अपर्णा ऑटो से उतर जल्दी- जल्दी घर जा रही थी। जाने मां को दिनभर में कोई परेशानी या जरूरत तो नहीं पड़ी। हालांकि वह मां को समझाकर आयी थी कि कोई भी परेशानी होने पर वह उसे फोन कर लें। इमरजेंसी में पड़ोसन नीता का भी फोन नम्बर दे रखी थी। उसे ऑफिस में भी मां की फिक्र लगी होती थी।
लंच के समय वह उन्हें जरूर फोन करती थी। सुबह घर से निकलने के पहले वह जरूरत की एक-एक वस्तु याद करके उनके पास रख देती थी। उसके दोनों बच्चे अलग- अलग शहरों में पढ़ रहे थे। बेटी इशिता मेडिकल फर्स्ट ईयर की स्टूडेंट थी और बेटा बारहवीं में पढ़ रहा था।
सुबह- शाम फोन से उनकी रोज़ाना खबर लेना वह न भूलती थी। किसी रोज जरा देर हो जाती तो इशिता स्वयं फोन कर हालचाल पूछती। वह लंच लेकर ऑफिस गई थी की नहीं। रात को हॉर्लिक्स लिया या नहीं। भूलने की बात सुनकर वह बिल्कुल अपनी नानी की तरह अपर्णा को डांटने लगती थी। इन बातों से वह मन ही मन खुश ही होती थी।
चलते- चलते वो घर पहुँचने वाली गली में मुड़ने ही वाली थी कि उसे याद आया कि मां ने कल ‘पनतुआ’ खाने की इच्छा जताई थी। मुड़ते- मुड़ते वह अपनी बायीं ओर के सड़क पर पनतुआ लेने मुड़ गयी। प्रायः वह ऑफिस से लौटते समय मां के लिए कुछ न कुछ जरूर लाती थी।
अगर किसी दिन भूल जाये , तो मां की खोजती निगाहें बिन कहे सब कह जाती थी। उस दिन वह डिनर में कुछ स्पेशल बनाती थी। घर पहुँच चाय पीकर मां को लेकर पास के मैदान में टहलाने ले गई। सर्दी शुरू होने वाली थी । अतः मां के ना- ना कहने के बाद भी हाफ कार्डिगन पहनाना न भूली। पहनाते- पहनाते उसे याद आया कि कल मां के लिए पी . यू सोल वाला स्लीपर भी लाना है क्योंकि हवाई चप्पल थोड़े ही दिनों बाद फिसलने लगता है।
मैदान में तेजी से टहलते हुए वह बीच- बीच में माँ को भी देख लेती थी। वह याद कर रही थी कि मां उसे तीनों भाई- बहन में सबसे ज़्यादा प्यार करती थीं। बचपन से ही वो मां से चिपकी रहती थी। इसकी हर इच्छा मां देर- सबेर जरूर पूरा करती थीं। मध्यम वर्गीय परिवार था इसलिए प्रतीक्षा तो करनी ही पड़ती थी।
पर माँ- पिताजी ने किसी वस्तु की कमी नहीं होने दिया था। हम बच्चे भी समझदार थे। आजकल के बच्चों की तरह पेरेंट्स की स्थिति जाने बगैर मांग नहीं किया करते थे। बल्कि कई इच्छायें तो हम जताते भी नहीं थे। पर हम सब भाई बहन उतने में ही खुश रहते थे। हल्के सिहरन से अपर्णा का ध्यान भंग हुआ। मां संग घर आई। किचेन में जाकर देखा तो आटा गूंथा हुआ था, सब्ज़ी कटी हुई थी। लाख मना करने के बाद भी मां ये सब कर ही देती थीं।
