बंद दरवाजों के पीछे का थप्पड़ ‘-मीनाक्षी गुप्ता :Moral Stories in Hindi

सोनम की दुनिया एक बंद कमरे की घुटन से शुरू होकर उसी कमरे की ख़ामोशी में ख़त्म हो जाती थी। बाहर की दुनिया में उसका पति, मोहित, एक आदर्श, हँसमुख और प्यार करने वाला इंसान था। उसकी हँसी और बातों में सोनल के लिए फ़िक्र झलकती थी। पर यह सब एक ढोंग था, एक ऐसा नकाब जो घर की दहलीज़ के अंदर उतर जाता था। अंदर की दुनिया में सोनल की छोटी-मोटी

ग़लतियाँ भी पहाड़ बन जाती थीं। आवाज़ नीची, बातें तीखी और फिर… अचानक से पड़ते हुए थप्पड़। वह थप्पड़ सिर्फ़ गाल पर नहीं पड़ता था, सीधा दिल पर लगता था, जैसे कोई आत्मा को ही मार रहा हो। हर बार थप्पड़ के बाद सोनल की आत्मा एक कोने में सिकुड़ जाती थी, जैसे कोई अपनी ही परछाई से डर जाए। वो रात में अकेली होती, तो दिन भर की बेइज़्ज़ती, अपने ही पति से मिली हर डांट और हर थप्पड़ एक गहरे ज़ख्म की तरह उसके दिल में रिसते रहते।

उसे लगता था कि अगर किसी को पता चला कि उसका पति उसे मारता है, तो यह उसकी अपनी हार है, उसकी अपनी बदनामी है। यही शर्मिंदगी उसे मजबूर करती थी कि वह अपने ज़ख्मों को बंद दरवाज़ों के पीछे छुपाकर रखे, ताकि बाहर की दुनिया में उसका चेहरा मुस्कुराता रहे, भले ही भीतर एक क़ब्रिस्तान हो।

एक दिन, जब सोनल और मोहित बाज़ार गए, तो सोनल सड़क पर उसका इंतज़ार कर रही थी। तभी उसकी नज़र पास खड़ी एक कार पर पड़ी। अंदर एक जोड़ा बैठा था। महिला कुछ कह रही थी, अचानक, सोनल ने देखा कि उसके पति ने उसे एक ज़ोरदार थप्पड़ मारा और फिर उसके बाल

पकड़कर खींचे। सोनल के मन में एक चीख़ उठी। उसी पल उस कार में बैठी महिला की नज़र सोनल से मिली। दोनों की आँखों में एक ही तरह का दर्द, एक ही तरह की बेबसी थी। दोनों ने तुरंत अपनी नज़रें झुका लीं, जैसे उस दर्द को किसी को दिखाने से डर रही हों। सोनल को लगा, “क्या मेरा दर्द सिर्फ मेरा नहीं है? क्या ये सब औरतें एक ही नाव में सवार हैं?”

कुछ दिनों बाद सोनल अपनी बालकनी में खड़ी थी, जब उसे नीचे गली में एक और दृश्य दिखाई दिया। एक सब्ज़ी वाला अपनी पत्नी को सबके सामने मार रहा था। आस-पास के लोग आकर बीच-बचाव करने लगे और सब्ज़ी वाले को पीटना शुरू कर दिया। सोनल को उस औरत पर दया आई, लेकिन जो हुआ, वह उसकी सोच से परे था। वह सब्ज़ी वाली अचानक से चिल्लाने लगी, “तुम हमारे

पति-पत्नी के बीच में क्यों बोल रहे हो?” वह भीड़ को ऐसे डाँट रही थी जैसे उन्होंने कोई बहुत बड़ा गुनाह कर दिया हो। वह अपने पति की तरफ़दारी कर रही थी, और उस पर हाथ उठाने वालों पर चीख-चिल्ला रही थी। सोनल को मन में यह बात खटक गई, “यह कैसा प्यार है? जहाँ मार खाने के बाद भी औरत अपने मारने वाले के लिए खड़ी होती है?”

