‘दीदी, समझ में नहीं आ रहा, कैसे कहूँ, अब तुम ही माँ को संभालो ।’ लक्ष्य की बातों में तल्खी थी। ‘क्या हुआ उन्हें ? अभी कल ही तो मेरी बात हुई है उनसे, तब तो ठीक थीं, मैंने पूछा ‘अरे, उन्हें कुछ नहीं हुआ, उन्होंने तो हम
लोगों का जीना हराम कर दिया है, मम्मी की इश्क-मिजाजी से तंग आ गया हूँ, लक्ष्य ने कहा तो मैं चीख उठी, ‘लकी…, जवान संभाल कर … क्या बक रहे हो?”
‘हाँ जी ! सही कह रहा हूँ, आजकल कोई देवास नाम के सज्जन हैं, मम्मी उन्हीं के साथ घूम रही हैं, हर दिन सैर-सपाटे के लिए सुबह ही चली जाती हैं और शाम तक वापसी होती है । ‘ ‘चुप रहो’, मैंने क्रोध में कहा तो वह बोला ‘मुझे तो चुप कर दोगी, मगर मोहल्ले में जो कानाफूसी हो रही है, उसका क्या करोगी? में मानसिक रूप से कितना परेशान हूँ, यह तुम दिल्ली में बैठकर महसूस नहीं कर सकती।’ इतना कहकर उसने फोन काट दिया। सुनकर में बेचैन हो उठी, यह लक्ष्य क्या कह रहा है? माँ ने कितनी मुसीबतों से हमें पाला है। वह सब भूल गया, पापा के जाने के बाद माँ ने किस तरह हम दोनों भाई-बहनों की अकेले ही परवरिश की। उन्होंने कितने कष्ट सहे, वह सब मुझे एक-एक कर याद आने लगे… |
जब पापा की सड़क दुर्घटना में मृत्यु हुई थी, उस वक्त में कक्षा नौ में पढ़ रही थी और लक्ष्य सातवीं का छात्र था। ताऊ जी ने पूरा बिजनेस हड़प कर मम्मी को यह कह कर अलग कर दिया कि ‘विजनेस रोज कुँआ खोद कर पानी निकालने जैसा होता है। इसमें कोई तय आमदनी नहीं होती कि बँटवारा किया जाए। मैं दिन-रात खटता रहूँ और सब मजे करें, यह मैं नहीं कर सकूँगा।’ इस तरह मम्मी को उस बड़े से घर में एक कमरा दे कर ताऊ ने कर्तव्य की इतिश्री कर ली।
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मम्मी ने एक प्राइवेट स्कूल में नौकरी कर ली, जिससे हम दोनों की पढ़ाई निःशुल्क हो गई। मगर राह अभी भी कठिन थी । मम्मी को स्कूल के लिए तैयार होकर निकलने पर ताई जी का कटाक्ष पिटारा खुल जाता हार कर मम्मी ने घर छोड़ दिया। वक्त चाहे अच्छा हो या बुरा, कभी रुकता नहीं, सो हमारा वक्त भी गुजर गया। मम्मी की सहेली निकिता ने अपने बेटे ईशान के लिए मेरा हाथ माँग लिया और में शादी के बाद दिल्ली आ गई।
अब तो लक्ष्य की भी शादी रुचिता से हो चुकी है। सब कुछ सही चल रहा था, मगर आज लक्ष्य ने अपने शब्दों से उथल- पुथल मचा दिया। पूरा दिन इसी उलझन में बीत गया। शाम को जव ईशान ऑफिस से आये तो मुझे उदास देखकर पूछा, ‘क्या हुआ ?’ मैंने कहा, ‘कुछ नहीं, मम्मी की तबीयत खराब है।’ ‘अरे, तो इसमें परेशान
होने की क्या बात है? तुम ऐसा करो… दो-चार दिन के लिए लखनऊ हो आओ । युवान और विवान को भी अच्छा लगेगा। मैं शनिवार को आऊँगा तो तुम लोगों को वापस ले आऊँगा।’ सुनकर मन कुछ हल्का हुआ और मैंने लखनऊ जाने की तैयारी शुरू कर दी ।। ट्रेन जैसे ही चारबाग रेलवे स्टेशन पहुँची, युवान और विवान मामा-मामा कह दरवाजे की ओर दौड़ पड़े। लक्ष्य ने भी हमें देख लिया था। बोगी के भीतर आकर सामान खींचते हुए पूछा, ‘दीदी, जीजाजी नहीं आये?” मैंने कहा, ‘हाँ, वे अगले शनिवार को आयेंगे और हम सभी इतवार को वापस होंगे, साथ आते तो दो दिन में ही लौटना पड़ता।’ ‘हाँ, यह तो ठीक है, ‘ कहते हुए हम ट्रेन से बाहर निकलने लगे।
