अफसोस

कैंसर अस्पताल के उद्घाटन का समारोह था।

सामने दीवार पर एक बड़ी सी तस्वीर मुस्कुरा रही थी।तस्वीर से झांकती हुई दो आंखें जैसे अपने दोनों हाथों से डॉक्टर नीरज को आशीर्वाद दे रहीं हों 

“जुग जुग जियो बेटा!”

डॉक्टर नीरज ने तस्वीर पर माल्यार्पण किया और फिर आगे बढ़ कर तस्वीर के सामने रखे हुए कई मुखों वाले दीप को प्रज्ज्वलित किया और फिर धीरे-धीरे चलते हुए आकर माइक के सामने खड़ा हो गया।

उसकी आंखों में आंसू भरे हुए थे, वह चाहकर भी उन्हें रोक नहीं पा रहा था।

जैसे ही नीरज माइक के पास आया 

पूरा हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा।

उसने अपने दोनों हाथ उठाकर सभी से शांत रहने के लिए  इशारा किया और फिर उसने अपनी बात शुरू किया 

“साथियों,आज के दिन जश्न का है।आज के इस दिन के लिए मैंने शुरुआत कहां से किया था वो कहानी सुनाता हूं।वो कहानी मेरी अपनी है।

आज से लगभग 30 32 साल पहले जब मैं स्कूल में पढ़ता था तब की यह कहानी है।

उस समय बारिश का मौसम था।चारों तरफ बारिश हो रही थी। वैसे भी मौसम बहुत ही ठंडा हो गया था।

मेरी मां कई दिनों से बीमार चल रहीं थीं। उन्हें क्या हुआ था यही नहीं पता था।

तब मैं सिर्फ बुखार, सर्दी,लू जैसी बीमारियों के ही नाम जानता था।

मेरे पिताजी वकालत खाने में एक टाइपिस्ट थे, बहुत ही मुश्किल से हम तीनों भाईयों को पढ़ा रहे थे।

वह इतना भी नहीं कमाते थे कि मां का इलाज किसी अच्छे अस्पताल में करवा सकें।

गांव के अस्पताल में मां को उनकी बीमारी के साथ चक्कर लगाते हुए परेशान हो गए थे लेकिन बीमारी का पता ही नहीं चल रहा था।

मां की तबीयत दिनों दिन बिगड़ती जा रही थी।

किसी को कुछ समझ में ही नहीं आ रहा था कि आखिर उन्हें हुआ क्या है!

फिर एक दिन पिताजी ने साहूकार से कर्ज लिया और उन्हें लेकर शहर चले गए।

वहां जाकर डॉक्टर को दिखाया तो पता चला मां को थर्ड स्टेज का कैंसर था।

डॉक्टर ने जवाब दे दिया था।

उन्होंने पिताजी और बड़े भाई को डांटते हुए कहा “जब केस पूरी तरह से बिगड़ गया है तब आप लोग मरीज को यहां लेकर आए हैं!

अब हम कुछ भी नहीं कर सकते अब आप इन्हें मरते हुए देखिए।अब यह इतनी कमजोर हो चुकीं हैं कि इनका शरीर कीमोथेरेपी झेल भी नहीं पाएगा इसलिए इन्हें घर ले जाइए।”

न तो मेरे पिताजी के पास इतने रुपए थे और ना ही मां के पास समय!!!

डॉक्टर नीरज का स्वर भीग गया।

उसने पास रखे हुए गिलास से पानी पिया और फिर अपनी बात जारी रखते हुए कहा 

“पिताजी की इतनी हैसियत भी नहीं थी कि अस्पताल का खर्चा उठा सके, उन्होंने मां को अपने साथ घर लिवा लाया।

दिन पर दिन मां की हालत बिगड़ती जा रही थी। उनका दिमाग काम नहीं करने लगा था। 

कैंसर अपना रूप दिखाने लगा था।अपनी मां को तिल तिलकर  मरते हुए मैं देख रहा था और मैं कुछ भी नहीं कर पा रहा था!

