सूरज की हल्की रोशनी प्राची के कमरे में धीरे-धीरे फैल रही थी। अलार्म की घंटी बजी और 45 साल की प्राची उठ गई। कुछ साल पहले उसके पति गुजर चुके थे, और तब से घर की सारी जिम्मेदारियाँ उसके कंधों पर थीं। बेटी नेहा की परवरिश, घर का खर्च, ऑफिस का काम — सब कुछ उसी पर था।
नेहा अब 19 साल की हो गयी थी। कॉलेज जाती थी। पिता का साया नहीं होने की वजह से थोड़ी ज़िद्दी थी, एटीट्यूड वाली थी, कभी माँ की परवाह को हल्के में लेती, कभी मन-माफ़िक व्यवहार करती तो कभी प्यार से बात करती, कभी इग्नोर कर देती। पर दिल की इतनी बुरी नहीं थी। प्राची ने हमेशा कोशिश की कि नेहा को अच्छी परवरिश मिले।
प्राची रोज़ सुबह अपने टिफ़िन के साथ कोशिश करती कि नेहा भी कॉलेज में घर का बना ताजा खाना लेकर जाये। पर नेहा को अब घर का डब्बा लेकर जाना पसंद नहीं आता था। उसे लगता कि कैंटीन में हर लड़का–लड़की खाते हैं, वही कूल लगता है।
एक दिन सुबह नाश्ते के समय प्राची ने देखा कि नेहा जल्दी-जल्दी बैग तैयार कर रही थी।
“बेटा, तुमने नाश्ता किया? मैंने तुम्हारी पसंद का गोभी पराँठा टिफिन में डाला है, ले लिया ना?” प्राची ने पूछा।
नेहा ने फोन की स्क्रीन में आधा ध्यान देते हुए कहा, “नहीं मम्मी, आप इतना पूछो मत। मैं कॉलेज में कुछ खा लूंगी।”
सुबह की हलचल में प्राची के कानों को यह बात थोड़ी चुभ गई। उसने हल्की मुस्कान ओढ़ी, पर भीतर कहीं खालीपन उतर आया। गोभी पराँठे की खुशबू जो रसोई में फैली थी, अचानक जैसे बेमानी लगने लगी।
नेहा दरवाज़े से बाहर निकली तो प्राची उसके पीछे तक देखती रही। मन में आया कि कहे—“बेटा, टिफ़िन में खाना सिर्फ रोटी-सब्ज़ी नहीं, ममता भी बंधी होती है”—पर होंठों तक आकर वो शब्द लौट गए।
ऑफिस जाते हुए पूरे रास्ते यही बात उसके मन में घूमती रही। उसे याद आया, जब नेहा छोटी थी, तो बिना टिफ़िन स्कूल नहीं जाती थी। आज वही बेटी बड़े शौक़ से कैंटीन में खाते दोस्तों के बीच शामिल होना चाहती है, और घर का खाना बोझ जैसा लगने लगा है।
दरअसल अब बेटी को माँ का केयरिंग स्वभाव, उसका कंसर्न उसके सवाल, चुभने लगे थे।
इसी के चलते एक दिन…
कॉलेज से लौटकर घर में कदम रखते ही नेहा ने जैसे कोई दूरी तय कर ली हो। माँ ने आवाज़ दी—
“नेहा, आज तो बहुत थकी लग रही है… चल, खाना खा ले।”
नेहा ने कोई जवाब नहीं दिया, बस बैग सोफ़े पर फेंक दिया और सीधी बाथरूम में चली गई।
बाहर आकर उसने तौलिए से बाल झाड़ते हुए बड़े बेमन से कहा—
“मम्मी… दो दिन बाद कॉलेज की तरफ़ से ट्रिप है, आप बस मुझे पैसे दे देना।”
