अपनी बेटी का दुख -गीतू महाजन : Moral Stories in Hindi  

रसोई घर में झूठे बर्तनों के ढेर के आगे शुभांगी को आज मां की बहुत याद आ रही थी।आज अगर उसकी मां होती तो क्या उसकी तबीयत खराब होने पर भी उससे घर के काम करवाती।सास और मां में फर्क तो होता है ना..अगर सास भी मां बन जाए तो मां को कौन याद करे..यही सब सोचते हुए शुभांगी ने बर्तन मांजना शुरू कर दिया। 

बैंक में काम करने वाली शुभांगी का गर्भावस्था का चौथा महीना चल रहा था।वैसे तो घर और दफ्तर का काम वह बखूबी करती थी पर बीच-बीच में तबीयत खराब होने पर उसका काम करने का बिल्कुल मन नहीं होता।आज भी ऐसा ही एक दिन था..उसने दफ्तर से यह सोचकर छुट्टी ली थी कि वह घर पर थोड़ा आराम करेगी पर उसकी सास ने उसे यह कह कर उठा दिया कि थोड़ी देर में उसकी मौसी सास और मौसा ससुर आने वाले हैं।

शुभांगी के विवाह को दो साल हो चुके थे।देवेश से उसका रिश्ता उसके पिता की मौसी ने करवाया था। उसकी मां की 4 साल पहले ही मृत्यु हो चुकी थी..घर में पिता कैलाश जी और बड़ा भाई पार्थ थे।मां के अचानक से गुज़र जाने पर पिता को गहरा सदमा लगा था।अपने घर को बिखरता देख वह खुद टूट से गए थे

दोनों भाई-बहन भी पिता को देख परेशान रहते।पार्थ ने पिता के कारोबार को संभाल लिया था।शुभांगी ने भी पढ़ाई पूरी करने के बाद बैंक की परीक्षा देकर नौकरी पा ली थी। 

जीवन की गाड़ी धीरे-धीरे पटरी पर आ गई थी।उसके पिता भी बच्चों की सफलता से खुश थे।आखिर उनकी मां भी अपने बच्चों की सफलता ही तो चाहती थी। रिश्तेदार अब कैलाश जी को बच्चों की शादी की सलाह देने लगे थे।इसी बीच शुभांगी के लिए देवेश का रिश्ता आया और अपनी मौसी पर विश्वास रख कैलाश  जी ने रिश्ते को मंज़ूरी दे दी थी।

देवेश खुद भी एक बैंक में नौकरी करता था।घर में माता-पिता और एक बहन काव्या थी जिसका ब्याह हो चुका था।उसके पिता सुधाकर जी भी सरकारी कर्मचारी थे और कुछ ही देर में रिटायर होने वाले थे और उसकी मां निर्मला जी गृहिणी थी।कुल मिलकर एक छोटा सा पढ़ा लिखा परिवार था। कैलाश जी संतुष्ट थे कि उनकी बेटी को पढ़ा लिखा और अच्छा परिवार मिला है।शुभांगी की शादी भी उन्होंने बहुत अच्छे से की थी और पार्थ ने भी अपनी ज़िम्मेदारी पूरी तरह से निभाई थी।

विवाह के शुरुआती दिन तो आराम से बीत रहे थे। सास ससुर का व्यवहार भी शुभांगी के प्रति ठीक था। निर्मला जी ने घर के कामों के लिए एक बाई रखी हुई थी जिसका नाम राधा था और वो बर्तन  और सफाई का काम देखती  और साथ ही सब्ज़ी वगैरह काटने में निर्मला जी की मदद कर देती।कपड़े धोने के लिए उनके पास फुली ऑटोमेटिक मशीन थी तो कपड़ों का ज़्यादा झंझट नहीं था।शुभांगी भी अपनी तरफ से निर्मला जी की मदद करने की कोशिश करती।सब कुछ ठीक ही चल रहा था पर अब शुभांगी ने थोड़े दिनों में महसूस किया था कि निर्मला जी ने राधा के कामों में कटौती कर दी थी।अब वह सब्ज़ियां और उसके हिस्से का काम शुभांगी के ज़िम्मे डाल देती थी।दफ्तर से थकी मारी आई शुभांगी का बहुत बार काम करने को दिल नहीं करता पर फिर भी वह सास की मदद के लिए उनके साथ काम करवाती और यह उसका फ़र्ज़ भी बनता था। 