जब वह दर्द से छटपटाती तो मेरा दिल रो पड़ता था।

बहुत ही अफसोस होता था मुझे, काश मेरे पिताजी के पास इतना रुपया होता कि वह बड़े शहर में जाकर मां की इलाज करवाते! 

 

मैं मां के ठीक होने की कल्पना तक छोड़ दिया था ।

पहले जब भी मैं स्कूल से वापस आता था मां चूल्हे पर गरम-गरम फुलके बनाकर मुझे और मेरे भाई को खिलाती जाती थी।

घी में छौंकी हुई दाल  और हंसती हुई मां की तस्वीर आज तक मेरी आंखों की सामने मौजूद है।

यह मेरी इच्छा मेरे अंदर ही रह गई कि मां कब ठीक हों और मैं उनसे कहूं कि मुझे इस तरह गरम-गरम रोटियां और दाल खिलाएं! 

 

एक दिन मैं उनके पास बैठा हुआ था। अचानक ही सोती हुई मां जाग गईं 

उनके शरीर में थोड़ी हरकत हुई। उन्होंने मुझे मुस्कुराते हुए देखा और कहा 

“लल्ला ठीक से रहना।अपने भाई और अपने पिताजी को भी अच्छे से रखना।”

यह अंतिम शब्द थे मां के और फिर मां हमेशा के लिए चिरनिंद्रा में सो गई थीं।

 

अपनी आंखों में आंसू और मां की तस्वीर संजोए मैंने तय कर लिया था कि मैं अपनी पूरी मेहनत से पढ़ लूंगा और एक दिन अपना कैंसर हॉस्पिटल खोलूंगा।

मैं जी जान से जुट गया। मैं एक निहायत ही गरीब परिवार से था लेकिन मेरे हौसले बुलंद थे। मैंने जी-जान से जुट कर अथक परिश्रम किया। 

अपने लगभग सभी परीक्षाओं में मेरिट लिस्ट लाया और अब नौकरी के 10 साल के भीतर ही मैंने अपना एक कैंसर अस्पताल बनवा लिया।

अब मेरी इच्छा यह है कि ना तो किसी की मां मेरी मां की तरह तड़प तड़प कर, घुट घुट कर मर जाए, ना किसी का भाई ना किसी की बहन ना किसी की पत्नी न किसी का पति!

हम हर किसी को इलाज मुहैया करेंगे। हम यह शपथ लेते हैं कि हम इस कैंसर को जड़ से दूर कर देंगे, भारत से दूर कर देंगे। 

आप सभी मेरे मित्र गण हैं।मेरे सहयोगी हैं।

आप मेरे साथ शपथ लीजिए कि हम अपना मिशन कामयाब करेंगे फिर हमें किसी बात का कोई अफसोस नहीं होगा।

किसी को अपने परिजन को खोने का अफसोस नहीं होगा,,,!!!”

डॉक्टर नीरज बोलते बोलते रुक गया क्योंकि उनकी आवाज भर्रा गई थी। उनके आंखों से रहते अनवरत आंसू बह रहे थे।

 

उनके बड़े भाई उनके पास आकर उनकी पीठ थपथपाया और उन्हें गले से लगा लिया।

“मत रो मेरे भाई, मां तुम्हें आशीर्वाद देकर गई थी ना तो देखो तुमने क्या कर लिया! 

अब किस बात काअफसोस कर रहे हो तुम!

तुमने वह कर दिखाया जो किसी के बस का नहीं था!”

 

अब तक पूरा हाॅल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज रहा था।

 

*

प्रेषिका -सीमा प्रियदर्शिनी सहाय 

#अफसोस

 

पूर्णतः मौलिक और अप्रकाशित रचना बेटियां के साप्ताहिक विषय अफसोस के लिए।

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