“ट्रिप? कहाँ की है?” माँ ने सहज स्वर में पूछा।
नेहा ने बालों की ओर देखते हुए अनमनेपन से कहा—
“चंडीगढ़–शिमला की है। आप पैसे दे दीजिएगा।”
जिस दिन नेहा ट्रिप पर जाने वाली थी, प्राची ने सुबह उठकर उसके बैग में कपड़े सहेजे और उसके लिए पोहा, सैंडविच और परांठे तक पैक कर दिए।
“बेटा, ध्यान रखना, समय पर खाना खा लेना। और हाँ, बस और होटल का खाना अच्छा ही होगा, पर फिर भी कुछ सामान साथ दे रही हूँ। ज़रूरत पड़े तो खा लेना।”माँ ने कहा ।
नेहा ने खीजते हुए बैग खींचा, “मम्मी! आप क्यों इतनी चिंता करती रहती हो? मैं बच्ची नहीं हूँ।”
प्राची एक पल को रुक गई, बोली—“मैं कुछ नहीं कह रही, बस… तेरा ख्याल रख रही हूँ।”
नेहा ने हँसकर कहा—“ख्याल नहीं। आप तो बिल्कुल CID की तरह रहती हो। अब पूछोगी कितने बजे पहुंचूँगी, कौन दोस्त साथ था, कहाँ पहुँची—इतनी डिटेल तो कोई रिपोर्टिंग ऑफिसर भी नहीं लेता।”
यह सुनकर प्राची की आँखें कुछ पल के लिए भर आईं। उसने धीरे से कहा—“तू मुझे समझेगी, नेहा, पर तब… जब तू खुद माँ बनेगी।”
नेहा ने कोई जवाब नहीं दिया और जल्दी से दरवाज़ा बंद कर बैग लेके बाहर चली गई।
उधर प्राची ऑफिस जाते वक्त पूरे रास्ते यही सोचती रही कि उसकी बेटी, जिसे उसने अपने सीने से लगाकर पाला, जिसकी हर मुस्कान के लिए दुनिया से लड़ गई, आज उसी को अपनी सबसे बड़ी रोक-टोक लगने लगी है।
ट्रिप पर बस की सीटें खड़खड़ाती हुई आगे बढ़ रही थीं। सभी को कॉलेज की तरफ़ से पैक्ड लंच मिला—प्लास्टिक के डिब्बे में रोटी–सब्ज़ी। नेहा ने बैग खोला और धीरे से माँ का दिया छोटा स्टील का डिब्बा निकाला। ढक्कन सरकाते ही वही जानी-पहचानी खुशबू चारों तरफ़ फैल गई।
बगल में बैठी सिमरन ने भांप लिया। “अरे ये क्या है? हम सब तो वही कैंटीन वाला खा रहे हैं और तेरे पास एक्स्ट्रा है!”
नेहा थोड़ी सकपका गई, पर फिर ढक्कन पूरा खोल दिया। भीतर से पोहा और परांठे की महक फैली।
“वो… मम्मी ने जबरदस्ती डाल दिया था। कहा कि होटल या बस का खाना यदि अच्छा नहीं होगा, तो ये खा लेना।”
सिमरन तुरंत हाथ बढ़ाई—
“ज़रा टेस्ट तो करूँ? वैसे खुशबू तो धमाल है।”
नेहा ने हँसते हुए एक टुकड़ा तोड़कर सिमरन को दे दिया। सिमरन ने जैसे ही मुँह में डाला, आँखें चमक उठीं।
“ओहो! यार, ये तो किसी रेस्टोरेंट से भी बेहतर है। तुझे पता है, काश मेरी माँ होती तो मैं भी ऐसा टिफ़िन रोज़ खाती…”
वो अचानक चुप हो गई, चेहरा थोड़ा ढीला पड़ गया।
नेहा (हैरानी से): “क्यों? तेरी मम्मी…?”