अगले दिन, सोनल फिर से अपनी बालकनी में खड़ी थी, तो उसने वही सब्ज़ी वाली और तीन-चार औरतों का एक ग्रुप देखा। सोनल ने सोचा, शायद आज वे सब अपने पतियों की बुराई कर रही होंगी। उसे एक पल के लिए उम्मीद जगी कि शायद इन औरतों के बीच एक आपसी समझ और दर्द का रिश्ता होगा। वह ध्यान से उनकी बातें सुनने लगी।

लेकिन जब उसने उनकी बातें सुनीं, तो उसका दिल बैठ गया। वे अपने मोहल्ले की एक औरत की बुराई कर रही थीं, जिसने अपने पति के ख़िलाफ़ पुलिस में शिकायत दर्ज करवाई थी और उसे जेल भिजवा दिया था क्योंकि उसके पति ने उसे मारा था।

एक औरत ने कहा, “अरे, पति-पत्नी में ऐसी छोटी-मोटी नोक-झोंक तो चलती रहती है। अगर पति ने हाथ उठा भी दिया, तो क्या हो गया? इतना भी क्या बुरा मानना कि थाने तक चली गई?”

दूसरी ने कहा, “हाँ, हमारा पति भी तो हमें मारता है। पर क्या हम इस वजह से घर छोड़ दें? अगर पति दिन में मारता है, तो रात को प्यार भी तो कर लेता है।”

सोनल को समझ में नहीं आया कि यह कैसी दुनिया है जहाँ औरतें एक-दूसरे की दुश्मन बन गई हैं। उसे अपनी और उस कार वाली महिला की आँखों में वही दर्द दिखा था। उसे सब्ज़ीवाली की बेबसी भी दिखी थी। लेकिन आज वही सब्ज़ी वाली, अपने जैसी दूसरी औरतों के ख़िलाफ़ खड़ी थी। सोनल का दिल बैठ गया। उसे समझ आया कि पुरुषों को यह हक़ किसी ने नहीं दिया, यह हक़ उन्होंने खुद ले लिया, और महिलाओं ने सदियों से इस ज़ुल्म को चुपचाप सहकर इसे एक परंपरा बना दिया है।

सोनल को लगा, यह सिर्फ़ एक कहानी नहीं, बल्कि हर घर के भीतर दबी हुई एक चीख़ है। यह उन तमाम औरतों की कहानी है जिनकी हँसी झूठी है, जिनकी मुस्कुराहटें खोखली हैं, और जिनके दिलों में एक ऐसा सैलाब छिपा है जो कभी बाहर नहीं आ सकता। हर रात जब वे तकिए पर सिर रखती हैं, तो उस सैलाब में दर्द, बेबसी और शर्मिंदगी की लहरें उठती हैं।

यह लड़ाई सिर्फ़ घर के अंदर की नहीं, बल्कि अपने ही भीतर बैठी उस आवाज़ से है जो कहती है, “चुप रहो, कोई सुनेगा तो क्या कहेगा?” यह सिर्फ़ एक सवाल नहीं, बल्कि एक दर्दनाक हकीकत है कि जब औरतें एक-दूसरे की दुश्मन बन जाती हैं, तो वे अपनी ही क़ैद को और भी मज़बूत कर लेती हैं।

समाज की दहलीज़ पर, एक औरत चुपचाप बैठी है। उसके कंधों पर सदियों की एक परंपरा का बोझ है। यह परंपरा कहती है कि घर की दीवारों के पीछे होने वाले हर ज़ुल्म को एक रिश्ते का हिस्सा मान लिया जाए।

पुरुष प्रधान समाज की अंधी गलियों में, औरत की आवाज़ गुम हो जाती है। मार सहने के बाद भी उसके होंठ सिल जाते हैं, क्योंकि उसे सिखाया गया है कि पति का हाथ जब उठता है तो वह प्यार भी करता है। यह कैसी विडंबना है जहाँ ज़ख्म देने वाला ही मरहम लगाने का दावा करता है, और औरत इस झूठ को अपनी नियति मान लेती है। वह अकेले में अपने आँसुओं को पीकर, दुनिया के सामने एक झूठी मुस्कान ओढ़ लेती है।

यह चुप्पी सिर्फ़ बेबसी नहीं, बल्कि एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को दी गई विरासत है। एक औरत की ख़ामोशी दूसरी औरत को भी चुप रहना सिखाती है। और दुख तब और गहरा हो जाता है, जब एक औरत दूसरी औरत के दर्द को नहीं समझ पाती, बल्कि उस पर सवाल उठाती है जिसने अपनी चुप्पी तोड़ दी हो।

यही वह सबसे बड़ा सच है। समस्या सिर्फ़ उस हाथ में नहीं जो उठता है, बल्कि उस समाज में है जो आँखें मूँद लेता है। और उस स्त्री में भी, जो यह सोचती है कि उसकी ख़ामोशी ही उसकी इज़्ज़त है।

समाप्त 

लेखिका __ मीनाक्षी गुप्ता (मिनी)

Leave a Comment

error: Content is protected !!