घंटी बजते ही मनीषा मैडम ने पर्स और रजिस्टर उठाया और क्लास रूम से बाहर निकल गई। दसवीं क्लास का साईंस का पीरियड खत्म होते ही आधी छुट्टी की घंटी भी बज जाती है।
तीस मिंट की छुट्टी में अध्यापक, बच्चे सब खाना वगैरह खाते है, कुछ बच्चे खेलते हैं तो कुछ उस समय अपना छूटा हुआ होमवर्क भी पूरा करते है।
रोहण भी इसी स्कूल का दसवीं का विद्यार्थी था।यह शहर का माना हुआ प्राईवेट स्कूल था जहां अमीरों के बच्चे ही पढ़ सकते थे क्यूकिं फीस ही इतनी ज्यादा थी। उपरी खर्चे भी जैसे वर्दी, कई प्रकार की और भी हाबिज क्लासिज़ चलती थी।
पढ़ाई में रोहण का मन कम ही लगता था। एक तो इतनी सुख सुविधाओं में पलने वाले बच्चे और आजकल तो अध्यापकों के पास भी वो अधिकार नहीं जो पुराने समय में होते थे।
वो समय और ही था जब कम नंबर आने पर, होम वर्क ना करने पर , गल्ती, शरारत करने पर पिटाई होना आम सी बात थी लोकिन आज वो सब लगभग बंद ही हो गया। क्या अच्छा था और क्या नहीं, ये अलग बात है, बात है रोहण की।
आजकल रोहण काफी अच्छे अंक ले रहा था। मनीषा मैडम काफी सालों से उसकी क्लास टीचर के साथ साथ साईंस टीचर भी थी। पिछले तिमाही टैस्ट में भी उसने बहुत अच्छे अंक प्राप्त किए। मुशकिल से पास होने वाला बच्चा अगर क्लास में तीसरे चौथे नं पर आएगा तो कुछ हैरानी तो होगी।
किसी और अध्यापक ने ध्यान दिया या नहीं लेकिन मनीषा ने बहुत ध्यान देना शुरू किया। एक और बात जो मनीषा को खटक रही थी वो ये थी कि वो किसी भी सवाल का उत्तर पूछने पर बहुत कम दे पाता। कई बार ब्लैक बोर्ड पर भी मनीषा बच्चों से कुछ लिखवाती , तो वो भी न लिख पाता।
पैपरों में बढ़िया अंक आते। वैसे तो करोना के समय से आन लाईन काम के साथ साथ पढ़ाई का भी चलन हो गया है, गूगल वगैरह से बहुत आसानी हो गई है, लेकिन स्कूल में मोबाईल न लाने की सख्त हिदायत थी।
गेट पर ही तलाशी होती और अगर गल्ती से कोई पकड़ा जाता तो वही पर जब्त कर लिया जाता और फिर घर वाले ही आकर बात करते।
मनीषा मैडम को रोहण पर पक्का शक था कि यह कुछ तो गड़बड़ करता है। पूछने पर इसे आता नहीं और लिखने में सब ठीक। बहुत बड़ा स्कूल,अध्यापकों के इलावा कितने ही कर्मचारी वहां कार्यरत थे।
सोहन नाम का एक हैल्पर लड़का भी स्कूल में चाय , पानी पिलाने के इलावा यहां वहां के काम जैसे कि कोई रजिस्टर , आर्डर बुक वगैरह पर साईन करवाने के इलावा कई काम करता था।
कुछ पढ़ा लिखा भी था। एक दिन बाजार में मनीषा मैडम ने रोहण और सोहन को इकटठे किसी रेस्तरां में देखा। मनीषा का माथा ठनका। रोहण की दोस्ती और सोहन के साथ।
कहां रोहण और कहां सोहन, कुछ तो गड़बड़ है। मिड टर्म परीक्षा चालू थी। जिस दिन रोहण का पैपर होता सोहन छुट्टी पर रहता, ये बात मनीषा ने नोट की।
पैपर से पहले तलाशी तो होती है कि बच्चे कोई पर्ची , मोबाईल वगैरह तो लेकर नहीं आए।पानी वगैरह पिलाने का इंतजाम भी अंदर ही होता है।डयूटियां बदलती रहती हैं तो मनीषा ने रोहण के और अध्यापकों को भी उस पर नजर रखने के लिए कह रखा था।
चांस की बात कि उस दिन रोहण की क्लास में होने वाले पैपर पर मनीषा की डयूटी थी।पैपर बंट चुके थे। रोहण कभी सिर झुकाकर लिखता कभी करवटें बदलता। आज तो वो उसे पकड़कर रहेगी, शायद पर्चियां लेकर आता होगा। लेकिन रोहण पकड़ा गया बहुत ही हल्के, छोटे से नए माडल के मोबाईल के साथ।
पता नहीं वो कैसे चालाकी से उसका प्रयोग करता था। प्रिसिंपल के आगे केस पहुँचा तो भेद कुछ यूं खुला कि सोहन के साथ साथ एक दो और सेवादार भी रोहण के साथ मिले हुए थे। तलाशी के बाद मोबाईल रोहण तक पहुंच जाता और सोहन घर से ही प्रशनों के उत्तर भेज देता।
आधुनिक तकनीक से अब तक अध्यापकों की आखों में धूल झोंकने वाले का कच्चा चिट्ठा खुल चुका था।पैसे के बल पर अपने साथी तैयार करना कोई बड़ी बात नहीं थी।
बच्चे के भविष्य की दुहाई देकर और सिफारशों से केस तो बंद हो गया लेकिन एक प्रशन पीछे छूट गया कि आने वाले समय में जबकि और भी नई तकनीके विकसित हो रही है, ज्ञाण कैसे मिलेगा।और नुक्सान भी अपना ही होगा। आधा अधूरा ज्ञाण मतलब अपना नुक्सान।
पाठकों , दोस्तों, इस कहानी से मेरा अभिप्राय यही है कि नई तकनीक लाभकारी भी है और खतरनाक भी। जरूरत है ध्यानपूर्वक प्रयोग करने की और बच्चों को बचपन में सही राह दिखाने की।
विमला गुगलानी
चंडीगढ़
कहावत- आंखों में धूल झोंकना।