उत्तम एक शिक्षक थे। सरकारी स्कूल में पढ़ाते थे। सरकारी नौकरी के नाम पर ही लोग मूँछों पर ताव देने लगते हैं। खाते- पीते परिवार की सुन्दर सुशील साक्षी के साथ उनकी शादी हुई। दान- दहेज भी मिला। उत्तम के माता- पिता नहीं थे। एक बड़ा भाई था वही शादी- ब्याह किया। कुछ दिन तो उत्तम और साक्षी रंगीन सपनों में डूबे रहे। दो साल बाद एक बेटी हुई। बेटी होने के बाद धीरे- धीरे घर का खर्च बढ़ने लगा। उत्तम चित्रकारिता और पेंटिंग में निपुण थे। शौकिया तौर पर वे बचपन से करते आ रहे थे।
उत्तम ने सोचा क्यों न स्कूल के बाद बचे समय में चित्र और पेंटिंग सिखाने का काम किया जाए। साक्षी ने भी इसका समर्थन किया। एक सूचना पत्र छपवा कर आस- पास लगा दिए। परिचितों, मित्रों को भी इसकी सूचना दे दी गयी और फिर अगले महीने से शुरू हो गयी चित्रकला की कक्षा। जहाँ दिल का लगाव होता है वहाँ अत्यधिक रुचि होती है। ईमानदारी और लगन से किये गये काम में भगवान का भी सहयोग मिलता है। धीरे-धीरे उत्तम की कला की काफी प्रशंसा होने लगी। अब तो उत्तम बच्चों का परिक्षण कर सिखाने को तैयार होते थे।
उसी में एक अमन नाम का सात वर्षीय बच्चा चित्रकारी सीखने आता था। वह अपने पापा के साथ मोटरसाइकिल से आता था और एक घंटे बाद पापा के साथ ही जाता था। अमन के पापा जगदीश चंद्रा कभी बाहर टहलते हुए वक्त बिताते थे तो कभी कुछ काम होने से बाजार चले जाते थे।
एक दिन जोर से बारिश हो रही थी। बारिश से बचने के लिए जगदीश चंद्रा उत्तम के बरामदे में आकर खड़े हो गये। वहाँ भी हवा थोड़ी तेज होने के कारण बारिश की बूँदे देह स्पर्श कर ही लेती थी।
भीगते हुए देखकर साक्षी ने उन्हें अन्दर बुला लिया। पहली बार घर आये मेहमान को चाय के लिए पूछना तो शिष्टाचार है। साक्षी ने भी पूछा और स्वीकृति मिलने पर चाय का प्याला हाजिर कर दी। बाहर घनघोर बारिश और अन्दर अदरक वाली गरमा गर्म चाय साक्षी और जगदीश जी पी रहे थे। बातों- बातों में जगदीश जी ने साक्षी को बताया कि इनका एक बहुत बड़ा कपड़ा का दुकान है। उनकी पत्नी पिछले साल ही एक दुर्घटना में छोड़कर जा चुकी थी। अमन उनका एकलौता बेटा है।
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ट्यूशन खत्म हुआ और अमन अपने पापा के साथ चला गया। साक्षी ने उत्तम को बताया भी कि अमन के पापा बारिश में बाहर भीग रहे थे तो हमने उन्हें बुला लिया। उत्तम ने कहा-
” अच्छा किया जो तुमने अन्दर बुला लिया। इंसानियत भी तो कोई चीज है।”
अगले दिन साक्षी न जाने क्यों जगदीश चंद्रा के साथ बारिश का भी इंतजार करने लगी। न आज बारिश हुई और न ही जगदीश अन्दर आए। गेट पर ही अमन को छोड़कर किसी काम से चले गये। साक्षी खिड़की से देखती रही। एक घंटे बाद वह फिर खिड़की के पास आकर खड़ी हो गयी। उसने आपने- आप से सवाल भी किया कि- क्या वह जगदीश को देखने के लिए खड़ी है? पर क्यों? वह जितना ही ध्यान जगदीश की तरफ से हटाना चाह रही थी उतना ही उसका दिल उससे सवाल- जबाव करता जा रहा था।—–
आखिर एक दिन रोड़ पर टहलते देखकर अन्दर बुला ही लिया।
” आप क्यों बाहर खड़े रहते हैं? अन्दर आ जाया कीजिए। मैं इस वक्त खाली ही रहती हूँ।”
जगदीश जी अब अन्दर कमरे में जाकर बैठने लगे। उन्हें दरवाजा खुलवाना भी नहीं पड़ता था। दरवाजा खोल रोज खड़ी रहती थी और अब तो रोज का नियम बनता जा रहा था। एक दिन उत्तम ने कहा भी-
” रोज जगदीश जी यहाँ क्यों आ जाते हैं? तुम बुलाती हो या वो खुद आते हैं?”
