अपमान का दंश –  प्रियंका मुदगिल

“भैया! सारे रिश्तेदार और पासपड़ोस के लोग हमारी आरती के बारे में तरह-तरह की बातें बना रहे हैं….  कहां तो हम  बिटिया के विवाह की कार्यों में लगे थे और कहां ये दुर्घटना हो गई…”” शकुंतलाजी अपने भाई पुरुषोत्तम जी से दुखी मन से कहने लगी।

“कुछ समझ नही आता ….किससे क्या कहूं….. क्या करूं..खुद को  बेहद लाचार महसूस कर रहा हूं मैं…ना जाने किसकी बुरी नजर मेरी बेटी की खुशियों को लग गई जो वो शादी के मंडप में बैठने की बजाए अस्पताल के बिस्तर पर लेटी है…”

कहते कहते पुरुषोत्तम जी की आंखों से निर्झर आंसू बहने लगे ।

कभी कभी इंसान खुद को इतना बेबस और लाचार महसूस करने लगता है कि वो चाहकर भी अपनों के लिए कुछ नहीं कर पाता।

और बेटी के शारीरिक कष्ट के साथ साथ लोगों की सांत्वना की आड़ में बोलती चुभती अपमानजनक बातें…उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि आरती की बिना किसी गलती के भी समाज के लोग उस पर कीचड़ उछालने में कोई कसर नहीं छोड़ रहा था।

आइए बढ़ते है कहानी के आगे की ओर

आरती,पुरुषोत्तम जी की जान उनकी इकलौती बेटी …जिसे उन्होंने अकेले ही संभाला…एक पिता के दायित्व को बखूबी निभाते हुए एक मां की भूमिका को भी संपूर्ण रूप से निभाया उन्होंने…

 आरती गौर वर्ण,तीखे नैन नक्श, बहुत शालीन और शांत स्वभाव की रही।घर पर उसे चाचा- चाची,दादा – दादी और बुआ का भी भरपूर स्नेह मिला।

 जब उसने कॉलेज जाना शुरू किया

तब दादाजी ने कहा,,”आरती बेटा..वैसे हमे तुम पर पूरा भरोसा है कि तुम कभी कोई गलत काम नहीं करेगी …लेकिन फिर भी मैं कहना चाहूंगा की हमारे खानदान की इस समाज में बहुत इज्जत है….ऐसा कोई काम मत करना की लोग हमपर उंगली उठाएं…”

” मुझपर विश्वास रखिए दादाजी….मैं हमेशा आपका मान रखूंगी”””

कॉलेज में आरती सिर्फ अपनी पढ़ाई से मतलब रखती।

उसकी कक्षा का एक लड़का रंजन आरती को मन ही मन पसंद करने लगा।

आरती चाहे क्लास क्लास में हो,कैंटीन में या फिर लाइब्रेरी में रंजन हर जगह उसका पीछा कर पहुंच जाता….और  आरती से किसी न किसी बहाने बात करने की कोशिश करता।


लेकिन आरती को रंजन में कोई रुचि नहीं थी 

पर इन सब बातो को आरती की सहेली मीता ने कई बार नोटिस किया।

 एक दिन मीता ,”आरती! मुझे लगता है की रंजन तुझे बहुत पसंद करता है…””

“चुप कर मीता.. तू अच्छे से जानती है कि मेरे लिए इन बातों का  कोई अर्थ नहीं …नाही मैं इन सब चक्करों में पड़ना चाहती हूं…मैं  ऐसा कोई काम नहीं करूंगी जिससे मेरे पापा और परिवार की इज्जत पर कोई उंगली उठाए…”

ये सब बाते रंजन ने भी सुन ली।

  एक दिन रंजन ने कैंटीन में आरती का हाथ पकड़कर कहा,””आरती! मुझे तुमसे बहुत जरूरी बात करनी है …..”

  लेकिन उसने गुस्से में रंजन से अपना हाथ छुड़ाकर कहा,” तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई मेरा हाथ पकड़ने की….”

” देखो आरती!   कॉलेज के पहले दिन से ही मैं तुम्हें बहुत पसंद करता हूं… दिन – रात बस तुम्हारा ख्याल मुझे रहता है …मैं तुमसे शादी करना चाहता हूं….””