प्लेटफार्म के बाहर आकर कार में बैठते हुए पूछा, ‘घर में सब ठीक तो है?’ ‘हाँ, दीदी सब कुछ सही है, बस, मम्मी को क्या कहूँ…?” से आगे उसने कुछ और कहना चाहा। मैंने युवान और विवान की ओर इशारा कर उसे चुप रहने को कहा। मैं नहीं चाहती थी कि लक्ष्य बच्चों के सामने माँ के लिए अपशब्द बोले, हालाँकि वे दोनों चिप्स खाते हुए खिड़की के बाहर देखने में मस्त थे ।
कार की हार्न सुनते ही रुचिता बाहर आई और प्रणाम करते हुए पूछा, ‘दीदी ! जीजा जी कहाँ हैं?” मैंने फिर से वही उत्तर दोहरा दिया । सुन कर रूचिता ने कहा, ‘तव ठीक है। एक हफ्ते तक आप भी लैला-मजनू का लाइव टेलीकास्ट देख लीजिएगा । ‘ सुनकर मैं चुप ही रही। जाहिर था कि मेरे बोलने से बात का बतंगड़ हो जाता और मैं कोई हंगामा नहीं चाहती थी। बच्चे भतीजी चारू के साथ कुछ ही सेकंड में ही धमाचौकड़ी मचाने लगे ।
अंदर आकर मम्मी से मिली तो वह कुछ बुझी बुझी और बीमार सी दिखीं। मैंने चिर-परिचित अंदाज में पूछा, ‘क्या वात हैं? सुपर मॉम, कुछ दुबली हो रही हो ?’ प्रत्युत्तर में वे हौले से मुस्कुरा दीं। मन चाहता था कि मम्मी से सीधे पूछ लूँ, ‘मम्मी, लकी क्या कह रहा है’, परंतु एक बेटी माँ से उसके चरित्र के ऊपर प्रत्यक्ष रूप से आरोप लगाये, यह मुझे उचित नहीं लग रहा था। मम्मी ने तो एक चुप्पी सी धारण कर ली थी। उनका अति सहज व्यवहार मुझे भयभीत कर रहा था। खाना खाकर आराम करने के लिए बेड पर लेटी तो मन जैसे चिंता की बल्गाएं धाम कसमसाने लगा । समझ में नहीं आ रहा था कि जिस माँ ने अपनी पूरी जवानी अकेले काट दी, जब कि पापा के देहांत के बाद सुमित अंकल ने शादी का प्रस्ताव रखा था, जिसे माँ ने दृढ़ता से ठुकरा दिया था, वही आज किसी के प्रेम में दीवानी हो, यह कैसे विश्वसनीय हो सकता है ?
तभी डोर वेल की आवाज से मेरी सोच थम गई। बगल के कमरे से रूचिता की आवाज आई, ‘आ गए देवदास बाबू अपनी पारो से मिलने ।’ सुनकर मैं झटके से उठ गई। बाहर आई तो देखा कि माँ एक अधेड़ से दिखने वाले व्यक्ति के साथ ड्राइंग रूम की ओर जा रही थी। ओह, तो ये हैं देवास जी, मैं उठ कर कमरे से बाहर आई, तब तक मम्मी किचन में आकर पानी का गिलास और बिस्किट ट्रे में रखकर चाय का पानी गैस पर चढ़ाने लगी ।
मैंने कहा, ‘मम्मी, आप चलो, में चाय लेकर आती हूँ । ‘ वे बिना कुछ कहे ट्रे लेकर चली गई। चाय लेकर जब में ड्राइंग रूम पहुँची तो मम्मी और देवास जी धीमी आवाज में बातें कर रहे थे। मैंने चाय की ट्रे टेबल पर रखते हुए नमस्ते की, तो वे खुश होकर बोले, ‘अरे! प्रिया वेटी, जीती रहो! जयंती,
जी ने तुम्हारे विषय में इतना कुछ बता रखा है कि मैं तुम्हें देखते ही पहचान गया। ‘
चाय पीते हुए देवास जी ने
दिल्ली के मौसम, घर, परिवार, ईशान व बच्चों के विषय में बातें करते रहे, मम्मी को इस बीच मैंने मौन बैठे हुए ही पाया। चलते-चलते देवास जी ने कहा, ‘प्रिया वेटी, अभी तो कुछ दिन रुकोगी ना?’ ‘जी, एक सप्ताह के लिए आई हूँ। अगले रविवार ईशान आयेंगे तो साथ ही जाऊँगी।’ मैंने जवाब दिया। ‘फिर तो ठीक है, अभी चलता हूँ, फिर मुलाकात होगी’, कहते हुए उन्होंने अपना विजिटिंग कार्ड मुझे
