जीवन विविधताओं में ढला हुआ एक ताना बाना है जिसमें नफ़रत और प्यार जैसी भावनाएं कदम कदम पर आपके इम्तहान लेती रहतीं हैं….
अक्सर बेदखल जैसे शब्द को सुनकर माता पिता द्वारा अपनी संतान को बेदखल करने की तस्वीर ही ज़हन में उभरती है……
लेकिन यह कहानी ठीक इसके विपरीत है..
जी हाँ,ये कहानी है एक सन्तान द्वारा अपने पिता को बेदखल करने की….
उफ़!!!! कितनी अजीब बात है लेकिन सच है…..
शुरुआत होती है मध्यमवर्गीय परिवार की बेटी सुधा के विवाह से जो अपने से कहीं ज्यादा उच्च घराने के बेटे के साथ हुआ।
और उसी दिन से शुरू हुआ सुधा के जीवन में क़दम क़दम पर कसौटियों का खेल…
सुधा ने जिस दिन ससुराल में कदम रखा उसी दिन वो ये जान गई कि पिता समान ससुरजी के अतिरिक्त वो किसी की भी पसन्द नहीं।उनके दबाव में ही उसे इस घर की बहू बनाया गया है।
पति राकेश सब के सामने तो कुछ नहीं कहते लेकिन अकेले में यह जता देते कि वह इतने बड़े घर की बहू बनने योग्य कतई नहीं है।
ससुरजी जब सुधा की यह दशा देखते तो बहुत दुःखी होते ।
लाख समझाइश देने के बाद भी बेटे में कोई खास फर्क़ नहीं आया।
शादी के तीन साल बाद सुधा ने एक प्यारी सी बेटी को जन्म दिया और दादाजी ने बड़े ही प्यार से उसे नाम दिया सलोनी।
माँ के संस्कारों और दादाजी के स्नेह की छाया में पलती सलोनी अब दस वर्ष की हो चली थी।
अब वह अपनी मां की स्थिति को अच्छी तरह समझने लगी थी।अपने प्यार से वो माँ की तकलीफ कम करने की कोशिश करती और इसी तरह वक़्त बीतता चला गया।
दादाजी के स्नेह और मां के संस्कारों की छांव में सलोनी बड़ी होने लगी।
अब सलोनी अपनी उच्च शिक्षा पूर्ण कर एक कंपनी में उच्च पद पर नौकरी पा चुकी थी।
लेकिन इस नौकरी के लिए अपने शहर से बाहर अन्यत्र जाना आवश्यक था।
पिता और दादी ने हमेशा की तरह सलोनी को बाहर जाने से इंकार कर दिया।
वे आज भी अपनी मानसिकता को बदल नहीं पाए थे।
लेकिन हमेशा ही की तरह सलोनी एक बार फिर अपने दादाजी की मदद से ये लड़ाई जीत गई।
और यह तय हुआ कि सलोनी अपनी माँ के साथ दूसरे शहर में जाकर यह नौकरी करेगी।
बरसों बाद ही सही सलोनी के कारण अब सुधा के जीवन में घुटन का अहसास ख़त्म हो रहा था…
कुछ समय तक तो सब कुछ ठीक चलता रहा लेकिन कुछ दिनों से सलोनी यह महसूस कर रही थी कि माँ की तबियत ठीक नहीं लग रही है।
सलोनी ने डॉक्टर के पास ले जाकर माँ के कुछ टेस्ट करवाए और घर पर भी सूचना दी।
दादी ने बुढ़ापे की दुहाई दी और पिता से सलोनी को आने की कोई उम्मीद थी ही नहीं।
लेकिन दादाजी ने सदा की तरह सलोनी को सहयोग दिया और वे उसके पास आ गए।
कुछ दिन के उपचार के बाद ही यह साफ हो गया कि अब मां के पास अधिक समय नहीं।सब कुछ इतने कम समय में हुआ कि कुछ सोचने समझने का वक़्त ही नहीं मिला।
अल्प बीमारी के बाद ही माँ सलोनी की छोड़ कर जा चुकी थी।
पिता को ख़बर कर सलोनी अपनी मां के अंतिम संस्कार की तैयारी में जुट गई।
माँ को सोलह श्रृंगार कर सलोनी ने अंतिम यात्रा के लिए तैयार किया।
मन में उहापोह थी कि पिता आएंगे या नहीं लेकिन सलोनी के मन में कुछ और ही चल रहा था।
सब कुछ विधि विधान से कर अब वो वक़्त आ गया था कि माँ का अंतिम संस्कार कर दिया जाए।
कुछ दोस्त और आस पास के लोग सलोनी के इर्दगिर्द खड़े उसे ढांढस बंधा रहे थे।
सलोनी ने अभी अर्थी की तरफ हाथ बढ़ाया ही था कि अचानक पिता सामने आते दिखाई दिए।
सलोनी की आँखों में उन्हें देखते ही गुस्से का ज्वार उमड़ पड़ा।
पिता के बढ़ते हाथों को पकड़ सलोनी पूरी ताकत से बोल उठी—-नहीं !!! मैंने अपनी मां को उम्र भर घुटन भरी जिंदगी जीते देखा है…
पति होने के बावजूद आपने कभी उन्हें पत्नी होने का सम्मान नहीं दिया…
धिक्कार है आप पर….
मेरी माँ के अंतिम संस्कार कर आपका कोई हक नहीं।
बेटी होने के नाते मैं आपको इस अधिकार से बेदखल करती हूं।
सभी अवाक़ थे, और सलोनी अपने दादाजी का हाथ थामे चल पड़ी अपनी माँ का अंतिम संस्कार करने।