अनजाने रास्ते (भाग-4) – अंशु श्री सक्सेना : Moral Stories in Hindi

Moral Stories in Hindi :

रक्षाबंधन का दिन था। अमित भैया ने पापा के समक्ष अपनी लाडली बहन को फ़िल्म दिखाने का प्रस्ताव रखा और बोले,

“पापा, आज मैं और वैदेही फ़िल्म देख आते हैं और डिनर भी बाहर करके लौटेंगे”

वैदेही का मुरझाया चेहरा देखकर पापा ने सहर्ष अनुमति दे दी।पिक्चर हॉल में पहुँचने पर भीड़ में एक चेहरे पर वैदेही की नज़रें टिक गईं। उसके ठीक पीछे की सीट पर अयान बैठा था। वह अपने हॉस्टल के दोस्तों के साथ फ़िल्म देखने आया हुआ था। वैदेही से नज़रें मिलते ही उसकी निस्तेज सी आँखों में चमक आ गई। फ़िल्म देखने के दौरान अपनी पीठ पर एक जोड़ी आँखें चिपकी हुई सी महसूस कीं वैदेही ने।

इंटरवल में रेस्टरूम जाने के बहाने वैदेही हॉल से बाहर निकली। वह गलियारे की ओर बढ़ ही रही थी कि अयान ने पीछे से उसका हाथ पकड़ लिया और उसके कानों में फुसफुसाते हुए बोला,

“कितने दिनों बाद तुम्हें देख रहा हूँ…मन कर रहा है इसी वक़्त तुम्हें साथ लेकर कहीं भाग जाऊँ…तुम सोच भी नही सकतीं कि मैं तुम्हारे लिए कितना तड़प रहा हूँ”

“यहाँ तमाशा मत करो अयान…मुझे प्यार की नुमाइश पसंद नहीं”

कहकर वैदेही ने अपना हाथ छुड़ाने की असफल कोशिश की।

“पर मुझे तो पसंद है, तुमने वो गाना नहीं सुना…प्यार किया तो डरना क्या?”

कहते हुए वैदेही के हाथों पर अयान की पकड़ और मज़बूत हो गई।

“तुम समझते क्यों नहीं अयान, कितनी मुश्किल से मेरे घर पर चीज़ें अब सामान्य हो रही हैं…मैं अपने माँ, पापा को कोई दुख नहीं पहुँचाना चाहती…बेहतर यही होगा कि हम अपने रास्ते अलग कर लें क्योंकि मुझे लगता है कि हमारा एक साथ कोई भविष्य नहीं है…तुम मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो प्लीज़”

कहते हुए वैदेही की आँखों से आँसू बाँध तोड़ कर छलकने को आतुर हो उठे।

“प्लीज़ ऐसा मत कहो…मैं तुम्हारे बिना नहीं जी सकता, मैंने सारा प्लान बना लिया है”

अयान लगभग गिड़गिड़ाते हुए बोला।

“ऐसा कौन सा प्लान बना लिया है तुमने?”

वैदेही, न चाहते हुए भी अनायास ही पूछ बैठी।

“मैंने अपने चाचू से बात कर ली है, वे दिल्ली यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर हैं, हम दिल्ली चले चलेंगे, अपने चाचू के अंडर में रिसर्च करेंगे…हम दोनों को ही स्कॉलरशिप मिल जाएगी जिससे हमारा गुज़ारा चल जाएगा”

अयान की आवाज़ में आत्मविश्वास झलक रहा था।

“मुझे कहीं नहीं जाना है अयान, मैं अपने माँ, पापा के दुखों की ज़मीन पर अपने सपनों के महल नहीं खड़े करने हैं”

कहते हुए वैदेही ने अपना हाथ छुड़ाया और रेस्टरूम की ओर बढ़ गई।

“तो फिर तुम भी सुन लो, मेरी मौत की ज़िम्मेदार तुम होगी, केवल तुम”

पीछे से अयान के मुँह से निकले ये शब्द, वैदेही के कानों में पिघले सीसे की तरह उतर गये।

रेस्टरूम से वापस आने पर उसे अयान कहीं भी दिखाई नहीं दिया। फिर इंटरवल के बाद की फ़िल्म में वैदेही का मन नहीं लगा और वह बस अनमनी सी बैठी रही। उसके मन मस्तिष्क में अयान के शब्द शोर मचाते रहे, “मेरी मौत की ज़िम्मेदार तुम होगी, केवल तुम”