थमा दिया। प्रत्युत्तर में मैंने नमस्कार।
किया। उन्हें गेट तक छोड़कर अंदर आई तो देखा माँ चाय के वर्तन धो रही हैं। मैंने फ्राई पैन हाथ में लिया और कहा, ‘अरे मम्मी, तुम हटो में करती हूँ । ‘
जिम्मेदारीयां कभी ख़त्म नहीं होंगी – कृति : Moral Stories in Hindi
माँ चुपचाप अपने कमरे में चली गई। रूचिता इस बीच कमरे में ही रही । देवास के जाने के बाद बाहर आई और बोली, ‘दीदी ! देख लिया, मैं कहती थी न’, और फिर हँसती हुई गुनगुनाने लगी, ‘हम तो तेरे आशिक हैं सदियों पुराने, मैंने किसी तरह अपने क्रोध पर काबू पा लिया। कमरे में आई तो देखा कि माँ की आँखों में आँसू थे, जिन्हें उन्होंने मुझे आते ही पोंछ लिया ।
मैं माँ के पास उनके वेड पर ही गोद में सर लेकर लेट गई, तो वे मेरे वालों में हाथ फिराने लगीं, पर बोली कुछ भी नहीं ।। ‘मम्मी, तुम्हें क्या हो गया है? इतनी चुप क्यों रहने लगी हो ?’ मैंने पूछा तो बोली, ‘प्रिया, घर में सब ठीक तो है ना, इतनी अचानक आई हो, इस समय तो बच्चों के स्कूल होंगे, तुम किसी परेशानी में तो नहीं हो’। माँ की चिंता देख हँसते हुए मैंने कहा, ‘कुछ नहीं मम्मी, बस आप याद आ रही थीं इसलिए मिलने चली आ गई और बच्चों का भी बड़ा मन था नानी से मिलने का। सुनकर माँ चुप हो गई, परंतु मुझे लग गया कि उन्हें विश्वास नहीं हुआ है और मुझमें सच कहने की हिम्मत न थी ।
अगले दिन सुबह देखा कि माँ टहलने जा रही थीं, तो उनके मना करने के बावजूद में उनके साथ चल पड़ी। प्रातः काल प्राय: लखनऊ के पार्क भ्रमण के लिए फ्री रहते हैं। हम साथ टहलते हुए लोहिया पार्क पहुँचे तो देखा कि देवास जी वहाँ पार्क में पहले से मौजूद थे। थोड़ी देर टहलने के बाद मम्मी थककर बेंच पर बैठ
गई, जबकि मैं थोड़ी देर देवास जी के साथ इस आशा के साथ चलती रही | कि शायद टहलते समय वह मम्मी के | विषय में कोई बात करेंगे। परंतु वे टहलते हुए भ्रमण की बातें करते रहे, अपनी नौकरी के समय के अनुभव बताते रहे और में अनचाहे भाव से सुनती रही। माँ को लौटने का उपक्रम करते देख हम भी वापस लौट पड़े। बाहर निकलते वक्त देवास जी ने कहा, ‘प्रिया बेटी, दिल्ली जाने से पहले एक बार मेरे घर अवश्य आना। बच्चों को भी लाना। ‘
‘जी अवश्य,’ उस दिन बस इतनी ही बातें हुई। उस शाम हम सब बच्चों को घुमाने के लिए चले गये। मम्मी से साथ चलने के लिए कहा तो उन्होंने मना कर दिया, बोलीं, ‘तू जा, मैं आराम करना चाहती हूँ।’ मैंने माँ से कहा, ‘क्या बात है? माँ, तुम बड़ी जल्दी थक जाती हो।
मम्मी चुप ही रही, परंतु रूचिता ने व्यंग्यात्मक स्वर में कहा, ‘अब दीदी बूढ़े शरीर में इतनी दम कहाँ रहती, इश्क का खामियाजा कुछ
तो भुगतना ही पड़ेगा।’ कहकर एक आँख दबा कर वह हँस पड़ी। मैं क्रोध पीकर रह गई।
अगली सुबह जब मैं जगी, तब तक मम्मी जा चुकी थी, रुचिता मुझे देख गुनगुनाने लगी, ‘आज मेरी उनसे मुलाकात होगी, और फिर प्यार – बार की बात होगी…।’ मैं अपने पर काबू नहीं कर पाई और रुचिता को डाँट दिया। मेरा बोलना लक्ष्य को अखर गया। बोला, ‘दी, रुचिता जो कह रही है, वह तुम भी देख रही हो, हम कुछ गलत नहीं कह रहे हैं। माँ से क्यों नहीं पूछती ?”
