‘यह क्या छुटकी बहू ! तुम नए जमाने की होते हुए भी मेरी ज्यादा लाड़ली हो, तो इसका अर्थ यह नहीं कि हमारे पुराने सनातन रीति-रिवाजों में भी दखलंदाजी करने लगोगी । क्या तुमने कभी किसी के विवाह के निमंत्रण कार्ड पर नाना-नानी लिखा नाम देखा-सुना है ?
अरे, हमारे जमाने में तो नाना-नानी अपने दोहते-दोहतियों के विवाह में जाते ही नहीं थे। तब तो माता-पिता अपनी लड़की के घर का पानी नहीं पीते थे। इसलिए मामा-मामी ही वहां जाकर सारी रस्में निभाया करते थे।’
‘इसका मतलब दादी,आप खुद मान रही हैं न कि अब समय बदल चुका है। दरअसल जैसे दादा-दादी का मन करता है कि वे अपने पोते-पोती को वर और वधू के सजे-धजे रूप में देखकर स्वयं छूकर आशीर्वाद दें, ठीक वैसे ही नाना-नानी की भी तो हार्दिक इच्छा होती होगी
न कि वे अपने नाती-नातिन को स्वयं आशीष दें, लेकिन सदियों से हमारा समाज रीति- रिवाजों के नाम पर उनकी इस खुशी को दबाता आया है ।
अब धीरे-धीरे इसमें परिवर्तन आ रहा है और विभु के मामा-मामी के साथ अब उसके नाना-नानी भी तो विवाह में सम्मिलित होंगे न ? जब हमने इस पुरानी परंपरा को आगे बढ़ा दिया है तो इसी से जुड़ी दूसरी परंपरा को भी आगे क्यों नहीं बढ़ा सकते ?’
दरअसल घर में सुरभि की ननद-विभु के विवाह की तैयारियाँ चल रही हैं और आज विवाह के निमंत्रण-पत्र का मसौदा तैयार किया जा रहा है। दो वर्ष पूर्व सुरभि के ससुर का देहांत हो गया था। अत: विवाह की तैयारियों में वह हर पल अपने पति के साथ खड़ी रहना चाहती है ।
इस वक्त भी अपने पति के साथ मिलकर निमंत्रण पत्र का ड्राफ्ट तैयार कर रही है, ताकि ऑफिस जाते समय पति इस ड्राफ्ट को प्रिंटिंग वाली दुकान पर दे सके। उसकी सासू मां तथा दादी सास भी निकट बैठी हैं।अपने पोते और पोत बहू दोनों को मिलकर काम करते
देखकर दादी मां इस बात से बहुत प्रसन्न हैं कि उनकी आधुनिक पोत-बहू घर की जिम्मेदारियां निभाने में उनके पोते को पूरा सहयोग दे रही है, किंतु इस संदर्भ में सुरभि ने जब पति से निमंत्रण पत्र पर अपनी ननद के नाम के साथ उसके नाना-नानी का नाम भी छपवाने का सुझाव दिया तो दादी बिगड़ गईं।
सुरभि इस घर की लाड़ली बहू है और अपनी वाणी की मिठास के कारण उसका अपनी दादी सास के साथ, अपनी सासू मां से भी अधिक सहज संबंध है। इसी मधुर संबंध के चलते दादी बोलीं,
‘छुटकी बहू ! परंपराएं ऐसे नहीं बदली जातीं जैसे तुम लोग आए दिन अपने मोबाइल की फोटो बदल देते हो । ये परंपराएं हमारे समाज की पहचान होती हैं।’
सुरभि को तुरंत कल का अपनी व्हाट्सअप डी.पी बदलकर दादी मां को दिखाना याद आ गया और दादी का तंज समझकर वह दादी के पैरों में जा बैठी, ‘अच्छा दादी ! मुझे माफ करिएगा, परंतु मुझे बताइए कि हम कार्ड पर दादा-दादी का नाम क्यों लिखते हैं ?’