खैर,समय अपनी गति से गुज़र रहा था।काव्या बीच-बीच में मिलने आती।शुभांगी का बहुत मन करता कि अपनी ननद के साथ खूब बातें करें और उसके साथ घूमने जाए पर काव्या अपनी मां के साथ ही बातें करने में दिलचस्पी रखती और भाभी से थोड़ी दूरी बनाकर रखती।शुभांगी का सारा समय तो दफ्तर में ही निकल जाता था।शुभांगी को लगता कि उसके कुछ भी कहने पर देवेश हमेशा मां और बहन की साइड लेता और लड़ाई झगड़े को बढ़ावा ना देने के लिए शुभांगी चुप्पी लगा जाती।कुछ महीने बीते और  निर्मला जी ने राधा से बर्तन साफ करने के लिए मना कर दिया। 

“आखिर बर्तन होते  ही कितने हैं..शुभांगी खड़ी-खड़ी कर दिया करेगी”।

शुभांगी ने जब यह सुना तो बोली,” मांजी, मुझे सुबह दफ्तर भी समय से पहुंचना होता है और आपको तो पता है कि सुबह-सुबह कितनी भाग दौड़ हो जाती है..टिफिन के साथ-साथ दोपहर के खाने का काम और ऊपर से बर्तन..थोड़ा मुश्किल हो जाएगा”। 

शुभांगी के तर्कों के आगे भी निर्मला जी नहीं मानी। देवेश से बात करने पर वह बोला,” जैसा मां चाहती है वैसा कर दो..थोड़े से बर्तनों में क्या फर्क पड़ता है.. बाकी तो मां और राधा काम संभाल ही रही हैं “।

देवेश से ऐसे उत्तर कि शुभांगी को बिल्कुल उम्मीद नहीं थी।अपने मन की बात वह किसको जाकर बताती। बहुत बार उसका मन करता कि अपने मन की बात अपने पिता या भाई को बताए पर वह उनकी परेशानी को और नहीं बढ़ाना चाहती थी।जानती थी कि उसके पिता मुश्किल से ही मां के सदमे से बाहर निकले हैं। उस समय शुभांगी को अपनी मां की खूब याद आती.. कैसे वह उनकी लाडली थी और मां उसे कितने प्यार से रखा करती थी।

खैर, शुभांगी ने बर्तन मांजना शुरू कर दिया। सुबह-सुबह की भाग दौड़ में कई बार वो अपना नाश्ता नहीं कर पाती और मेट्रो में जाकर नाश्ता करती और अगर वहां भी सीट न मिले तो वह भी रह जाता।दफ्तर पहुंचकर भी पचासों काम सर पर खड़े होते।इसी बीच देवेश ने एक और फ्लैट देख लिया था और उसने शुभांगी से बड़े प्यार से उसकी किस्तें भरने के लिए राज़ी कर लिया था। शुभांगी भी मान गई थी यह सोचकर कि एक दूसरे के साथ से ही नई प्रॉपर्टी खरीदी जा सकती है।उन दिनों में निर्मला जी का व्यवहार भी उसके प्रति थोड़ा नरम हो गया था पर शुभांगी इन सब बातों को कभी समझ नहीं पाई वह तो अपना घर समझ कर ही सब कुछ कर रही थी। 

कुछ समय और बीता तो देवेश ने शुभांगी से घर के खर्चो के लिए पैसे मांगने शुरू कर दिए। शुभांगी मना नहीं करती पर एक दिन उसने पूछ लिया,” देवेश, मैं नए घर की किस्तें भी भर रही हूं..मेरी तनख्वाह से अगर सारे पैसे निकाल लिए जाएंगे तो मेरे पास क्या बचेगा”।

“तुम्हें पैसों की क्या ज़रूरत है….घर से खाना पानी तो मिल ही रहा है ना”।

“फिर भी कुछ पैसे तो मेरे पास भी होने चाहिए.. ऐसा क्यों नहीं करते की किस्तें अगर मैं भरूं और घर के खर्च तुम अपने तनख्वाह से कर लिया करो तो इससे कुछ पैसे मेरे पास भी बच जाया करेंगे”। 

