कुछ दिनों पहले डॉक्टर निभा के पिता का स्वर्गवास हो गया।क्रिया-क्रम समाप्त हो चुका है। उसने अपने छोटे भाई और दोनों बहनों को नम ऑंखों से विदा किया। उनलोगों के जाने के बाद अतीत की डगर पर चलते-चलते ऑंखों के सामने ज़िन्दगी की हर घटना किसी फिल्म की तरह प्रतिबिंबित होने लगी थी।
घर में तीसरी बेटी के रुप में पैदा होने के कारण वह सदा उपेक्षित रही।उसके जन्म के दो साल बाद ही उसके भाई नीरव का जन्म हुआ,जो उसके हिस्से का बचा-खुचा प्यार भी ले बैठा।उसके सभी भाई -बहन उसे छोड़कर पिता की भाॅंति गोरे-चिट्टे और लम्बे क़द के थे। घर में एक तो वह तीसरी बेटी और उस पर से साॅंवली और औसत कद की।एक तो करेला,दूजा नीम चढ़ा!
लोग उसे देखकर एक साथ माॅं-बेटी पर कटाक्ष करते हुए उसकी माॅं से कहते -“ओह!अब तुम्हारा जमाना नहीं है कि औसत लड़की को भी सुन्दर पति मिल जाऍं। रुप-रंग के कारण निभा की शादी में तुम लोगों को काफी कठिनाई होगी!”
निभा की माॅं उस समय तो किसी की बात का जबाव न देकर खून के ऑंसू पीकर रह जाती।
निभा जैसे-जैसे बड़ी हो रही थी, वैसे-वैसे उसकी माॅं उसे पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करती। इंटर के बाद ही निभा की दोनों बहनों की शादी हो गई।उसके पिता पुराने विचार के थे। जल्द शादी कर बेटियों की जिम्मेदारी से मुक्त होना चाहते थे। उनके विचार में बेटा-बेटी में भेद स्पष्ट परिलक्षित होता था।बेटे की पढ़ाई के प्रति जितने ही जागरुक थे, बेटियों की शिक्षा के प्रति उतने ही उदासीन!
निभा के इंटर करते ही उसकी भी शादी की बात करने लगें।निभा ने विद्रोह करते हुए आगे पढ़ने की बात की।उसकी माॅं ने भी उसका साथ दिया।इसके कारण उसके पिता ने गुस्साते हुए उसकी माॅं से कहा -“अधिक पढ़कर कौन-सा तीर मार लेगी।एक तो रुप-रंग नहीं है, उसपर से अधिक उम्र में कोई ब्याहने को तैयार नहीं होगा।”
पिता की बात सुनकर निभा उस समय खून के ऑंसू पीकर रह गई, परन्तु उसने खुद को पढ़ाई में झोंक दिया।परिणामस्वरुप उसका मेडिकल में दाखिला हो गया। पढ़ाई समाप्त होते-होते उसके दोस्त डॉक्टर सरस ने उसे शादी का प्रस्ताव दिया ।
सरस से शादी के बाद वह अपने नर्सिंग होम की देखभाल में व्यस्त हो गई। छः महीने पहले माॅं की तबीयत खराब होने पर उनसे मिलने गई थी।माॅं से उसका गहरा भावनात्मक रिश्ता था।माॅं ने अंतिम घड़ी में उससे वचन लेते हुए कहा था -“बेटी! मैं जानती हूॅं
कि तुम्हारे पिता ने कभी भी तुम्हारे हक का प्यार नहीं दिया, परन्तु मुझे महसूस हुआ कि दिल के किसी कोने में तुम्हारे लिए प्यार ज़रूर छिपा हुआ था,जिसका वे इजहार नहीं कर सकें,वरना तुम्हारे मेडिकल में चयन होने पर सभी को फोन करके नहीं बताते।
डॉक्टर सरस से शादी की बात लेकर भी कभी अन्तर्जातीय मुद्दा नहीं उठाया। बहू के दुर्व्यवहार के कारण बेटे पास जाना नहीं चाहते हैं।मुझे विश्वास है कि मेरे बाद तुम्हीं पिता की सही देखभाल कर सकती हो।”
माॅं की मृत्यु के बाद निभा पिता को जबरदस्ती अपने पास ले आई। डॉक्टर होने के कारण पिता की अच्छी देखभाल हो रही थी, परन्तु हमेशा बेटी के प्रति उनकी ऑंखों में पश्चाताप के भाव बने रहते।परिस्थितियाॅं व्यक्ति को कब और कितना झकझोर दे कुछ पता नहीं चलता।
बढ़ती वयस के साथ -साथ पिता का शरीर दुर्बल होता जा रहा था।उनकी उदास और सूनी ऑंखों में निभा कुछ पढ़ने का प्रयास करती।कभी -कभी वह हॅंसते,कभी बातें करते -करते अक्सर चुप हो जाया करते।निभा को उन्हें कुरेदना अच्छा नहीं लगता। पिता को देखकर निभा सोचती -“सचमुच!
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समय बदलते देर नहीं लगती है।हर इंसान के जीवन में आऍं हर्ष-विषाद के पल तराजू पर रखे बाट के सदृश्य होते हैं,कब किसका पलड़ा भारी कर दे पता नहीं चलता है।अगर यह बात इंसान समझ जाऍं,तो किसी के मन को ठेस पहुॅंचाने की कोशिश न करें।”
एक दिन रात में अचानक से पिता की तबीयत खराब हो गई।निभा ने आकर झट से कसकर उनके हाथ पकड़ लिए।उनकी जिंदगी से मानो साॅंसों का नाता छूट रहा था।वह बहुत कुछ कहना चाह रहे थे,परन्तु आज उनके मुख से एक शब्द भी निकलना कठिन हो रहा था।
हृदय की गति मंद होती जा रही थी। उन्होंने हाथ जोड़कर बस माफी शब्द कहा। निभा को महसूस हो रहा था कि उनकी आवाज मानो दूर किसी पर्वत से आ रही हो! अचानक से उनकी गर्दन एक ओर लुढ़क गई।निभा फूट-फूटकर रो पड़ी।उसे चैतन्य करते हुए उसके पति सरस ने कहा -“निभा!
बचपन में तुम जितनी बार खून के ऑंसू पीकर रह जाती थी,उससे ज्यादा बार तुम्हारे पिता ने ऑंखों -ऑंखों में तुमसे माफी माॅंग ली है!अब चलें? नर्सिंग होम में मरीज हमारा इंतजार कर रहें हैं!”
निभा ऑंसू पोंछकर तैयार होकर पति सरस के साथ अपनी ड्यूटी पर निकल जाती है।
समाप्त।
लेखिका -डाॅ संजु झा ( स्वरचित)
मुहावरा व कहावतों की लघु-कथा प्रतियोगिता