 ” क्या फालतू की बातें कर रहे हो….? मुझे तुम्हें या तुम्हारे प्यार में कोई रुचि नहीं है…” गुस्से से चिल्लाई वो

” देखो आरती! जो मैं कह रहा हूं  चुपचाप से मान जाओ… वरना मुझे मनाने के और तरीके भी आते हैं….”

“” तुम मुझे धमकी दे रहे हो…  प्यार- व्यार की बजाय अपने कैरियर और भविष्य पर ध्यान दो और आगे से मेरे रास्ते फिर कभी मत आना..” ऐसा बोलकर आरती वहां से चली गई।

 रंजन उसकी बात सुनकर दुख और गुस्से से भर गया। साल खत्म होते-होते  आरती के दादाजी ने विवेक के साथ उसका रिश्ता तय कर दिया। धीरे-धीरे विवेक और आरती की फोन पर बातें होने लगी और दोनों बहुत जल्दी एक – दूसरे को जानने  समझने लगे  और बहुत अच्छे दोस्त बन गए।

 एक दिन जब आरती ने विवेक को रंजन के बारे में बताया तब रंजन ने कहा,” देखो आरती! अब हमारा रिश्ता इतना मजबूत हो चुका है इन सब बातों के लिए हमारे रिश्ते में कोई जगह नहीं है… मुझे तुम पर पूरा भरोसा है और वैसे भी कॉलेज में यह सब तो चलता ही रहता है इन बातों को इतना सीरियस लेना भी नहीं चाहिए ….तुम तो बस मेरी पत्नी बनकर मेरे घर आने की तैयारी करो…”

  विवेक की बातें सुनकर आरती खुद को बहुत ही सौभाग्यशाली मान रही थी कि उसे कितना खुले विचारोंवाला और समझनेवाला पति मिल रहा है। खुशी खुशी वह शादी की शॉपिंग में व्यस्त हो गई।


उधर रंजन को भी आरती की शादी के बारे में सब पता चल गया। पहले तो उसने विवेक को किसी न किसी तरीके से भड़काने की कोशिश की। लेकिन वहां भी उसके दाल नहीं गली तो उसके  मन में अलग ही विचार पनपने लगे।वो आरती का पीछा करने लगा।

 एक दिन आरती ,मीता के साथ साड़ियां और लहंगे खरीदने गई। रास्ते में  मीता ने कहा,” आरती! मेरे घर पर चलते हैं तू मुझे यह सब साड़ियां और लहंगे पहन कर दिखाना फिर उसी के हिसाब से हम आगे की शॉपिंग करते हैं वैसे भी घर पर मम्मी- पापा और भाई कोई भी नहीं है…”!

  दोनों सहेलियां  अपनी शॉपिंग देख रही थी कि तभी मीता के घर के दरवाजे पर दस्तक हुई। जैसे ही  उसने दरवाजा खोला तो रंजन उसे धक्का देते हुए घर के अंदर घुस गया।

“यह क्या बदतमीजी है रंजन…? तुम यहां क्या कर रहे हो…? निकलो मेरे घर से.” गुस्से में मीता चिल्लाई।

 उसकी आवाज सुनकर आरती बाहर आई।

 रंजन ने कहा,”” मैंने तुमसे कहा था ना आरती कि तुम सिर्फ मेरी हो…..मेरे अलावा किसी और की नहीं हो सकती.. चलो मेरे साथ हम शादी कर लेते हैं…”।

” देखो रंजन! मैं तुम्हें पहले भी समझा चुकी हूं और फिर से कह देती हूं …..मैं तुमसे प्यार नहीं करती.. तुम चुपचाप यहां से चले जाओ  वरना मैं चिल्लाकर यहां पर सबको इकट्ठा कर दूंगी…”

 अपने प्यार को अपने से दूर जाता देखकर रंजन आपे से बाहर हो गया और पहले से ही की गई प्लानिंग के साथ उसने चाकू निकालकर आरती के ऊपर दो तीन बार वार किया ।यह देख मीता जोरों से चिल्लाने लगी और बीचबचाव में उसे भी कुछ चोटें आई।

शोरशराबा सुनकर आसपास के लोग इकट्ठा होने लगे और उन्होंने रंजन को पकड़  उसे पुलिस के हवाले कर दिया। उधर मीता और आरती को हॉस्पिटल ले जाया गया। आरती के  घरवाले उसकी हालत देखकर हक्का बक्का रह गए जब मीता ने उन्हें सब बात बताई तो उनके पैरों तले जमीन निकल गई।आरती अस्पताल में अपनी जिंदगी से जंग लड़ रही थी और उसके घरवाले इस तकलीफ के  साथ-साथ और भी जंग लड़ रहे थे और वह जंग थी…. लोगों की अपमानजनक बातों की….

