भीड़ – श्रीमति पुष्पा ठाकुर

अश्विन जी आज रोज से कुछ ज्यादा ही लेट हो रहे थे ,कल की मीटिंग की जानकारी जो बनाना था ।पत्नी निशा बार बार उन्हें ऑफिस से जल्दी निकलने की बात कह रही थीं और वो हर बार बस एक ही जवाब दे रहे थे – ‘हां बस पांच मिनट ‘

आखिर किसी तरह साढ़े पांच बजते ही अश्विन जी सरपट गाड़ी उठाकर घर की ओर निकले ।रास्ते से उन्हें अपने इकलौते बेटे अंश के सोलहवें जन्मदिन की पार्टी का केक भी लेना था ,बाकी की तैयारी निशा ने कर ही ली थी।

          गाड़ी चलाते हुए अश्विन जी को अपने बेटे अंश का जन्म का वो दौर याद आने लगा था ,शादी के सात आठ साल बाद कितनी मन्नतों के बाद निशा की गोद भरी थी , निशा तो जैसे फिर से जी उठी थी ।

     अंश के पहले घर कितना सूना हुआ करता था ,दोनों पति पत्नी पहले पहल तो परिवार में खूब आना जाना करते थे लेकिन निशा के बाद आईं सभी बहुओं की गोद भरती रही और उसकी सूनी गोद उसे सबसे दूर करती गई। आखिर दोनों पति पत्नी परिवार से कटने लगे और अपने दुख में सिमट से गए।

        ईश्वर की कृपा हुई और पूरे सात साल के इंतजार के बाद निशा मां बनी ,दोनों की जिंदगी खुशियों से भर गई।आज अंश का सोलहवां जन्मदिन है , पता ही नहीं चला कब ये सोलह साल गुजर गए।

    सोचते हुए अश्विन बैकरी आ पहुंचे थे। वहां से आर्डर किया हुआ केक लेकर घर की तरफ निकले ,उस रास्ते में अक्सर ही काफी भीड़ होती थी ,घर के आखिरी मोड़ तक पहुंचने ही वाले थे कि देखा सनसनाती आ रही मोटर साइकिल सामने से जा रहे एक ट्रक से जा भिड़ी और बाइक सवार दोनों युवक उछलकर बहुत दूर जा गिरे ।

      उनके गिरते ही रोड से हर आने जाने वाला उनकी ओर लपका ,रोड यकायक खाली सी हो गई।



अश्विन जी ये नजारा देख धक्क से रह गए ,गाड़ी खड़ी की ही थी कि पत्नी का नंबर झनझना उठा -‘और कितनी देर लगेगी आपको?हमें मंदिर भी तो जाना है जी’

     ‘ओह हां …’

एक मन किया ,जाकर देखे तो …पता नहीं उन लड़कों को कितनी चोट आई होगी ,बचे भी या नहीं..

फिर सोचा …’इतनी भीड़ है ,किसी न किसी ने अब तक पुलिस को फोन कर ही दिया होगा ….

मेरा काम ही क्या है भला ?और मैं पहले से ही लेट हूं…आज मुझे अंश के लिए छुट्टी लेना था पर इस मीटिंग को भी कल ही होना था…

रोड जरा खाली है ,निकल ही जाता हूं।’

   सोचते हुए अश्विन जी गाड़ी स्टार्ट कर घर की ओर बढ़ गए। जैसे ही घर पहुंचे ,पत्नी निशा बिफर पड़ी-

‘आप भी न…एक दिन अपने बेटे के लिए जल्दी नहीं आ सकते थे?जाइए जाकर हाथ मुंह धो लीजिए ,अंश अपने दोस्तों के साथ आता ही होगा …..’

मोबाइल लगातार बजने लगा था , निशा बड़बड़ करती केक लेकर अंदर रसोई में जा चुकी थी और अश्विन जी हाथ मुंह धुलने चले गए थे।




 ‘  ये कौन इतना फोन बजा रहा है आपका?’निशा ने चिढ़कर कहा।

अश्विन जी ने मोबाइल उठाया ,लगभग सात आठ काल आ चुके थे , इतने में मोबाइल फिर से उठा।

‘हैलो !’

जी मेरी बात अश्विन तिवारी से हो रही है?

‘जी कहिए’

‘सर,आप सिटी हॉस्पिटल आ जाइए ,आपके बेटे का रोड एक्सीडेंट हुआ है…हम कबसे आपका फोन ट्राइ कर रहे हैं …’

सुनते ही अश्विन जी के हाथों से मोबाइल छूट गया। निशा दौड़कर आई , अनहोनी की आशंका से उसके हाथ पांव फूलने लगे थे ।दोनों बदहवास से अस्पताल पहुंचे ।

‘आप पिता हैं पेशेंट के…?आपके बेटे का सिर पत्थर से टकरा गया था ,जिससे बहुत खून बह गया ,भीड़ फोटो लेती रही ,किसी ने फोन किया ,तब तक बहुत देर हो चुकी थी।

    यदि तुरंत कोई उठाकर ले आता तो आपके बेटे की जान बचाई जा सकती थी।’

   सुनते ही निशा जी बेहोश हो गईं…..बस यही बोल पाईं – ‘उस भीड़ में क्या एक भी इंसान न था ? ‘

अश्विन जी बुत बने अवाक से सोचते रह गए …




‘मैंने अपने ही बेटे को भीड़ के भरोसे मरने छोड़ दिया…?ये मैंने क्या कर दिया????

      काश ! मैं ने तुरंत सक्रियता दिखाई होती…मेरा बेटा वहां तड़प तड़प कर दम तोड़ रहा था और मैं सामने से पीठ दिखाकर आ गया??

कितनी भी जल्दी हो,किसी इंसान की जिंदगी से बढ़कर कोई काम कैसे हो सकता है…

जरा सी चूक से आज सब कुछ खत्म हो गया था,

आखिर क्यों मैं ‘भीड़ ‘बन गया….’

      आज का इंसान दूसरों की पीड़ा के प्रति संवेदनहीन सा हो चला है ,भूल बैठा है कि तकलीफ़ में फंसा हर शख्स किसी का अपना है ,किसी परिवार का स्तंभ है ,जाने कितनी जिंदगियों की पूरी दुनिया है।

      अपनी खुशियों में दूसरों की तकलीफ़ की उपेक्षा अनुचित है, ‘मुझे क्या करना…ये मेरा मैटर नहीं ….मेरे पास इतना समय नहीं….’कहकर आगे बढ़ जाना ,एक भले इंसान की पहचान नहीं ।

कहानी स्वरचित है।

लेखिका – श्रीमति पुष्पा ठाकुर

 

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