“मैंने कह दिया है कि यहीं आकर बैठिए। “
उत्तम को इस तरह जगदीश और साक्षी को रोज मिलना अच्छा नहीं लगता था, लेकिन वे साक्षी के तेवर देखकर स्पष्ट रूप से कुछ कह नहीं पाए।
एक दिन जगदीश जी को बुलाकर उत्तम ने अमन को किसी संस्था में डालने की बात कही।
” अमन अब बहुत अच्छा ड्राइंग बनाना और पेंट करना सीख गया है। इसे किसी संस्था में दे दीजिए जहाँ से उसे प्रमाण पत्र मिलेगा।”
ऐसा कह अगले महीना से अमन को आने के लिए मना कर दिये। जब साक्षी को पता चला तो बहुत नाराज हुई।
” मैं जानती हूँ तुमने अमन को क्यों मना किया? तुम्हें जगदीश से मेरा मिलना पसंद नहीं था।”
उत्तम बहस बढ़ाना नहीं चाह रहे थे। अतः खामोश ही रहे।
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छे महीने बाद ही एक दिन सुबह- सुबह जब उत्तम उठे तो साक्षी घर में नहीं थी। पलंग के बगल में मेज पर एक चिट्ठी पड़ी थी। उत्तम ने उसे पढ़ा तो उनके होश उड़ गये। पत्र में स्पष्ट लिखा था कि –
मैं जगदीश के पास जा रही हूँ। जगदीश बहुत दूर नहीं है कि तुम ढूँढ नहीं सकते हो। मैं दहलीज पार कर चुकी हूँ।अब लौटना सम्भव नहीं। हाँ तीन साल की गुड़िया की मैं कसूरवार जरूर हूँ। मुझे माफ कर देना गुड़िया।
साक्षी
उत्तम को अब समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करे। विश्वासघात…
स्कूल से दस दिन की छुट्टी लेकर पहली बस से गाँव पहुँचा। अपने भाई- भाभी को बताने के बाद वह उसके मायके भी बता देना चाहते थे। उसकी चिट्ठी भी दिखाई और स्पष्ट रूप से कह दिया कि मैं उसे लेने नहीं जाऊँगा। यदि वह स्वयं लौटकर आना चाहे तो मेरा दरवाजा खुला रहेगा।
उत्तम अपनी भाभी से गुड़िया को दस दिन रखने का निवेदन कर अपनी छुट्टी खत्म होने पर वापस शहर आ गये। इस मोहल्ले में वे सबसे क्या कहेंगे? अतः वे दूसरी जगह नये घर की तलाश में लग गये। यहाँ सबकुछ ठीक कर वह बेटी को लेकर आये और उन्होंने सबको यही बताया कि इसकी माँ अब इस दुनिया में नहीं है। एक नयी शुरूआत के साथ अब उत्तम का एक मात्र लक्ष्य था बेटी की परवरिश। साक्षी की तरह वो भी उसे छोड़ तो नहीं सकते थे।……..
गुड़िया अब स्कूल जाने लगी। गुड़िया और घर को सम्भालने में जीवन व्यतित होने लगा। धीरे- धीरे गुड़िया बड़ी होने लगी। उसकी चित्रकला में रुचि देखकर उत्तम ने उसे शिक्षा देनी भी शुरू कर दी। एक दिन गुड़िया बहुत बड़ी पेंटर के रूप में प्रसिद्धि पायी। जब वह दसवीं में थी तभी उसकी एक प्रदर्शनी लगी। प्रदर्शनी काफी सफल रही उसकी सारी पेंटिंग लगभग बिक चुकी। एक खरीदार अमन भी था। अमन को भी पेंटिग बहुत पसंद थी और यह पेंटिग गुड़िया और अमन को नजदीक लाने लगी। एक दिन गुड़िया अमन को बैठाकर उसकी एक तस्वीर बनाई और उसने अमन को उपहार स्वरूप दिया। अमन स्नातक करने के बाद अपने पिता की दुकान पर बैठने लगा था।
गुडिया और अमन का मिलना एक संयोग ही था। ये दोस्ती कब प्यार में बदल गयी दोनों को पता ही नहीं चला। —— अभी तक दोनों ने अपने घर में इस बात को नहीं बतायी थी। सोचा गुडिया की पढ़ायी खत्म होने पर बताना सही रहेगा। एक साल बाकी था। इसी बीच हृदय की गति रुक जाने से जगदीश चंद्रा की मृत्यु हो गयी।
अचानक अमन पर दुकान और घर की सारी जिम्मेदारी आ गयी। अक्सर वह अपनी परेशानी या दिल की बात गुड़िया से ही साझा करता था। एक साल बीत गया। गुड़िया भी बी.ए.कर गयी। अब दोनों ने अपने-अपने घर में अपनी पसंद बताने का फैसला किया। अमन गुड़िया को अपनी माँ से मिलवाया। क्या पता था कि गुड़िया और साक्षी दोनों अपने ही खून से मिल रहे हैं।…….