सुबह को गई मम्मी शाम को लौटीं, ‘मम्मा, कहाँ गई थीं? कुछ बताया भी नहीं, बता देतीं तो मैं आपके साथ चलती। कितनी
चिंता हो रही थी । ‘ परंतु मम्मी ‘जरूरी काम था’ कह कर कमरे में चली गई। वह रात बहुत ही तनाव में बीती। अगली सुबह में सबके उठने से पहले उठ गई और घर से बाहर निकल गई। मैंने निश्चय कर लिया था कि देवास जी से मिलकर इस मसले को साफ करके ही रहूँगी ।
बाहर कड़ाके की ठंड थी। कोहरे के कारण कुछ भी नजर नहीं आ रहा था। एक मन हुआ कि लौट चलें, परंतु मन में छाई धुंध को साफ करने से पहले बाहर की धुंध से पार पाना ही होगा, सोचते हुए निश्चय के साथ आगे बढ़ गई। देवास जी के विजिटिंग कार्ड को उस वक्त बिना देखे ही पर्स में डाल लिया था, उसे निकाला, पढ़ा और उनके आवास पर पहुँच गई।
वे प्रातः भ्रमण के लिए निकलने की तैयारी में थे मुझे देखते ही खिल उठे और अंदर चलने लगे। मैंने सुझाया, ‘अंकल चलिए, चलते हुए ही बातें करेंगे। परंतु उन्होंने कहा, ‘नहीं, आज घूमने का कार्यक्रम स्थगित | तुम से जी भर कर बातें करेंगे।’ मैं मन ही मन खुश हुई कि जो मैं जानना चाहती हूँ, उसके लिए घर ही सही रहेगा। अंदर ड्राइंग में बैठते हुए उन्होंने आवाज दी, ‘जीवन, दो कप कॉफी बना दीजिए।’ अंदर से आवाज आई ‘जी साहब ।’ बैठते हुए कमरे को मैंने ध्यान से देखा। काफी करीने से सजा हुआ, साफ-सुथरा कमरा था। ड्राइंग रूम की हर चीज गृह- स्वामी की परिष्कृत रुचि का बखान कर रही थी। एक बड़े से फ्रेम में दीवार पर एक चित्र टंगा था, जिसमें देवास जी एक स्त्री व दो बच्चों के साथ मुस्कुरा रहे थे । वे बोले, ‘मेरी पत्नी माया है, तीन वर्ष पहले उनका देहांत हो गया। मेरे रिटायर होने के ठीक एक महीने पहले सोचा था, सेवानिवृत्ति के बाद सारा वक्त पत्नी के नाम कर दूँगा । परंतु ईश्वर को मंजूर ना हुआ और… और माया मेरा साथ छोड़ गई। ‘
‘ओह…! क्या हो गया था उन्हें ?’ मैंने पूछा ‘कैंसर…,
पहले पीलिया हुआ और बाद में लीवर कैंसर एकदम लास्ट स्टेज में डायग्नॉस हुआ। कुछ नहीं कर पाया।’ उन्होंने उदास स्वर में कहा। ‘यह तो बड़ा ही दुखद हुआ और बच्चे…, वे कहाँ हैं? ‘एक कनाडा में और दूसरा लंदन में, दोनों ही यहाँ नहीं आना चाहते। उन्हें अव इंडिया डर्टी लगता है। अपनी माँ के मरने पर भी नहीं आये। जब भी उनसे आने की बात करता हूँ, तो वह एक रकम मेरे खाते में डाल देते हैं। यह अर्थ ही तो आजकल संबंधों की आधुनिकतम परिभाषा है। ‘ कहकर देवास जी हँस दिए। ‘तो आप यहाँ अकेले ही रहते हैं?”
