – दूसरी बेटी
गीतू महाजन,
नई दिल्ली।