ढलती सांझ – नीलम शर्मा : Moral Stories in Hindi

सुबह का समय था। रसोई में रिया टिफिन पैक कर रही थी। रवि ऑफिस जाने की जल्दी में तैयार हो रहा था। उसने ऊँची आवाज़ में कहा —
“रिया, मेरा टिफिन तैयार हो तो जल्दी दो। मुझे देर हो रही है।”

रिया ने टिफिन आगे बढ़ाते हुए धीरे से कहा —
“सुनिए, क्या आज भी आप पापा से मिले बिना ही ऑफिस चले जाओगे? आखिर वो आपके पापा हैं। अगर उन्होंने गुस्से में कुछ कह भी दिया तो क्या हुआ? आप क्यों इस तरह चुप्पी साध लेते हैं?”

लेकिन रवि ने जैसे कुछ सुना ही नहीं। बिना कोई जवाब दिए, टिफिन लेकर बाहर निकल गया। दरवाज़ा बंद हुआ तो घर में भारी-सा सन्नाटा छा गया।

राधा जी, जो बरामदे में तुलसी को जल चढ़ा रही थीं, बेटे को जाते देख वहीं ठिठक गईं। उनकी आँखों में आँसू भर आए। चार दिन हो गए थे रवि को अपने पापा से बात किए हुए।

राधा जी की आँखों के सामने अचानक पुरानी तस्वीरें तैरने लगीं।
उन्हें याद आया जब शादी के दस साल बाद ईश्वर ने उन्हें संतान का सुख दिया था। कितना लंबा इंतज़ार था वो। कितनी मन्नतें, कितनी दुआएँ माँगी थीं। जब रवि पैदा हुआ तो जैसे घर में नया जीवन आ गया।

देवेश जी और राधा जी रवि को गोद में उठाकर कभी गाते, कभी खिलखिलाते। वो बच्चा उनके लिए किसी खिलौने से कम नहीं था। उसके पहले शब्द, पहले कदम, पहली मुस्कान — सब उनके लिए जीवन की सबसे अनमोल पूँजी बन गए।

रवि भी बचपन से ही अलग स्वभाव का था। न कभी ज़िद करता, न ऊटपटांग माँगें रखता। मम्मी-पापा की हर बात मानता और उनका सम्मान करता। देवेश जी अक्सर दोस्तों से गर्व से कहते —
“मेरा बेटा सबसे समझदार है।”

लेकिन हाँ, देवेश जी की एक आदत थी जो उन्हें भारी पड़ती थी — गुस्सा। उनका गुस्सा बहुत जल्दी आता और उतनी ही जल्दी शांत भी हो जाता। परंतु गुस्से में वे जो शब्द बोल जाते, वे सुनने वाले के दिल को चीर देते। बाद में पछताते ज़रूर थे, लेकिन तब तक चोट लग चुकी होती।

 

यही गुस्सा चार दिन पहले बड़ा कारण बन गया था।

रवि उस दिन अपने कॉलेज के दोस्तों को घर लेकर आया था। सब हँसी-मज़ाक में व्यस्त थे। आवाज़ थोड़ी ऊँची हो गई। देवेश जी उस समय आराम कर रहे थे। नींद टूटते ही उनका गुस्सा सातवें आसमान पर पहुँच गया।

वे बाहर आए और बिना सोचे-समझे चिल्ला पड़े —
“ये क्या हो रहा है? घर को सराय बना रखा है क्या? ज़रा दूसरों का भी ख्याल कर लिया करो।”

दोस्त अचानक चुप हो गए। माहौल बिगड़ गया। उनमें से एक बोला —
“रवि, जब तुम्हारे घर वालों को पसंद नहीं था तो हमें बुलाया ही क्यों? हम बाहर मिल लेते।”

ये सुनकर रवि का चेहरा झुक गया। उसे दोस्तों के सामने अपमानित महसूस हुआ। गुस्से में उसने पापा से नज़रें चुरा लीं और तब से चार दिन से उनसे बात नहीं की।

राधा जी कमरे में गईं तो देखा, देवेश जी खिड़की के पास बैठे बेचैन-से उनका इंतज़ार कर रहे थे।

उन्होंने बेचारगी से कहा —
“राधा, रवि आज भी मुझसे मिले बिना ही चला गया। क्या बच्चे बड़े हो जाते हैं तो माँ-बाप और उनके रिश्तों का स्वरूप भी बदल जाता है?