शुभांगी की इस बात को सुनकर देवेश ने खूब हो हल्ला मचाया और उसका साथ निर्मला जी और सुधाकर जी ने भी दिया।शुभांगी उनकी नीयत देखकर हैरान रह गई।वह समझ नहीं पा रही थी कि वो इस घर के लिए क्या है.. एक बहू या पैसे कमाने की मशीन या फिर एक कामवाली बाई जो कि दफ्तर से पैसा भी कमा कर लाए और घर के उनके काम भी करे।काव्या आती तो उसके लिए निर्मला जी खूब पैसे लुटाती..उसके जाने पर उसे कपड़ों और खाने पीने के समान से भर देती और इधर शुभांगी को इन दो सालों में निर्मला जी ने कभी एक सूट भी खरीद कर नहीं दिया था।बाकी दिनों की तो छोड़ो कभी उसके जन्मदिन या विवाह की वर्षगांठ पर भी उसे एक कोरी बधाई के इलावा कुछ नहीं मिला ना पति से ना ही सास ससुर से।हां.. भाई और पिता बड़े प्यार से उसके लिए  खूब तोहफे लाते  पर उन्हें देखकर भी सास का मुंह ही बना रहता। शुभांगी को ऐसा लगता कि वह किस जाल में फंस गई है ना तो वह अपने पिता से बात कर सकती है और इधर पति तो कुछ सुनने के लिए राज़ी ही नहीं था। 

कुछ दिनों में पता चला कि शुभांगी मां बनने वाली है। इस खबर से उसके लिए एक नई उम्मीद की किरण जागी.. लगा कि शायद बच्चे के आगमन से इन लोगों का कुछ दिल पिघल जाए पर नहीं.. निर्मला जी उसकी इस हालत में भी उस बर्तन मंजवाती रही।शाम को दफ्तर से आकर वह रात के खाने की तैयारी करती और फिर खाने के बाद बर्तन साफ करने पर उसकी हालत पस्त हो जाती। 

शुभांगी बहुत बार मन ही मन सोचती.. क्या इन लोगों को कभी डर नहीं लगता  कि आज यह मुझे तंग कर रहे हैं तो कल को अगर काव्या को किसी ने तंग किया तो क्या यह बर्दाश्त कर पाएंगे।हालांकि वह मन से बिल्कुल नहीं चाहती थी की काव्या को कोई परेशानी हो पर ससुराल वालों का व्यवहार उसे ऐसा सोचने पर मजबूर कर देता।शुभांगी के प्रति सबकी ज्यादतियां बढ़ती जा रही थी।

खैर, कुछ महीनों बाद उसने प्यारे से बेटे को जन्म दिया।देवेश और माता-पिता ने थोड़ी सी खुशी तो ज़ाहिर की पर सिर्फ लोगों के सामने।एक फंक्शन भी रखा और लोगों के सामने खूब बधाइयां ली और दी गई पर शुभांगी.. उससे तो खुशी से एक बार भी किसी ने प्यार से बात तक नहीं की।ससुराल वालों की ऐसी बेरुखी अब शुभांगी  की बर्दाश्त से बाहर थी। 

दफ्तर से भी उसने मैटरनिटी लीव ले रखी थी।बच्चे को संभालते..घर का काम करते सारा दिन बीत जाता पर उसकी हालत देख कर भी सास ससुर का दिल नहीं पसीजता।अपना पति भी अपना कहां था..एक तरफ बच्चे को देखती तो दूसरी तरफ बर्तन मांजती। 

इन तीन सालों में वह क्या से क्या बन गई थी। एक दिन देवेश से किसी बात पर झगड़ा हुआ तो देवेश ने उसके भाई को फोन मिलाकर सारी बातें उगल दी।भाई दौड़ता हुआ आया और उसे अपने साथ चलने के लिए कहा पर शुभांगी नहीं मानी उसे शायद अभी भी उम्मीद थी कि कहीं ना कुछ कुछ अच्छा हो जाएगा पर उसकी उम्मीद सारी धरी की धरी रह गई जब एक दिन  देवेश ने उसे घर छोड़कर जाने के लिए कह दिया। 

घर छोड़कर जाना.. इस बात को लेकर सुनकर शुभांगी हैरान  सी रह गई..कैसे कह सकता है यह इंसान मुझे घर छोड़कर जाने को..अपने बच्चे के बारे में भी इसने एक पल के लिए नहीं सोचा पर अब शुभांगी अपनी और बच्चे की ज़िंदगी खराब नहीं करना चाहती थी। उस इंसान के साथ रहने का क्या फायदा जिसे बीवी और बच्चे की रत्ती भर कदर नहीं थी।