दादी थोड़ा गुस्साई आवाज में बोलीं, ‘अरे ! यह भी कोई पूछने की बात है ? दादा-दादी घर की वंशावली का हिस्सा होते हैं। उनसे ही तो
पोते-पोती की पहचान होती है। विभु के कार्ड पर सबसे पहले दादा-दादी के छपे नाम से ही तो तुम्हारे ससुर की पहचान होगी कि यह ‘फलां घराने’ की संतान है, जिसकी पुत्री का विवाह निश्चित हुआ है।’
‘हां जी दादी ! यही तो मैं कह रही हूँ कि कार्ड पर छपे विभु के नाना-नानी के नाम से भी तो बस सासू मां की पहचान ही होगी कि यह ‘फलां घराने’ की संतान है,
जिसकी पुत्री का विवाह निश्चित हुआ है। हमारे जीवन में हमारे ‘ननिहाल’ का कितना महत्व होता है । विभु को अपने दादा-दादी और नाना-नानी का बराबर दुलार मिला है और ननिहाल तो नाना-नानी से ही होता है न ! तो फिर उनका नाम क्यों नहीं लिखा जाए ?’
इस वक्त दादी की आंखों में भी अपने ‘ननिहाल’ का दुलार तैरने लगा था।
‘अच्छा दादी,आपको याद है,जब मेरे विवाह में मेरे नाना-नानी भी सम्मिलित हुए थे और आपसे मिलने के पश्चात् मेरी नानी मां आपके पास ही की कुर्सी पर बैठ गईं थीं, तो आप उनसे गपशप करके कितनी प्रसन्न हुई थीं। यह भी तो एक प्रकार से दो कुलों की ‘पहचान’ ही थी न ?
अपने ननिहाल और अपनी पोतबहू की नानी से हुई गपशप को याद करके दादी को तनिक धीमा होते देखकर सुरभि ने फिर मौके का फायदा उठाया, ‘और जहां तक परम्पराओं को बढ़ाने की बात है न दादी ! तो सच मानिए हम इससे एक स्वस्थ परंपरा को ही आगे बढ़ाएंगे’
‘सदियों पुरानी परंपरा को तोड़कर तुम कौन सी नई परंपरा बढ़ाओगी ? तुम तो इस बात का अंदाजा भी नहीं लगा सकती हो कि लोग हमारे बारे में क्या-क्या कहेंगे !’ दादी के स्वर की तल्खी अभी समाप्त नहीं हुई थी ?’
‘दादी, घर में शायद आपके साथ किसी की यह चर्चा नहीं हुई कि मेरे विवाह के निमंत्रण कार्ड पर दादा-दादी के साथ मेरे नाना-नानी का नाम भी लिखा था। वह मैंने ही अपने ममी-पापा से जिद करके लिखवाया था। तब एक बार मैंने उस घर में नई परंपरा की शुरुआत की थी
और आज दूसरी बार मैं इस घर से उसी परंपरा को आगे बढ़ाने की गुजारिश आप सबसे कर रही हूँ। और जहां तक लोगों का सवाल है ,तो दादीजी , यह आपके जमाने का ही गाना है न कि कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना…?’
गाने की धुन सुनकर दादी धीमे से मुस्कुरा पड़ीं, ‘बहू क्या नाम लिखवाना है अपने बाबूजी का ? अपनी समधिन का नाम तो मैं जानती हूँ, लेकिन तुम्हारे बाबूजी को तो हम ‘समधीजी’ के नाम से ही पहचानते रहे हैं हमेशा ? हां भई ! तब यही चलन था ।’
और अपनी बहू को संबोधित करते हुए जब दादी मां ने अपने पांवों में बैठी पोतबहू का सिर सहलाया तो उनके पोते और पोतबहू के मुख पर तो सिर्फ मुस्कान आई थी, किंतु उनकी बहू का चेहरा अपनी बहू के प्रति उपजे गर्व से दमकने लगा था।
मंतव्य : यह मेरी मौलिक रचना है। रिश्तों की पहचान और गहराई के लिए पुरानी परंपराओं को नया कलेवर दे देने से यदि उनकी सुंदरता बढ़ती हो तो उनमें बदलाव मान्य होने चाहिएं।
उमा महाजन
कपूरथला
पंजाब।
#बदलाव
# कुछ तो लोग कहेंगे