  अस्पताल में जो भी रिश्तेदार आता तो कभी कोई कहता 

“क्या पता आपकी बेटी भी उस लड़के को पसंद करती ही होगी…. कुछ चक्कर तो उसी का होगा… वरना उस लड़के को क्या पड़ी थी इतना सब करने की…””


 कभी कोई कहता,”” ताली एक हाथ से तो नहीं बजती है ना…. जरूर आरती ने भी अपनी तरफ से कुछ कदम तो बढ़ाए ही होंगे…”” और भी न जाने क्या-क्या 

पुरुषोत्तम जी ने अपनी बेटी का हमेशा साथ दिया

वो भी सबसे कहते,””हमें आपकी सांत्वना की जरूरत नहीं है .. हमें हमारी हालत पर छोड़ दीजिए… किसी का कोई हक नहीं है जो मेरी बेटी का इस तरह से अपमान करें..””।

 लेकिन कोई कहां तक और कितना लोगों की जुबान को बंद कर सकता है जब तक किसी व्यक्ति पर खुद पर न बीते तब  तक उसे दूसरों का  दर्द कहां दिखाई देता है। 

 पुरुषोत्तमजी और आरती के ऊपर एक पहाड़ और टूटा जब आरती के होने वाले ससुरालवालों ने शादी तोड़ने की बात की।लेकिन विवेक ने पूरे परिवार के सामने अपना फैसला सुनाया कि “चाहे कोई कुछ भी कहे मेरी पत्नी सिर्फ आरती ही बनेगी मुझे पूरा भरोसा है कि इन सब चीजों में उसकी कोई गलती नहीं… शादी करूंगा तो सिर्फ उसी से वरना जिंदगीभर कुंवारा रहूंगा….”।

 अस्पताल में भी विवेक, आरती और उसके परिवार के साथ हमेशा खड़ा रहा

लेकिन चाहे आरती और उसके घरवालों ने कितनी भी हिम्मत दिखाई हो.. लोगों ने उसके चरित्र पर उंगलियां उठाना शुरू कर दिया। और कोई भी  लड़की अपने चरित्र पर उंगली कभी बर्दाश्त नहीं कर सकती। ना जाने क्यों लोगों की बातें उसके मन मस्तिष्क पर इस तरह से हावी हो गई कि सही होते हुए भी आरती इस अपमान के दंश को बर्दाश्त नहीं कर पाई और अपनी जिंदगी से जंग हार गई।

 लेकिन जाते-जाते वह मेरे मन में और सबके लिए एक सवाल जरूर छोड़ गई कि लोग,ये समाज  इतना निष्ठुर कैसे हो सकता है कि उन्हें यह भी ना पता चले कि उनकी कड़वी बातों का किसी की जिंदगी पर क्या असर होता है…  क्यों हम किसी को भी बिना जाने उसके चरित्र पर उंगली उठा देते हैं…? क्या गलती थी आरती की..? अगर वह सच में गलत होती तो क्या वह विवेक से भागकर शादी नहीं कर सकती…? क्या जरूरत थी उसे चाकू की मार सहने की …लोगों की अपमानभरी बातें सहने की..? वह भी रंजन के साथ शादी करके खुशी से जीवन बिता सकती थी लेकिन उसे अपनी और अपने परिवार की इज्जत अच्छे से पता थी । फिर भी उसे इतने अपमान का दंश  क्यों झेलना पड़ा..?

  प्रिय पाठकगण! मेरी ये स्वरचित कहानी सच्ची घटना और कुछ मेरी कल्पना का मिश्रण है ।अगर मेरे इन सवालों का जवाब आप सबके पास हो तो कृपया मुझे जरूर कहें।अगर किसी को ठेस पहुंची  हो तो उसके  लिए मैं क्षमाप्रार्थी हूं।

@स्वरचित एवम् मौलिक

 

आपकी दोस्त

 प्रियंका मुदगिल

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