शिखा के पास आज फिर उसकी भाभी मीना का फोन आया था। उसने कहा-“दीदी, मां जी की तबीयत आज फिर बहुत खराब हो गई है प्लीज आ जाइए।”
पिछले महीने से यह उसका चौथी बार फोन आया था। हर बार शिखा मां की देखभाल के लिए भागी भागी मायके पहुंच जाती थी। उसके जाने से मीना को बहुत आराम हो जाता था, लेकिन इस बार शिखा स्वयं अपने टांगो के दर्द से बहुत परेशान थी। वह सोच में पड़ गई थी कि क्या करूं। आखिरकार उससे रहा नहीं गया और वह मां के पास पहुंच ही गई। मां की बीमारी की खबर सुनकर कोई भी बेटी भला कैसे ससुराल में चैन से रह सकती है। शिखा ने दो-तीन दिन तक मां की खूब सेवा की। सभी दवाइयां समय पर देती रही ।उनके दूध फल और खाने पीने का बहुत ध्यान रखा। मां की सेहत अच्छी देखकर वह ससुराल लौट गई।
घर वापस जाकर पल भर को उसे यह विचार आया कि मीना, मां के बीमार होने पर हर बार मुझे बुला लेती है, वह स्वयं उनकी सेवा क्यों नहीं करती है। हम तो अपनी सास की देखभाल खुद करते हैं। कभी अपनी ननद को परेशान नहीं करते। खुशियों के समय तो मीना मुझे बिल्कुल याद नहीं करती लेकिन मतलब के समय याद करती है। फिर खुद ही अपने विचारों को दिमाग से झटक दिया ऐसा कुछ नहीं है। अपने भाई भाभी के बारे में गलत मत सोचो। मां के लिए कुछ करना तो सौभाग्य की बात है।
पांच छः महीने बीत गए। मीना ने और शिखा के भाई नीरज ने उसे कोई फोन नहीं किया और ना ही उसका हालचाल पूछा। शिखा ही हर बार फोन करके उनका हालचाल पूछती रहती थी।
फिर एक दिन अचानक मीना का फोन आया।”दीदी, प्लीज आ जाइए मां की तबीयत बहुत खराब है।”
शिखा को बहुत गुस्सा आया। उसने कहा-“मैं इस बार नहीं आ सकूंगी, मेरी सास की भी तबीयत खराब है।”
शिखा ने कहने को तो कह दिया, पर उससे रुका ना गया। सारा दिन इसी उधेड़बुन में रही कि जाऊं या ना जाऊं।
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मां की तबीयत ना जाने कैसी है, ईश्वर ना करें अगर कोई अनहोनी हो गई तो मैं खुद को जीवन भर माफ नहीं कर पाऊंगी। वह अगले दिन सुबह सुबह ही मायके पहुंच गई। मां की हालत सचमुच बहुत खराब थी।
उसके दोनों भतीजियां उदास होकर अपनी दादी के पास बैठी थी, लेकिन शिखा को साफ-साफ दिख रहा था कि
नीरज और मीना का व्यवहार मां के प्रति बेहद लापरवाही भरा है।
उसने गुस्से में कहा-“अब तक आप लोग मां को अस्पताल क्यों नहीं ले कर गए हैं। अब जल्दी चलिए और हां, पिछली बार वाले सारे दवाई के पर्चे और एक्स-रे इत्यादि उठा लीजिए।”
मीना-“दीदी, वही तो प्रॉब्लम है, मैं अकेली क्या-क्या संभालूं, सारे पर्चे ना जाने कहां गुम हो गए हैं। कल से ढूंढ रही हूं मिल ही नहीं रहे।”
शिखा ने उसे गुस्से में घूर कर देखा तो वह पलट कर कमरे में चली गई। टैक्सी आ चुकी थी। शिखा ने अपनी भतीजी की मदद से मां को टैक्सी में बिठाया और नीरज को आवाज लगाई। उसने देखा कि नीरज आने में बहुत देर कर रहा है तब उसने अपनी भतीजी से कहा-“तुम यहीं रुको मैं नीरज को बुलाकर लाती हूं।”
अंदर पहुंचकर शिखा ने कुछ ऐसा सुना कि उसका हृदय पीड़ा से फटने लगा।
मीना ,नीरज से कह रही थी-“सुनो जी, तुम्हारी बहन के पास किसी चीज की कोई कमी नहीं है। हर जगह टैक्सी करके घूमती है और फिर तुम्हारी मां, उसकी भी तो मां है। थोड़ा खर्चा उसे भी करने दो, अस्पताल पहुंचकर, पर्स घर पर भूल आया ऐसा बहाना बना देना और चाहो तो पर्स घर पर ही रख जाओ।”
नीरज-“अच्छा अच्छा ठीक है, धीरे बोलो और यह बताओ कि मां के सारे कहने कहां है। सुबह मैंने अलमारी में ढूंढा, वहां तो कुछ है ही नहीं।”
मीना-“मां की खराब हालत देखकर, मैं पहले ही सारे गहने बैंक के लॉकर में रख आई। क्या पता तुम्हारी बहन का, मां की निशानी कहकर ना जाने क्या उठाकर ले जाए।”
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शिखा का हृदय दुख से फटा जा रहा था। वाह भाभी वाह! मां के दवाई के पर्चे तो तुमसे संभाले न गए और गहने तुमने फटाफट संभाल लिए। क्या तुमने कभी मुझे लालच करते देखा था जो तुमने मेरे बारे में ऐसा सोचा। शिखा ने कभी मायके में आकर खर्च करने में कंजूसी नहीं की थी और अपने बच्चों के बराबर ही अपनी भतीजियों को समझा था। मायके से भर भर कर सामान ले जाने का भी उसे कभी लालच नहीं था। उसने तो सिर्फ हमेशा सम्मान और प्यार की इच्छा की थी। उसे अपने भाई और भाभी के खोखले और बनावटी रिश्ते पर बहुत दुख हो रहा था और आंखों से झर झर आंसू बह रहे थे।
वह आंसू पोंछते हुए चुपचाप टैक्सी में मां के पास जाकर बैठ गई और अपनी भतीजी से कहा-“तुम अंदर जाओ, मैं खुद ही मां को अस्पताल ले जा रही हूं।”
अस्पताल में मां का चेकअप करवाने के बाद उसने शाम को फिर एक बार कैब बुलाई और मां को अपने घर, अपनी ससुराल ले आई।
स्वरचित अप्रकाशित
गीता वाधवानी दिल्ली
#खोखले रिश्ते
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