शुभांगी ने भाई को फोन किया और वह कुछ घंटे में उसे लेने आ पहुंचा।किसी ने एक बार भी शुभांगी को रोकने की कोशिश नहीं की।भाई और पिता ने दोनों हाथों से शुभांगी को सहारा दिया और भाई ने कहा,” अब तू उस घर में वापिस कभी नहीं जाएगी..मैं बैठा हूं ना..तुझे पहले ही सब कुछ बताना चाहिए था.. इतना सहने की क्या ज़रूरत थी..इतनी पढ़ी-लिखी होकर उन जाहिलों की सेवा करती रही.. नौकरों की तरह काम किया..क्या ज़रूरत थी..तेरे मायके में कोई नहीं है क्या..एक बार मुड़ कर देख तेरे पीछे खड़ा हूं और हमेशा रहूंगा”।भाई की बात और शुभांगी फूट-फूट कर रोई..कितने ही दिन लग गए उसे संभलने में। 

कुछ महीने बीतने पर भी ना ही कभी देवेश का फोन आया ना सास ससुर का।भाई के कहने पर शुभांगी ने तलाक की अर्जी़ दे दी।पार्थ के एक वकील दोस्त की मदद से नया लिया हुआ फ्लैट भी शुभांगी के नाम कर दिया गया था जिसकी वह किस्तें भरती आई थी और आगे भी भरने को तैयार थी।फिर कुछ महीनों बाद पता चला कि काव्या को उसके ससुराल वालों ने वापिस भेज दिया है क्योंकि उसके बेमतलब के खर्चों और उसकी बदतमीजी से वह शुरू से ही तंग थे पर हर बार वह समझौता कर लेते और उसे थोड़ा वक्त देते.. इसी उम्मीद में कि शायद कुछ संभल जाए।काव्या के ससुराल वालों ने शुभांगी को भी फोन कर बोला कि उसने बहुत अच्छा किया जो उन जैसे लालची और हृदय विहीन लोगों का से पीछा छुड़ा लिया।शुभांगी सोचती कि काव्या अगर वक्त रहते ही संभाल जाती तो ऐसा कभी ना होता.. ऐसा तो वैसे किसी भी बेटी के साथ नहीं होना चाहिए था।

कुछ महीने बाद शुभांगी ने फिर से अपनी नौकरी ज्वाइन कर ली थी। घर में एक आया रख ली थी जो बेटे को संभालती..पिता और आया की देखरेख में बच्चा पल रहा था।शुभांगी अब निश्चित होकर दफ्तर जाती पर अक्सर सोचती कि देवेश कैसा बाप है जिसने एक बार भी अपने बेटे से इतनी महीनों में मिलने की कोशिश नहीं की. ना ही कभी फोन कर उसका हाल-चाल जानना चाहा। 

एक दिन शुभांगी और उसके भाई को बाज़ार में निर्मला जी और काव्या नज़र आए।दोनों मां बेटी के चेहरे सूख कर पीले पड़ चुके थे.. बिल्कुल वैसे जैसे कभी शुभांगी का हुआ करता था।ऐसा लग रहा था जैसे वक्त की मार ने उनके  चेहरे की सारी रंगत छीन ली हो।अपनी बेटी के दुख से निर्मला जी बेजान  सी मूर्ति लग रही थी। दूसरों की बेटी को दुख देते वक्त इंसान यह नहीं सोचता कि अपनी बेटी का दुख उन्हें कैसे अंदर से तोड़ कर रख देगा। 

दोनों शुभांगी से नज़रें चुरा रही थी और शुभांगी एक आत्मनिर्भर महिला की तरह आत्मविश्वास से परिपूर्ण अपने भाई के साथ खड़ी उन्हें देख रही थी और सोच रही थी कि शायद बड़े बुजुर्गों ने ठीक ही कहा है कि वक्त की मार से डरना चाहिए।आज इस बात का सीधा-साधा प्रमाण उसकी सास और ननद के रूप में उसके सामने खड़ा था।शुभांगी ने एक सरसरी निगाह उनकी तरफ डाली और सधे कदमों से अपने भाई के साथ आगे निकल गई।

दोस्तों आज भी कितने ही ऐसे लोग हैं जो बहू के दुख को बिल्कुल समझ नहीं पाते पर बेटियों के दुख से उन्हें बहुत तकलीफ होती है ।अगर बहू के दुख दर्द को भी बेटी के दुख दर्द की तरह ही समझा जाए तो घर टूटने से  समय रहते बचाया जा सकता है।धन्यवाद 🙏 

शीर्षक – अपनी बेटी का दुख

#स्वरचित 

#अप्रकाशित  

गीतू महाजन, 

नई दिल्ली।

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