एक दिन अचानक बाजार में उत्तम की मुलाकात अमन और उसकी माँ से हो गयी। अमन ने कहा-
” माँ, ये गुड़िया के पापा हैं।”
जब पलट कर साक्षी ने देखा तो वहीं चक्कर खाकर गिर गयी। फिर तो अमन उसे लेकर अस्पताल गया और उत्तम भारी कदमों से घर लौटे।…..
सोचते रहे – क्या ये शादी हो पायेगी? शास्त्रीय विधान सही है? रातभर करवट बदलते रहे। बेटी की खुशी के लिए ना कहना बड़ा कठीन था और…..
साक्षी दो घंटे में अस्पताल से वापस आ गयी। दूसरे दिन अमन के माध्यम से उत्तम का फोन नम्बर ले उससे बाहर कहीं मिलने की विनती की।
उत्तम को भी समाधान ढूँढना था। शाम को काॅफी हाउस में मिले।
बाइस साल बाद दोनों आमने- सामने थे। साक्षी ने पहल करते हुए कहा-
” मैं तो ये पूछने का भी हक खो बैठी हूँ की तुम कैसे हो? अब गुड़िया और अमन की खुशी के लिए हम अतीत को भूलकर एक नयी शुरूआत करें। गुड़िया को कभी पता नहीं चलना चाहिए कि मैं उसकी असली माँ हूँ।”
” लेकिन ये कैसे हो सकता है?”
” क्यों? कोई बुराई नहीं है। तुम तो जानते हो अमन मेरा बेटा नहीं है। फिर इस रिश्ते में कोई पाप नहीं है। अमन भी तुम्हें नहीं पहचानता। इस राज को राज रखकर इन दोनों की शादी कर दो।”
उत्तम कुछ देर खामोश रहे, फिर अचानक उठे, काँफी का बिल चुकाए और ‘ठीक है’ कहकर चले गये। साक्षी उन्हें जाते हुए देखती रही।
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दो महीने बाद ही शादी एक होटल में बड़ी घूम- घाम से हुई। उत्तम ने कोई कमी नहीं रखी। हाँ शादी में अपने भाई- भाभी को नहीं बुला सके।
बिदाई का पल उत्तम के लिए असहनीय था। बेटी को गले लगाकर फूट-फूटकर रो पड़े। गुड़िया भी खूब रोई। पापा आप तो मेरे लिए माँ- बाप दोनों रहे, इसलिए आज माँ की तरह रो रहे हैं।……..
बेटी को बिदा करने के बाद अमन के सामने खड़े होकर एक याचक की तरह याचना करने लगे।
” बेटा मेरी गुड़िया का ख्याल रखना। बिन माँ की बच्ची है कुछ गलती होने पर समझा देना। अब तो उसका पिता भी उससे बहुत दूर जा रहा हैं।”
” बहुत दूर, ऐसा क्यों कह रहे हैं पापा?”
“नही, यों ही। शादी के बाद तो बेटी पराई हो जाती है।”
ऐसा कहकर उत्तम ने मुह फेर लिया और अपने दिल को थामें घर की ओर चल पड़े।
घर आकर रात भर सोचते रहे- यहाँ रहने से साक्षी का सामना कैसे कर पाऊँगा? कभी कोई सवाल न कर दे बेटी।…..
कुछ कपड़े और जरूरी सामान समेट कर घर की चाभी और किराये का पैसा एक लिफाफा में कर पड़ोस में देकर दिए कि कभी मालिक आये तो दे देना।
मकान मालिक को फोन भी कर दिए। ये सोचकर घर से निकल गये कि इतनी बड़ी दुनिया में यदि नौकरी नहीं भी मिली तो चित्रकारी का गुण शायद पेट भर दे। इसी चित्रकारी ने एक बार दुनिया उजाड़ी थी। अब गवाँने के लिए भी कुछ नहीं है और निकल गये एक अनजान सफर पर।
पुष्पा पाण्डेय
राँची,झारखंड।