‘हाँ’, बस कुछ ऐसा ही समझ लो बस जीवन जी ही साथ रहते हैं। रविवार को दोस्तों को बुला लेता हूँ। समय विताना भी एक कला है और बुढ़ापे का समय विताना किसी ईश्वरीय साधना से कम नहीं।’ कहकर वे फिर हँसे। तभी जीवन जी कॉफी, विस्कुट और स्नैक्स वगैरह एक रिवाल्विंग ट्रे में लेकर हाजिर हुए। जब वे जाने लगे तो देवास जी ने कहा, ‘जीवन, बाजार से सामान ले आओ। आज कुछ अच्छा बनाना, प्रिया वेटी हमारे साथ ही खाना खाएगी।’ मैंने प्रतिवाद किया, ‘नहीं… नहीं, बहुत देर हो जाएगी, बच्चे परेशान हो जायेंगे। ‘
‘परेशान क्यों होंगे? जयंती जी हैं ना। वे देख लेंगी। मैं उन्हें फोन कर देता हूँ और बिना एक पल गँवाए उन्होंने माँ का नंबर मिला दिया। मुझे लगा कि यही सही अवसर है सच जानने का। मैंने उनसे सीधा सवाल किया, ‘अंकल, आप मम्मी को कब से जानते हैं? सुनकर उन्होंने गंभीर होते हुए कहा, ‘तो तुम भी वही समझ रही हो, जो लक्ष्य और रूचिता ।
‘ में एकदम सकपका गई। क्या समझते हैं ?” ‘बेटी, मैं कोई निरा बुद्ध नहीं हूँ, सब समझता हूँ, पर जयंती जी के लिहाज से चुप रहता हूँ। सभी औलादें एक-सी होती हैं, सपोलों की तरह, जो बड़े होकर डंसना ही जानती हैं। कोई दूर रहकर तो कोई साथ रहकर जो माँ-बाप रातों को जाग कर अपना खून-पसीना वहा कर बच्चों को पालते पोसते हैं, उन्हीं की उन्हें जरा सी भी परवाह नहीं होती है।’ वे क्रोध से हॉफने लगे थे। मैंने कहा, ‘सॉरी अंकल, मेरा मकसद आपका दिल दुखाने का नहीं था ।
‘ उन्होंने कहा, ‘बेटा, कोई बात नहीं, मैं ही जरा ज्यादा उत्तेजित हो गया था। हम जिस समाज में रहते हैं, वहाँ एक स्त्री और पुरुष : ‘के साथ को सिर्फ एक ही नजरिए से आँका जाता है। एक अवैध तस्वीर खींच कर ऐसे पेश किया जाता है, मानो वे पापी हैं। वे अच्छे दोस्त भी तो हो सकते हैं, उनमें स्वार्थ से परे आत्मीय रिश्ता भी हो सकता है, लेकिन इसे कोई नहीं समझता। खैर ! इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं। क्या करूँ, मैंने माया को तड़प-तड़प कर मरते देखा है, अब मैं जयंती जी को उसी स्थिति में नहीं देखना चाहता।’
‘क्या कह रहे हैं अंकल’ में हकलाने लगी थी। उन्होंने कहा… ‘वस, कल परसों तक बायोप्सी की रिपोर्ट आ जाएगी। उसके बाद डॉक्टर बतायेंगे कि क्या करना है? पर तुम चिंता ना करो, मैं जयंती जी को बचाने के लिए जो संभव होगा करूँगा, पैसा पानी की तरह वहा दूँगा ।’ ‘परंतु…’, उन्हें बीच में रोक कर मैंने कहा, ‘आप क्यों करेंगे? में ईशान को फोन कर दूँगी और वे सव व्यवस्था करेंगे।’
‘मुझे पता है बेटी, तभी तो जयंती अक्सर कहती हैं कि “प्रिया मेरी बेटी नहीं, मेरा गुरूर है।’ उनकी बात सुनकर मैं रो पड़ी। देवास जी ने कहा, ‘प्रिया, परेशान न हो, जयंती जी से मेरा रिश्ता क्या है? यह तो मैं परिभाषित नहीं कर पाऊँगा। मगर मैं जयंती के लिए कुछ कर पाऊँगा तो समझँगा कि माया के लिए कुछ ना कर पाने का बोझ दिल से कुछ कम हो जाएगा।’ कह कर उन्होंने अपनी बात समाप्त कर दी। जीवन जी बाजार से लौट आये थे और हमारे लिए खाना बनाने की तैयारी कर रहे थे। मैं स्तब्ध थी कि इस अनाम रिश्ते को क्या नाम दूँ ?
लेखिका : डॉ रश्मि शील