बाबू –  जयसिंह भारद्वाज

दिसम्बर के पहले सप्ताह की हल्की गुलाबी ठंडक में सुबह के आठ बज रहे थे और मैं प्रयागराज जाने के लिए फतेहपुर बस अड्डे पर बस की प्रतीक्षा कर रहा था। तभी एक आठ नौ साल का बच्चा मेरे पास आया और बोला, “भूख लगी है साहब, कुछ पैसे दे दो।”

मैंने इधर उधर दृष्टि दौड़ाई किन्तु कोई ऐसा न दिखा जो उसका पारिवारिक लग रहा हो। उसे अकेला समझ कर समीप की चाय की दुकान की तरफ संकेत करते हुए मैंने कहा, “आओ बच्चे, उधर बैठ कर चाय पीते हैं।”

मेरी बात सुनकर उसके चेहरे पर आश्चर्यमिश्रित मुस्कान उभरी और वह दौड़कर मुझसे पहले वहाँ पहुँच गया और एक बेंच पर बैठ कर सामने पड़ी मेज पर हाथ रखे-रखे दुकान के काउण्टर पर रखे बिस्कुट और ब्रेड-पाव को देखने लगा।

उसपर दृष्टि गड़ाए हुए मैं उसके सामने ही दूसरी बेंच पर बैठ गया और उससे पूछा, “पाव खाओगे क्या?”

उसने मुस्कुरा कर अपने सिर को हिलाकर सहमति दी और धीरे से बोला, “और बिस्कुट भी”

मैं उठकर काउण्टर के पास गया और दो चाय, एक पाव-रोटी और एक पैकेट बिस्कुट के पैसे दिए और सामान लेकर मेज पर आ गया। पीछे पीछे एक लड़का दो कप चाय लाकर मेज पर रख गया।

मैंने प्लेट में बिस्कुट फैला दिए और उसमें एक किनारे पाव रोटी रख कर बच्चे की तरफ बढ़ाते हुए कहा, “लो, खा लो बच्चे। यदि मन करे और खाने का तो बता देना, मैं मंगा दूँगा।”

इधर मैं चाय सुड़कने लगा उधर वह बच्चा पाव रोटी को चाय में डुबो डुबो कर खाने लगा। उसे ऐसा करते देख कर मुझे मेरा बचपना याद आ गया। मैंने उससे पूछा, “बच्चे, क्या नाम है तुम्हारा?”

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“बाबू”

“बाबू, तुम स्कूल नहीं जाते क्या?”

“नहीं”

“क्यों? मम्मी पापा कुछ नहीं कहते तुमसे?”

“मेरी मम्मी मर गयीं हैं। पापा वे सामने दुकान पर बैठे हैं।”

उसकी उँगली का पीछा करते हुए मैंने देखा कि एक 40-45 साल का खिचड़ी दाढ़ी वाला पुरुष सिर पर सफेद गाँधी टोपी लगाए हुए फुटपाथ पर बिखरे हुए कुछ औज़ारों के मध्य बैठा हुआ एक साइकिल के पहिये में काम कर रहा था।

वापस बाबू को देखते हुए मैंने कहा, “फिर तुम इतनी सुबह सुबह घर से क्यों निकल आते हो इस जाड़े में?”

“घर में नई मम्मी मारती है इसलिए पापा के साथ ही आ जाता हूँ। पापा जबतक दुकान सजाते हैं तबतक मैं यहाँ वहाँ किसी से माँग कर कुछ खा लेता हूँ फिर दिनभर पापा के साथ दुकान में बना रहता हूँ।”

“बगल में बने स्कूल में सुबह आते जाते बच्चों को देखकर तुम्हारा मन नहीं करता क्या स्कूल जाने का?”

अंतिम बिस्कुट से कप की तली में पड़ी चाय को स्पर्श कर  मुँह में रखते हुए बाबू ने कहा, “करता है न, लेकिन पापा के पास पैसे नहीं है मुझे पढ़ाने के लिए।”

“अच्छा यह बताओ कि यदि मैं तुम्हारे पढ़ाने की व्यवस्था कर दूँ तो क्या तुम पढ़ोगे?”

उसने विस्मय से मुझे देखते हुए कहा, “क्या सचमुच?”

“हाँ, सच्ची में।” मैंने मुस्कुराते हुए कहा।

“मैं जरूर पढूँगा। मन लगाकर पढूँगा।” चाय का आखिरी घूँट पीकर होंठ पोंछते हुए बाबू ने बड़े विश्वास से मुझसे कहा।

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“तो ठीक है। आज अभी मुझे प्रयागराज जाना है। लौटकर आने पर मैं तुम्हारे पापा से बात करूँगा फिर मार्च में इसी स्कूल में तुम्हारा एडमिशन करा कर पढ़ने की व्यवस्था कर दूँगा।” फिर जेब से दो सौ का एक नोट उसे देते हुए कहा, “ये लो, अब आज किसी से खाने के लिए नहीं माँगना। शाम को मिलूँगा आकर। ठीक है।”

“ठीक है। शाम को आना जरूर। सात बजे तक ही हमारी दुकान रहती है।” उसने दोनों हाथों की उंगलियों से नोट को पकड़ कर उसके दोनों पटलों को देखते हुए कहा।

“ओके, अब तुम जाओ। देखो सम्भालकर सड़क पार करना।”

“ठीक है।” कह कर वह उठ खड़ा हुआ और फिर बिना पीछे देखे वह सरपट दौड़कर कर भाग गया।

मैंने देखा कि सिविललाइंस डिपो की एक जनरथ बस चलने को तैयार खड़ी है। मैं लपक कर उसमें चढ़ गया।

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शाम को बस से उतर कर मैं बाबू की दुकान की तरफ बढ़ा तो हृदय धक्क से रह गया। जहाँ उसके पापा की दुकान थी वहॉं भीड़ लगी हुई थी। बढ़ी हुई धड़कन के साथ जब मैं वहाँ पहुँचा तो पाया कि सीमेंट लदा एक ट्रक उस स्थान  पर पलटा हुआ पड़ा था। वहाँ एकत्र लोगों से जानकारी मिली कि दोपहर एक बजे इस ट्रक का अगला टायर जोरदार आवाज के साथ फट गया था जिससे यह असन्तुलित होकर पलट गया। बाबू, उसके पापा और दो राहगीरों की इन्हीं बोरियों के नीचे दबकर मौत हो गयी।

मेरा मस्तिष्क चेतनाशून्य हो गया और आँखें बंद हो गईं। इन्ही बन्द आँखों के पटल पर मैं बाबू को उसकी आर्थिक विपन्नता, सौतेली माँ के व्यवहार और ईश्वर के विधान पर अट्टहास करते हुए और फिर उसके कहकहे को हँसी में बदलते हुए देखा। इसी निश्छल हँसी को अंत में सुबकते हुए देख कर मेरी आँखों से आँसू निकल कर गालों को भिगोने लगे।

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