अपने हुए पराए – अमिता कुचया : Moral Stories in Hindi

सरोज जी को औलाद न होने से सुंदर से लगाव हो गया था ,ससुर के समय से ही जब गिरधारी लाल चौकीदारी करता था। तब वह अपने बेटे को हवेली ले आता, क्योंकि उसकी पत्नी जन्म देते ही गुजर गयी, जिस कारण गिरधारी लाल हमेशा सुंदर को साथ रखता,तब सरोज बड़े ही प्यार से उसे कहती – आ गया लल्ला और वह मासूम मुस्कराहट से हां में सिर हिलाता,

थोड़ी सी देर खेलने लगता छोटे से उसे बड़ा दुलार करती जब भी मीठा बनाती तो सुंदर तेरे लिए मैंने आज हलवा बनाया वह भोग पहले भगवान् को लगाने के साथ उसे भी देती है। इस तरह दोनों का प्यार दिन पे दिन गहरा हो रहा कहीं चोट भी लग जाए तो सरोज परेशान होकर हल्दी चूना लगा देती।

और उससे कहती -किसने तुझे गिराया हठ करके मार दो वह भी भोलेपन किसी भी जगह पर हटकर देता और अगले पल वह खेलने लगता।इस तरह सुंदर उसके आंगन में बड़ा हो रहा था।बड़े होते देख सरोज गिरधारी से कहती – देख गिरधारी सुंदर ये मेरा ही बेटा है।

तू तो केवल नाम का पिता है। ये देख यहां कितना खुश रहता है। तब गिरधारी कहता- मालकिन मेरे बेटे को आप अपनी ममता लुटा रही है तो ये खुश रहेगा ही….ये मेरे लिए बहुत बड़ी बात है। इसकी सगी मां ना सही पर आप तो यशोदा मैया ही हो हमार लल्ला के लिए इससे ज्यादा हमें का चाही मालकिन….. 

ये सब सरोज जी के सास ससुर सब जानते थे। और सरोज छोटी बहू रही और सावित्री बड़ी बहू।सरोज के जेठ की वकालत दूसरे शहर में चल पड़ी थी।

वही बीबी बच्चों के साथ दूसरे शहर में रहता था। जबकि हरिप्रसाद गाँव की खेती बाड़ी पिता की जमींदारी संभालता था। वह ज्यादा न पढ़ न सका क्योंकि पढ़ने में हरिप्रसाद सरोज जी के पति की रुचि न थी। वह पिता के घर में उनका कामकाज संभालता था। 

 अब सास ससुर के गुजरते ही सावित्री को लगने लगा। कि देवर का सगा बेटा सुंदर तो है नहीं उसे क्या करना कुछ उसके नाम करके…. यही बीज वह अपने पति जमना प्रसाद में वह बो रही थी। 

अब सरोज के पास गिरधारी के बेटा सुंदर बड़ा हो गया,उसके पिता के निधन के पश्चात उसे अपने बेटे का दर्जा दिया, और उसका सरोजजी वो ने धूमधाम से विवाह किया,वह घर का बेटा बनकर उनकी सेवा करने लगा, पर यही बात सरोज के जेठ जमना प्रसाद जी को हजम ना हुई। उन्हें लगा कि कहीं घर का हिस्सा न मांग बैठे , इसी कारण वो दूसरे शहर से वकालत करने उसी घर में आ गये ।

 वही उसकी पत्नी सावित्री भी कम न थी । वो सुंदर और सुंदर की पत्नी के खिलाफ सरोज जी को भड़काने लगी। सुंदर की पत्नी रेखा हमेशा सरोज जी का पूरा काम करती थी। सरोज जी की उम्र भी कम ना थी। वो अस्वस्थ रहने के साथ घुटने के दर्द से परेशान ही रहती थी।

तो रेखा रोज सरोज के पैर की मालिश करती और रसोई संभालती ,यहाँ तक रसोई में क्या कितना है या नहीं है ये सब देखती। पूरी जिम्मेदारी से घर संभालती यही बात सावित्री को खलने लगी।

सरोज की जेठानी सावित्री जब ये देखती और तो वह कहती- छोटी मेरी भी मदद ले लिया कर । हम भी गैर न है, हमसे भी तेरा खून का रिश्ता है।

और वह सरोज को दवाई वगैरह सब देने लगती। और उसके आगे पीछे लगी रहती, हर चीज उठाने धरने में आगे रहती।अब उसकी नजर घर के कागजात पर थी। इधर जेठ जमना प्रसाद भी छोटे भाई को कहते – छोटे तुमने सुंदर को सिर चढ़ा रखा है।