वैदेही के पीछे वाली कुर्सी इंटरवल के बाद ख़ाली रही।

डिनर पर भी उससे कुछ खाया न गया। अमित भैया ने पूछा भी,

“ क्या बात है सिस, किस उधेड़बुन में हो? बहुत देर से देख रहा हूँ, न जाने कहाँ खोई खोई सी हो।यदि कोई परेशानी है तो मुझे बता सकती हो”

“कुछ नहीं भैया, बस पिक्चर ज़रा बोरिंग लगी तो सिर दुख रहा है मेरा”

वैदेही ने सकपकाते हुए कहा, जैसे उसकी चोरी पकड़ ली गई हो।

उस रात वैदेही एक पल को भी सो न सकी। वह सोचती रही,

“अयान का क़ुसूर क्या है? यही न कि वह मुझसे बहुत प्यार करता है, इतना कि वह मेरे लिए अपनी जान से भी खेलने को तैयार है…सच्चा प्रेम पाने के लिए तो लोग अपनी जान की बाज़ी लगा देते हैं, अयान का प्रेम तो सच्चा है परन्तु क्या मेरा प्रेम खोखला और सतही है जो मैं अयान को भूलने को तैयार बैठी हूँ? ठीक है, मुझे माँ, पापा की भावनाओं का ख़्याल रखना चाहिए परन्तु अयान की भावनाओं का ख़्याल रखने की ज़िम्मेदारी भी तो मेरी है…क्या करूँ ? अयान के साथ दिल्ली चली जाऊँ?”

वह रात यूँ ही आँखों में कटी थी। भोर के गले में बाँहें डाले सूरज, रात की कोठरी से बाहर निकल आया। नन्हे नन्हे धूप के टुकड़े कमरे की खिड़की से भीतर कूदकर कलाबाज़ियाँ खा रहे थे। बिलकुल किसी निरंकुश, उन्मुक्त, बेपरवाह से शैतान बच्चे की तरह।

सुबह का वातावरण वैदेही के उदास और निस्तेज से पड़े मन में नई ऊर्जा का संचार करने लगा। धूप के नन्हें टुकड़ों से जीने का नया मंत्र सीख, वैदेही ने गहरी साँस ली।

नाश्ते की टेबल पर रोज़ की तरह सन्नाटा पसरा था, केवल चम्मचों और काँटों की आवाज़ें प्लेट के साथ सुर ताल मिला रही थीं। पापा को बिलकुल पसंद नहीं था कि खाते समय कोई बात की जाए। वैदेही ने जूस का एक घूँट लिया और बोली,

“मुझे आप लोगों से कुछ बात करनी है”

माँ और अमित भैया के हाथ मुँह तक आते आते रुक गये। पापा ने उड़ती हुई सी निगाह वैदेही पर डाली और गम्भीर स्वर में बोले,

“खाते समय कोई बात नहीं…क्या तुम इस घर के क़ायदे भूल गईं?”

“मैं कुछ भूली नहीं पापा, परन्तु अब मैं क़ायदों के दायरे से बाहर निकलना चाहती हूँ…मुझे आप लोगों को बहुत ज़रूरी बात बतानी है, एम. एस. सी. के बाद अब मैं दिल्ली जाकर रिसर्च करना चाहती हूँ, दिल्ली यूनिवर्सिटी से रिसर्च करना मेरे भविष्य और कैरियर के लिए अधिक फ़ायदेमंद रहेगा”

वैदेही ने सपाट स्वर में अपनी बात रखी।

“तू सीधी तरह से क्यों नहीं कहती कि तुझे दिल्ली जाकर उस मुसलमान लड़के के संग रंगरेलियाँ मनानी हैं”

माँ का स्वर ग़ुस्से में ऊँचा हो गया। पापा भी चीख़ते हुए बोले,

“मेरे घर में रह कर यह अनुशासनहीनता नहीं चलेगी…तुम कहीं नहीं जाओगी, यहीँ लखनऊ में रह कर रिसर्च करोगी…यहाँ भी तुम्हारे भविष्य के लिए उतनी ही अच्छी सम्भावनाएँ हैं जितनी कि दिल्ली में…तुम्हारी माँ सही कहती है, तुम यह सब उस लड़के से मिलने के लिए कर रही हो”

“पापा, एक बार वैदेही की बात पर शांति से ग़ौर तो कल लीजिए, ग़ुस्से में चीख़ना चिल्लाना कहाँ की समझदारी है?”

