चार दीवारी का सच  – डॉ० मनीषा भारद्वाज : Moral Stories in Hindi

शहर की गलियों में सिमटा ‘बसंत निवास’ का कमरा नंबर 4 नाममात्र का घर था। दस बाय दस का वह कमरा, जहाँ रामकिशोर, उनकी पत्नी सुशीला, बेटा अमित (16वर्ष) और बेटी छवि ( 12 वर्ष) साँस लेते थे। बाहर से दिखता तंग, टूटा-फूटा… पर अंदर? एक अजीब गर्माहट थी, जैसे प्यार से बुना हुआ कम्बल।  

“अम्मा! देखो मेरा चित्र…” छवि ने एक उमड़े हुए कागज़ पर बनाया घर दिखाया, जिसकी छत पर इंद्रधनुष था। “मेरी कक्षा में सबसे सुंदर है!”  

सुशीला ने आटा गूँथते हुए मुस्कुराई, “वाह! पर छत पर इंद्रधनुष कैसे? हवा उड़ा ले जाएगी न?”  

अमित, किताबों के बीच से बोला, “अम्मा, स्कूल की फीस का आखिरी दिन कल है। टीचर ने डांटा भी…” उसकी आँखें नीची थीं।  

रामकिशोर, थके हुए शरीर को चारपाई पर टिकाते हुए बोले, आवाज़ में थकान थी, पर नरमी भी, “हाँ बेटा… कल मिल जाएगी। आज रिक्शे से साहब जी ने पचास रुपये ज्यादा दिए। बोले, ‘रामू, तू ईमानदार है।'” उन्होंने जेब से सिक्के निकाले।  

सुशीला ने आटे के हाथ अमित के सिर पर रखे, “देखा? तुम्हारे पिताजी पर भरोसा रखो। पढ़ाई जारी रखो।”  

एक दोपहर, मकान मालकिन मंजू देवी का कर्कश स्वर दरवाजे पर गूँजा, “सुशीला! तीन महीने का किराया बकाया है! या तो पैसे दो, या सामान समेत बाहर निकलो! मैं दया नहीं दिखाऊँगी!”  

दरवाजा बंद हुआ। कमरे में सन्नाटा छा गया। छवि डरकर अमित से चिपट गई। सुशीला की आँखें डबडबा आईं। रामकिशोर ने माथे पर हाथ रख लिया।  

“पिताजी… हम कहाँ जाएँगे?” अमित का स्वर काँपा।  

रामकिशोर ने गहरी साँस ली, “कहीं न कहीं जगह मिल ही जाएगी बेटा… शहर बड़ा है।” पर उनकी आँखों में अनिश्चितता का भार था।  

सुशीला ने आँसू पोंछे, आवाज़ में दृढ़ता लौटी, “नहीं! यहीं रहेंगे! मैं दो घरों में और काम लूँगी। अमित ट्यूशन पढ़ाने लगे। छवि भी…”  

“अम्मा, मैं अखबार बाँट सकती हूँ सुबह!” छवि ने हाथ उठाया।  

रामकिशोर उठे, उनकी पीठ सीधी हुई, “नहीं बच्चों! तुम्हारा काम पढ़ाई है। मैं… मैं रात को भी रिक्शा चलाऊँगा।”  

अगले कुछ दिन संघर्ष के थे। रामकिशोर सुबह-शाम के बाद अब रात के शिफ्ट में भी रिक्शा चलाने लगे। सुशीला एक घर से दूसरे घर काम करतीं, थककर चूर। अमित की आँखों के नीचे काले घेरे गहराते, पर वह पढ़ाई नहीं छोड़ता। छवि चुपचाप घर का काम संभालती।  

एक रात, तेज बारिश हो रही थी। छत से पानी टपक रहा था। बाल्टी, बर्तन… सब टपकते पानी के नीचे थे। रामकिशोर देर से लौटे, कपड़े भीगे हुए, जुकाम से सरसराती आवाज़ में बोले, “आज… आज बहुत कम कमाई हुई। बारिश में लोग नहीं निकले।”  

सुशीला ने गर्म तौलिया दिया, “कोई बात नहीं। बस स्वस्थ रहो।”  

अचानक छवि रोने लगी, “अम्मा… मेरी ड्राइंग वाली कॉपी भीग गई! मेरा घर… मेरा सुंदर घर…”  