रोजाना की तरह सुबह नाश्ते के बाद उसने कंघी कर मां के बाल बनाये। बी. पी की दवा खिलाई। और स्वयं तैयार हो ऑफिस जाते समय वही सारी हिदायतें दुहरायी। अंदर से कुंडी लगा लेने को बोल वह निकल पड़ी। पिछले कुछ महीनों से उसे पेट में दायीं तरफ दर्द की शिकायत हो रही थी।
बेटी के बार- बार कहने के बावजूद वह नज़रअंदाज़ कर रही थी। श्रम को फोन पर उसने बेटी को इस बारे में बताई। इशिता ने फिजिशियन से दो दिन बाद का अपॉइंटमेंट लेकर मां को बुलाया। तीन घण्टे की दूरी पर इशिता का मेडिकल कॉलेज था। दस बजे तक वह मेडिकल कॉलेज पहुँच गई।
डॉ से कंसल्ट किया। डॉ ने अल्ट्रासाउंड के साथ – साथ कई तरह के और टेस्ट्स लिखें। सभी जांचों के लिए सम्बंधित विभागों तक जाना पड़ा। कभी यहां तो कभी वहाँ। काफी भागदौड़ हुई। वो तो इशिता के ‘मेडिको’ होने की वजह से सारे काम अपेक्षाकृत जल्दी हो गए।
शाम को अपर्णा घर वापस आ गयी। अगले दिन सारे रिपोर्ट्स कलेक्ट कर डॉ से मिली। डॉ ने अपेंडिक्स बताया जिसका शीघ्र ऑपरेशन जरूरी था। इशिता ने डॉ से ऑपन।रेशन के ‘डेट’ भी ले ली।
अपर्णा मां की देखभाल के लिए उसी शहर में रहनेवाली एक रिश्तेदार को घर पर रख अगले सोमवार को नियत तिथि पर अपर्णा इशिता के मेडिकल कॉलेज पहुंच गई। इशिता ने डॉ से मिल सारी फॉरमैलिटी पूरी की। अपर्णा को ऑपरेशन थिएटर जाया गया। इशिता भी ओ. टी में जाना चाहती थी
लेकिन अभी फर्स्ट ईयर की स्टूडेंट होने से परमिशन नहीं मिला। किन्तु वह बाहर खड़ी रही। ऑपरेशन के बाद बेड पर पहुँचने के बाद अपर्णा ने इशिता को पास खड़ी पाया। अपर्णा ठंड लगने की वजह से कंपकपा रही थी। घबराई इशिता ने जल्दी से कम्बल ओढ़ाया।
सलाइन वाटर चल रहा था। बॉटल खत्म होने से पूर्व इशिता नर्स को बुला लायी। दो दिन बाद डिस्चार्ज होकर अपर्णा इशिता के साथ घर आ गई। क्लासेज छूटने के कारण इशिता तीन दिनों के बाद वापस कॉलेज चली गयी। लेकिन इस बीमारी के दौरान इशिता ने जिस प्रकार से अपनी माँ की देखभाल की थी ,
अपर्णा हैरान थी। वह अचंभित थी कि कब उसकी अल्हड़ सी बिटिया इतनी समझदार हो गई। कैसे भाग- भाग कर वह एक गार्डियन की तरह सारे फॉरमैलिटी पूरी कर रही थी। ऑपरेशन फॉर्म पर भी उसने ही साइन किया था। आराम करते हुए वह सोच रही थी
कि कैसे वक़्त के साथ- साथ किसी इंसान का दायित्व बदलता रहता है , जिसे उसे निभाना होता है। ” बेटा दूध पी ले”- मां की आवाज़ से उसका ध्यान भटका। देखा मां घी में मखाना भी भून लायी हैं। बड़े प्यार से मां की ओर देखते हुए उसने सोचा कि कितनी खुशनसीब है वह जिसे दो- दो माओं का प्यार मिल रहा। सच ही तो है बेटियां भी तो बड़ी होकर मां सरीखी ही तो हो जाती हैं।
— डॉ उर्मिला शर्मा
अच्छी कहानी। दरअसल बेटियां ऐसी ही होती हैं।
What a rubbish!