अमित भैया ने पापा को समझाने और शांत कराने की कोशिश की।

“नहीं भैया, रहने दीजिए…हाँ आप दोनों सही समझ रहे हैं, मैं अयान के साथ ही दिल्ली जा रही हूँ, आप लोगों के बारे में ही सोचकर मैंने अपने मन को समझाने की बहुत कोशिश की, पर माँ…पापा, सच तो यह है कि मैं अयान से बहुत प्यार करती हूँ और उसके बिना नहीं रह सकती, मेरा भविष्य केवल अयान के साथ है किसी और के साथ नहीं”

कहते कहते वैदेही सिसक पड़ी । यह सुनते ही उसके पापा और माँ पर जैसे घड़ों पानी पड़ गया।पापा निढाल से कुर्सी पर बैठ गये।

“ठीक निर्णय लिया है बिटिया तुमने, तुम वयस्क हो, तुम्हारी अपनी ज़िन्दगी है जिसके अच्छे बुरे सभी फ़ैसले करने का तुम्हें पूरा अधिकार है, तुम जाओ और अपनी ज़िन्दगी में ख़ुश रहो…परन्तु बिटिया, एक विनती है…यहाँ से जाने के बाद तुम इस घर में दोबारा क़दम मत रखना”

वैदेही के पापा की आवाज़ जैसे किसी गहरे कुएँ से आ रही थी।

“ये आप क्या कह रहे हैं पापा? ऐसे कोई बेटी को जाने के लिए कहता है?इस घर पर वैदेही का भी उतना ही हक़ है जितना कि मेरा”

अमित भैया ने तुरन्त प्रतिवाद किया।

“नहीं, यह घर मेरा है और जब तक मैं ज़िन्दा हूँ, मेरा ही रहेगा” पापा के इस छोटे से वाक्य ने जैसे सब कुछ ख़त्म कर दिया।

“मैं आज और अभी ही जा रही हूँ और मैं भी आपकी ही बेटी हूँ पापा, आपका गुरूर, आपकी ज़िद, मुझे विरासत में मिली है…इसलिए अब आपके घर में मैं दोबारा नहीं लौटूँगी”

कह कर वैदेही उठ खड़ी हुई। माँ चुपचाप बैठी वैदेही को देखती रहीं। जैसे पत्थर की मूरत बन गई हों। उनके मन में भावनाओं का ज्वार उठ रहा था…परन्तु वे क्या कहें और किससे कहें ? अपने सरकारी अफ़सर पति के ख़िलाफ़ बोलना तो जैसे उन्होंने सीखा ही नहीं था। प्रोफ़ेसर होने के नाते उन्हें अपनी परवरिश पर गर्व था। उन्हें सदा यही लगता था कि उनके बच्चे कोई भी ऐसा कार्य नहीं करेंगे जिससे उन्हें समाज में लज्जित होना पड़े । वैदेही…कल तक उनका अभिमान थी, जिसकी बलैयाँ लेतीं वे नहीं थकती थीं, आज एक दूसरी जाति के लड़के के लिए उनकी ममता, उनकी बरसों की मेहनत और उनकी परवरिश सभी पर प्रश्नचिन्ह लगा बैठी है।

वे वैदेही को अपना सामान समेटते देखती रहीं फिर उसके पास आकर धीमे स्वर में बोलीं,

“यह क्या पागलपन है बेटा…ऐसे कोई ग़ुस्से में अपना घर छोड़ कर जाता है? तुम उस लड़के के लिए सबकुछ छोड़ने को तैयार हो, परन्तु क्या तुमने अपने भविष्य के बारे में भली-भाँति सोच लिया है? हमारे संस्कार अलग हैं, विचार अलग हैं, परम्पराएँ अलग हैं…यह विवाह तुम कैसे निभा पाओगी?”

“मेरी चिन्ता मत करो माँ, तुम केवल अपना पत्नी धर्म निभाओ”

कहते हुए वैदेही ने अपना सूटकेस बंद किया, पापा और अमित भैया पर एक उड़ती हुई सी नज़र डाली और घर से बाहर निकल गई।

क्रमश:

अंशु श्री सक्सेना

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