सिमरन ने गहरी साँस ली।
“दो साल हो गये। मम्मी नहीं रहीं। हॉस्टल में रहती हूँ। पापा है पर बहुत कम बात होती है। जब भी किसी के डिब्बे से घर की खुशबू आती है, लगता है काश कोई मेरे लिए भी इतना प्यार से खाना बनाता।”
नेहा ने पहली बार ध्यान से उसकी आँखों में देखा। वहाँ एक तड़प थी—माँ की कमी की।
सिमरन हल्की मुस्कान बनाते हुए बोली—
“नेहा, तेरी माँ तुझे इतना चाहती है, इतना ख्याल रखती है। कभी मना मत करना उसके टिफ़िन को। ये सिर्फ खाना नहीं होता… माँ का प्यार होता है।”
बस के झटकों के बीच नेहा चुपचाप बैठी रही। हाथ में रखा पराँठा अचानक बहुत भारी लगने लगा। माँ का चेहरा उसकी आँखों में घूम गया—वो मुस्कान, वो बार-बार की चिंता, और उसकी अपनी खीज।
ट्रिप के बीच बस में सिमरन ने नेहा की तरफ देखा और हल्की मुस्कान के साथ बोली—“नेहा, कभी-कभी हम अपनी माँ की छोटी-छोटी बातें, उनकी केयर और चिंता , उन सब चीज़ों को तब ही समझ पाते हैं, जब हम उन्हें खो देते हैं।”
नेहा ने सिर झुका लिया। बस की खड़खड़ाहट के बीच उसने महसूस किया कि सिमरन बिल्कुल सही कह रही थी। उसने अपनी माँ के टिफ़िन में रखा खाना, उसकी हर छोटी-छोटी चिंता, हर प्यार भरे शब्द और कभी-कभी की टोक-टाकी—अब वह सब उसे पहले से ज्यादा याद आ रही थी।
होटल पहुंचकर उसने माँ को मेसेज किया कि वो ठीक है ।
जब घर लौटकर उसने माँ को देखा, जो अब पहले जैसी ज़्यादा टोक-टाकी नहीं कर रही थी और अपने ऑफिस और दिन की व्यस्तताओं में लगी थी,
ऐसे ही अब एक सप्ताह बीत गया था ।
अभी भी माँ अब सवाल नहीं करती थी ।बस मुस्कान दे देती थी ।
अब नेहा से रहा नहीं गया,,,,
धीरे से मुस्कुराते हुए कहा—“मम्मी… मुझे वही चाहिए, वही परवाह करने वाली माँ , जो हमेशा मेरे लिए थी।”
प्राची मुस्कुराईं, थोड़ी हंसी में हल्की शरारत भी थी—“अब मैं तुझे CIDनहीं लगूँगी क्या?”
नहीं मम्मी, मुझे मेरी CID माँ चाहिए, मेरी केयरिंग माँ चाहिए, वही माँ जो हर रोज़ मेरी छोटी-छोटी बातों पर टोकती, मुझे ख्याल रखती।
जो कॉलेज के बाद कोचिंग से लेट होने पर मेसेज की झड़ी लगा देती थी ।मुझे वही चाहिए।”
इस बार प्राची ने बिना बोले बस अपनी बाँहें फैला दीं। नेहा ने देखा कि माँ की आँखों में वही गहराई और प्यार था, जो उसने अपनी ज़िंदगी में इन दिनों शायद ख़ुद की गलती की वजह से कम महसूस किया था।
सिमरन की बात,नेहा के दिल में घर कर गई—उसने जाना कि माँ का प्यार हर छोटे-छोटे जेस्चर्स में छुपा होता है, बस हमें उसे महसूस करने की देर होती है।
माँ के लिए बच्चे कितने भी बड़े हो जायें बच्चे ही रहते है ।
दोस्तों ये कहानी आपको पसंद आयेगी ।
इसी आशा में
ज्योति आहूजा
#जब तुम माँ बनोगी तब पता चलेगा