मैं मानता हूँ कि मुझसे गलती हुई है। मैंने गुस्से में उसे और उसके दोस्तों को डाँट दिया। मैं तो अब उनसे माफी माँगने को भी तैयार हूँ। लेकिन… इस उम्र में अपने बेटे की बेरुखी नहीं झेल सकता।”

यह कहते-कहते उनकी आवाज़ भर्रा गई और वे फूट-फूटकर रो पड़े।

राधा जी ने उन्हें ढाढ़स बंधाया।
“आप चिंता मत कीजिए। बेटा आपसे ज़्यादा दिन नाराज़ नहीं रह सकता। शाम को ऑफिस से आएगा तो ज़रूर आपसे बात करेगा।”

लेकिन उनके दिल में भी दर्द की लहर उठी।

शाम को जब रवि ऑफिस से लौटा, वह थका-हारा सोफ़े पर बैठ गया। राधा जी सरसों का तेल लेकर आईं और बोलीं —
“बहुत दिन हो गए, ला बेटा तेरे सिर में तेल लगा दूँ।”

रवि चुपचाप बैठ गया। माँ के हाथ सिर पर फिरते ही उसकी आँखें नम हो गईं।

तेल लगाते-लगाते राधा जी बोलीं —
“देख बेटा, मैं मानती हूँ कि तेरे पापा की गलती है। उन्हें इसका पछतावा भी है। वे तेरे दोस्तों से भी माफी माँगने को तैयार हैं।

लेकिन ज़रा सोच, अगर तू उन्हें माफ़ नहीं करेगा तो क्या तू खुद अपने आप से नज़रें मिला पाएगा?

हम दोनों अस्सी के पार पहुँच चुके हैं। हमारी ज़िंदगी अब ढलती साँझ जैसी है। पता नहीं कब यह साथ छूट जाए। तब कोई नहीं होगा जो तुझे डाँटेगा या तुझे रोकेगा।

आज तू नाराज़ है, पर कल तू इन्हीं डाँट-फटकार को तरसेगा। बेटा, रिश्ते अहंकार से नहीं, त्याग और माफी से टिकते हैं।”

यह सुनकर रवि, जो अब तक चुप था, माँ की गोद में सिर रखकर फूट-फूटकर रो पड़ा।
“माँ, मुझे भी बहुत दुख है। मैं इन चार दिनों से अंदर ही अंदर टूट रहा हूँ। पर उस दिन जो अपमान हुआ, मैं उसे भूल नहीं पा रहा था।”

राधा जी ने उसके आँसू पोंछे और बोलीं —
“बेटा, गुस्सा इंसान से गलतियाँ कराता है। पर रिश्तों का असली धर्म यही है कि हम एक-दूसरे को समझें और माफ़ करें। जा, अपने पापा के पास जा।”

रवि उठकर भागा और पापा के कमरे में गया। जैसे ही देवेश जी को देखा, उनकी आँखें भर आईं। रवि उनसे लिपट गया।

देवेश जी ने काँपते हाथों से उसके सिर पर हाथ फेरा और कहा —
“बेटा, तू मुझसे कभी बात करना मत छोड़ना। मैं वादा करता हूँ कि इस गुस्से की आदत को बदलने की पूरी कोशिश करूँगा।”

रवि ने कहा —
“नहीं पापा, आप जैसे हैं वैसे ही मेरे लिए अनमोल हैं। आपकी डाँट भी मेरे लिए आशीर्वाद है।”

उस रात घर का माहौल बदला हुआ था। रसोई में रिया और राधा जी चाय-नाश्ता बना रही थीं और हॉल में सबसे तेज़ ठहाके देवेश जी के ही गूँज रहे थे।

अगले दिन रवि ने दोस्तों को घर बुलाया। इस बार देवेश जी खुद दरवाज़े पर खड़े होकर उनका स्वागत करने लगे। उन्होंने मज़ाक में कहा —
“कल तो गुस्से में नींद खराब हो गई थी, आज आप सबकी वजह से नींद भी मीठी लगेगी।”

दोस्तों ने हँसते हुए उनकी बात स्वीकार की। थोड़ी देर में हॉल हँसी से गूंज उठा।

रिया और राधा जी जब नाश्ता लेकर आईं, तो देखकर उनकी आँखें चमक उठीं। जो घर पिछले चार दिनों से बोझिल था, वह अब ठहाकों से भरा हुआ था।

लेखिका : नीलम शर्मा

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