और उसकी बीबी रेखा तो घर पर कब्जा करके बैठी है। उससे अपना खून का रिश्ता ना है,तब हरिप्रसाद जी कहते-” अब जो है मेरा यही बेटा सुंदर ही है,उसे किसी प्रकार का लालच न है। ” पूरे विश्वास से अपनी बात अपनी बड़े भाई से कही।

 तब जमना प्रसाद कुछ नहीं कह पाए। पर मन में मैल था ही ,उन्हें अपने बच्चों के नाम जायदाद करवानी थी। तो वो चाहते थे कि हरिप्रसाद किसी ना किसी तरह सुंदर को घर से अलग कर दे। ताकि छोटे की आंख में धूल झौंक सकूं। 

धीरे- धीरे शक का कीड़ा बोया जा रहा था। कभी सावित्री सरोज जी को कुछ समझाती, कभी बड़े भैया हरिप्रसाद के कान में जहर घोलते …. 

 जब कभी खाने पीने पर रेखा दवाब बनाकर सरोज को कुछ खाने पीने को कहती- ” देखो अम्मा ये दूध तो पीना ही पड़ेगा नहीं तो और शरीर की हड्डी कमजोर पड़ जाएगी।”

कभी फल काट कर के दे,तब सावित्री उसके कान भरकर कहती- ” बताओ तो सरोज अब रेखा की जुबान चलने लगी है। क्या वो आप पर हुक्म चलाएगी। उसकी ऐसी मजाल…. मैं तो आपकी जगह होती तो अच्छी खबर लेती। “

घर में खेती बाड़ी का हिसाब पिता के गुजरने के बाद वह बेटा बनकर हिसाब संभालता देख जमना प्रसाद जी  हरिप्रसाद से कहते – छोटे पराए खून पर इतना विश्वास सही नहीं…. वह सुनकर भी अनसुना कर जाते … 

अब तो जेठानी सावित्री की नजर उनकी तिजोरी पर रहने लगी। और तो और वह ताना देने से भी बाज नहीं आती। देखो तो सरोज ,, सुंदर और रेखा के भाग्य खुल गये। जो तुम जैसे लोग उन्हें ठगने मिल गये । अपने तो अपने होते है और पराए तो पराए होते हैं। 

यही बात अब सरोज को भी सही लगने लगी।

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 आखिर हो भी क्यों ना…जब देवरानी घर की चाबी हाथ में लेने लगे। जब भी कोई सामान मंगाना होता तो वही तिजोरी से पैसे निकाल कर देती।

रेखा बस सरोज का चेहरा देखती रह जाती और कुछ कह नहीं पाती उसे पता था कि सरोज जी उसके पति की सगी मां नहीं है।अब अधिकार से सावित्री हर सामान की उठा धरी करती जैसे रेखा और सुंदर कोई हो ही ना…. खैर

समय बीत रहा था….. 

अब क्या था। रेखा और सुंदर तो थे ही निशाने पर….. 

 धीरे- धीरे सरोज को भी रेखा और सुंदर खटकने लगे। एक दिन बातों- बातों में इशारा करके सावित्री ने कहा- देखो तो सुंदर का क्या है…उसका परिवार तो मजे से चल रहा है और एक हमारे बच्चे जो एक – एक पैसा के लिए तरस रहे हैं वे तो नौकरी में लगे हैं।

और एक ये सुंदर है जो उसे कही हाथ पैर न मारने पड़ रहे हैं। अब उसकी सारी जिंदगी तो मजे से निकलनी ही है। स्वाभिमानी रेखा ने सब सुन लिया तो उसने सुंदर से कहा- अब हम यहाँ नहीं रहेंगे, अब हमारी यहाँ जरुरत नहीं है।

फिर सुंदर ने भी बहुत बार ताने सुने तो उसने भी निश्चय किया वो ये घर छोड़कर चला जाएगा।कौन में अम्मा बाऊजी का सगा बेटा हूं।फिर सुंदर ने नयी नौकरी ढूंढी। वहां से निकल कर किराए के मकान में रहने लगा। 

कुछ दिनों के बाद ही…. 