अमित ने उसे समझाया, “छोटी बहन… कॉपी सूख जाएगी। और असली घर तो हमारे दिलों में बसता है, कागज़ पर नहीं। याद है तुम्हारा चित्र? छत पर इंद्रधनुष था न? वो इंद्रधनुष… वो हमारा प्यार है, जो हर बारिश के बाद दिखता है।”  

रामकिशोर ने छवि को गोद में बिठा लिया, “अमित सही कहता है बेटी। ये टपकती छत, ये भीगी दीवारें… ये सिर्फ ईंट-गारे हैं। असली छत तो वो है,” उन्होंने सुशीला और अमित की ओर इशारा किया, “जो हम सब मिलकर बनाते हैं – एक-दूसरे का सहारा।”  

संघर्ष का चरम तब आया जब रामकिशोर बुखार से बिस्तर पकड़ गए। कमाई रुक गई। अब मकान मालकिन का धमकी भरा अल्टीमेटम सच लगने लगा।  

“अम्मा… मैं स्कूल छोड़ देता हूँ। पूरे दिन काम करूँगा,” अमित ने फैसला सुना दिया।  

सुशीला का चेहरा कठोर हो गया, “ऐसी बात मत कहो अमित! तुम्हारी पढ़ाई ही हमारा भविष्य है।”  

तभी दरवाज़ा खटखटाया। पड़ोसन सीमा दीदी थीं, जिनके घर सुशीला काम करती थीं। उन्होंने एक छोटा सा बैग दिया, “सुशीला, मैंने सुना तुम्हारी मुश्किल। ये कुछ बच्चों के पुराने किताबें हैं… और,” उन्होंने नोटों की गड्डी निकाली, “ये अग्रिम वेतन है। तुम ईमानदार हो… हम सब तुम्हारे साथ हैं।”  

सुशीला की आँखों में आँसू आ गए। उस रात, उन चार दीवारों में एक नया विश्वास जन्मा।  

मुसीबत का दौर गुजरा। रामकिशोर ठीक हुए। अमित ने बोर्ड की परीक्षा में जिले में प्रथम स्थान पाया। छोटे से कमरे में जश्न था – पड़ोसियों के आशीर्वाद, मिठाई की मिठास और आँसुओं की खुशी।  

मकान मालकिन मंजू देवी भी आईं, शायद पहली बार मुस्कुराते हुए, “सुशीला… तुम्हारा बेटा तो हीरा निकला! अच्छा… अगले महीने से किराया बढ़ाने की नौबत नहीं आएगी।”  

उस रात, जब सब सो गए, रामकिशोर ने सुशीला से कहा, चेहरे पर गर्व और शांति थी, “देखा? इन चार दीवारों को घर हमने बनाया… हमारे संघर्ष ने, हमारे बच्चों की मेहनत ने, और… पड़ोस के उस प्यार ने।”  

सुशीला ने टिमटिमाते बल्ब के नीचे उस टपकते कोने की ओर देखा, जहाँ अब छवि ने एक नया चित्र बनाया था – एक छोटा सा कमरा, जिसके अंदर चार लोग हँस रहे हैं, और बाहर बारिश में भीगता हुआ इंद्रधनुष उनकी छत को छू रहा था।  

“हमारा घर कागज़ी छतों से नहीं बनता ” सुशीला बोली, आवाज़ में गहरा सुकून, “बनता है साझे सपनों से, सुख-दुख के बाँटे गए क्षणों से। दीवारें तो सिर्फ हवा रोकती हैं… परिवार की साँसें ही उनमें जान डालती हैं।”  

वह कमरा नंबर 4 अब भी टपकता था, पर उसमें बसने वालों के दिलों में उम्मीद की धूप खिली थी। क्योंकि उन्होंने जान लिया था – घर वह नहीं जो सिर पर छत देता है। घर वह है, जहाँ दिलों की छतें एक हो जाती हैं।

सच्चा घर पसीने की बूंदों, साझे आँसुओं और अटूट विश्वास की ईंटों से बनता है, न कि महज़ पलस्तर और सीमेंट से। परिवार की एकजुटता ही वह आधारशिला है जो किसी भी झोपड़ी को स्वर्ग बना देती है।

डॉ० मनीषा भारद्वाज

ब्याड़ा ( पंचरूखी ) पालमपुर

हिमाचल प्रदेश

# घर दीवार से नहीं परिवार से बनता है। (वाक्य प्रतियोगिता )

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