घर में चहल-पहल थी। अनन्त का प्रमोशन हुआ था, और परिवार जश्न में डूबा था। ड्राइंग रूम में केक काटा जा रहा था मिठाइयों, नमकीन, आइसक्रीम के दौर के साथ दोस्तों के कहकहे सुनाई पड़ रहे थे।
लेकिन घर का एक कमरा जिसमें बाबूजी रहते थे उन्हें किसी ने बुलाना क्या बताना भी उचित नहीं समझा ।
अनन्त के बाबूजी, रिटायर्ड मास्टरजी, कभी पूरे मोहल्ले में इज्ज़त से देखे जाते थे। सादा जीवन, उच्च विचार। पर आजकल वे बस एक कमरे तक सीमित रह गए थे।
अनन्त अक्सर कहता,बाबूजी को अब आराम करना चाहिए, बाहर की बातों में दखल न दें। जमाना बदल गया है।
शादी-ब्याह हो या पारिवारिक फैसला—बाबूजी से सलाह लेना पूंछना बीते दिनों की बात ,अब ‘पुराना फैशन’ हो गया था।
आज जब सब जश्न मना रहे थे, बाबूजी चुपचाप अपने कमरे में बैठे थे। उन्होंने अपने बेटे की सफलता के लिए ईश्वर से कितनी बार प्रार्थना की थी, पर किसी ने आज उन्हें बताना तक उचित नहीं समझा ।
तभी छोटी पोती अनु कमरे में आई। दादू ! आप बाहर क्यों नहीं आए?
बाबूजी मुस्कराए, बेटा, अब मेरी ज़रूरत किसे है?&
अनु भागती हुई अनन्त के पास गई, पापा, दादू को क्यों नहीं बुलाया?
अनन्त कुछ असहज हुआ, फिर बोला, वे ठीक हैं अपने कमरे में… उन्हें भीड़ पसंद नहीं।
बाबूजी के दरवाज़े पर खामोशी ने दस्तक दी थी।
एक दिन जब बाबूजी हमेशा के लिए चले गए, तो वही कमरा लोगों से भरा हुआ था ,लेकिन अब बाबूजी नहीं थे…
जिनसे सभी ने मुंह मोड़ा था, आज उनकी तस्वीर को सब देख रहे थे । यह कैसा व्यवहार है जिन्होंने अपना पूरा जीवन जिनके लिए उत्सर्ग कर दिया था आज वही उनको जरूरत होने पर उनसे मुंह मोड़ रहे थे और उनके न रहने पर फिर आंसू बहा दुखी होने का दिखावा ?
स्वरचित डा० विजय लक्ष्मी
‘अनाम अपराजिता’
अहमदाबाद
मुहावरे और कहावतें लघुकथा प्रतियोगिता
मुहावरा#मुंह मोड़ना
अर्थ-तिरस्कार करना