 जमना प्रसाद ने जब छोटे भाई की जायदाद अपने बच्चों के नाम धोखे से करा ली।

अब उनका काम तो हो गया था। 

 तब एक दिन जेठ जेठानी भी कहने लगे,सरोज अब हम यहाँ न रहेगें, क्योंकि  यहाँ तुम्हारे जेठ जी की वकालत नहीं चल रही है। यह सुनकर सरोज ने कहा – क्या तुम लोग हम दोनों को अकेले छोड़कर चले जाओगे तो हम लोग कैसे रहेगें !

तब झूठी दिलासा देते हुए सावित्री बोली- हम हमेशा के लिए थोड़े ही जा रहे हैं। हम मिलने आते रहेंगे,और यहाँ खाना वाली और मालिश वाली लगा दी। वो देख लेगी। अब हमें न रोको। हमारे बच्चे भी दूसरे शहर में अकेले है। ये कहकर वे दोनों निकल लिए।

अब अकेले रहने के कारण सरोज ने घर के काम लंगड़ा – लंगड़ा कर जैसे तैसे करने लगी,एक दिन चलते -चलते उसका अचानक पैर मुड़ गया।तब तो उसने बिस्तर ही पकड़ लिया, अब वह उठने बैठने लायक भी न बची। उसे बेड रेस्ट कहा गया, इलाज का खर्च भी डाक्टर बहुत अधिक बताया,

जब इलाज के लिए घर बेचना चाहा, तब पता चला कि मकान तो भैयाा ने अपने बच्चों के नाम करा चुके है। तब तो उनके पैरों तले जमीन ही खींच ली हो उन्हें ऐसा लगा। दोनों दुखी हो आंसू बहाने लगे। उन्होंने भाई को फोन लगाया तब उनके बड़े भाई ने फोन ना उठाया। तब तो उनसे सारी उम्मीद ही खत्म हो गई। 

 उसी दिन अचानक पड़ोसी से  सुंदर और रेखा को पता चला कि अम्मा बिस्तर पर है, वह चल फिर नहीं पा रही है,

फिर दोनों मिलने तड़प उठे। जैसे ही अम्मा बिस्तर पर सुंदर और रेखा ने देखा तब वे दोनों कह पड़े – ये  क्या हो गयाअम्मा…!!हम अब तुम्हें छोड़कर इस हालत में कहीं नहीं जाएगें, हम वापस आ गए। उनकी आंखों में आंसू भर आए।  उन दोनों के आने से अंदर से हरिप्रसाद जी जैसे हिम्मत आ गयी। 

 दोनों दिन रात सरोज की सेवा में लगे रहने लगे। और फिर सरोज के जेवर बेचकर उसके पति हरिप्रसाद ने उसका इलाज  करवाया। इस तरह सरोज की हालत में सुधार आया। तब सरोज ने कहा- ” जब अपने रिश्ते ही पीठ पीछे वार करे तो क्या कहे। पर तुम लोग पराए होकर भी अपने निकले।

देखो रेखा यही तो रिश्तों का भंवर है, जिसमें विश्वास करना चाहिए ,उस पर हम विश्वास नहीं कर पाते हैं। हमें माफ़ कर दो मेरी कोई औलाद नहीं है, फिर भी तुम लोग ने अपनों से बढ़कर सेवा की, पर मैं तुम लोग से ज्यादा मैं खून के रिश्तों पर विश्वास कर बैठी और उन्होंने ही हमें जख्म दिए। वे तो विश्वास की डोर छोड़कर चले गए।

तब सुंदर कहने लगा-” काका काकी इतने स्वार्थी होगें।कभी सपने में ना सोचा था। वो तो हमारे खिलाफ जहर घोल रही थी, ये तो पता था।।पर जरूरत पर वो देखने तक ना आई। 

ऐसा सुनकर सरोज जी को रुलाई फूट पड़ी -अब से कभी छोड़कर हमें मत जाना।इतना सुनकर सुंदर ने कहा – अम्मा ये भी कहने वाली बात है।

वो दोनों वही बेटे बहू बनकर सरोज की सेवा करने लगे। और विश्वास की डोर पराए बेटे ने थामे रखी। जबकि खून के रिश्ते वाले भाई ने पीठ पीछे छुरा घोंपा। आज सरोज जी को एहसास हो रहा था अपनों से गैर भले। 

 इस तरह सुंदर और रेखा उनकी ताउम्र लाठी बने रहे। और उन्होंने भाई भाभी से रिश्ता ही खत्म कर लिया। 

स्वरचित मौलिक रचना

अमिता कुचया ✍️

# विश्वास की डोर

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