बहू, बेगम और बन्दर – डॉ० मनीषा भारद्वाज :

“अरे ओ नीरू…जरा देख तो, ये क्या उबल के चाय का पानी गैस पर ही सूख गया? सारी चायपत्ती बर्बाद हो गयी। अब नयी चाय बनाना। और ध्यान रखना, दूध को बिल्कुल उफ़नने मत देना। पिछली बार तो मानो दूध की नदियाँ बह गयीं थीं रसोई घर में।”

यह आवाज़ थी सासु माँ शारदा देवी की, जो डाइनिंग टेबल पर अखबार पलटते हुए भी रसोई घर में हो रही हर हलचल पर अपनी विशेषाधिकार युक्त ‘रेडार’ नज़र रखे हुए थीं। उनके लिए मेरा नाम ‘नीरू’ नहीं, बल्कि ‘ओ नीरू’ था। एक तरह की अधूरी, अधूरी सी पुकार जो मेरे अस्तित्व को भी अधूरा ही साबित करती थी।

मैं नीरजा, यानी नीरू, पाँच साल से इस घर की बहू। पढ़ी-लिखी, नौकरीपेशा। पर यहाँ की परिभाषा में सिर्फ और सिर्फ ‘बहू’। एक ऐसा रोबोट जिसके भीतर का ‘इंसान’ धीरे-धीरे किसी कोनें में दम तोड़ रहा था।

“हाँ माँ, बना देती हूँ,” मेरे मुँह से निकला। यह मेरा रोबोटिक मोड था। भावनाओं को दबाकर, आत्मसम्मान को ताख पर रखकर बोला गया एक स्वराघात।

मेरी ननद सुमन, जो अपने मायके आयी हुई थी, बोल पड़ी, “अरे माँ, इतनी सुबह-सुबह किसे चाय चाहिए? नीरू तो अभी नहा धो के आयी ही नहीं।”

सासु माँ ने अखबार नीचे रखा और चश्मा सहलाते हुए कहा, “तुम्हें पता है बेटा, तुम्हारे पापा को बिना गरमागरम चाय के अखबार पढ़ने का मज़ा ही नहीं आता। और फिर… बहू है, सब कुछ तो करना ही पड़ेगा ना। हम तो अपने समय में…”

उनका वह ‘हम तो अपने समय में’ वाला रिकॉर्ड जैसे ही बजने वाला था कि मेरे पति अमित कमरे में दाखिल हुए।

“क्या हुआ?” उन्होंने मुस्कुराते हुए पूछा।

“अरे कुछ नहीं, बस माँ कह रही थीं कि उनके जमाने की बहुओं को…” सुमन ने बात आगे बढ़ानी चाही।

अमित ने तुरंत पता लगा लिया। वो मेरी तरफ देखकर हल्का सा मुस्कुराये, एक अजीब सी फिक्र उनकी आँखों में तैर गयी। शायद वो जानते थे, परिवार के इस ढाँचे में वो कुछ खास कर नहीं सकते थे।

“अरे भई, नीरू से रहा नहीं जाता। सुबह से लेकर शाम तक बस मोबाइल में लगी रहती है,” सास ने शिकायत का नया चैप्टर खोल दिया।

सच्चाई ये थी कि मैं सुबह पाँच बजे उठकर ऑफिस का काम निपटाती, फिर नाश्ता-चाय का जिम्मा, उसके बाद ऑफिस। लौटकर फिर रसोई और घर के काम। मोबाइल तो बस बीच में थोड़ी सी चैन की साँस था।

दोपहर को खाना खाते वक्त बातचीत का विषय बना मेरा ही पकाया हुआ भोजन।

“आज बीन्स  कड़वी लग रही हैं,” ससुर जी बोले।

“अरे पापा, ये बीन्स नहीं, भिंडी हैं,” मैंने हँसते हुए कह दिया।

सारी टेबल पर सन्नाटा छा गया। एक बहू का अपने ससुर से इस तरह का ‘हास्य’ परिहास करना यहाँ की परंपरा के खिलाफ था। सासु माँ की भौहें तन गयीं।

“मतलब अब हमें सब्जियाँ भी पहचानना सिखाओगी तुम?” सासु माँ का स्वर तीखा हो गया।

“नहीं माँ, मैं तो…” मैंने समझाना चाहा।

“छोड़ो, कोई बात नहीं,” अमित ने बीच में बोलकर मामले को रफा-दफा कर दिया।

उस दिन शाम को जब मैं बालकनी में खड़ी थी, सुमन आयी और मेरे कंधे पर हाथ रख दिया।

“तू इनकी बातों को दिल पर मत लिया कर नीरू। ये लोग ऐसे ही हैं। इनके लिए बहू का मतलब इंसान नहीं, एक ऐसा जीव होता है जो हर वक्त काम करे, बोले नहीं, और हाँ में हाँ मिलाये,” सुमन ने कहा।

मैं हैरान रह गयी। आज तक तो सुमन भी उन्ही की तरफ़ से खड़ी नजर आती थी।

“पर तू…”

“मैं भी इस घर की बेटी हूँ नीरू। मैं जानती हूँ यहाँ का ecosystem. पर तू समझदार है। तूने कभी खुलकर विरोध नहीं किया। पर कभी कभी तू भी तो अपनी आवाज़ उठा सकती है। तेरी पहचान सिर्फ ‘बहू’ नहीं है। तू नीरजा है, एक इंसान है।”

सुमन की बातें मेरे दिल में उतर गयीं। अगले दिन जब सासु माँ ने मेरे ऑफिस के काम को ‘बेकार के काम’ बताया तो मैंने पहली बार टोका।

“माँ, ये बेकार का काम नहीं है। इसी से मेरी salary आती है, जो इस घर के खर्चे में भी काम आती है।”

सासु माँ के मुँह से निकला, “अरे, हमारे वक्त में तो बहुओं को…”

“माँ, आपका वक्त अलग था। अब वक्त बदल गया है। मैं आपकी इज्जत करती हूँ, पर मैं चाहती हूँ कि आप भी मेरी इज्जत करें। मैं सिर्फ आपकी बहू नहीं हूँ, एक इंसान हूँ, जिसकी अपनी feelings, अपनी ambitions हैं।”

यह कहना आसान नहीं था। मेरे हाथ काँप रहे थे, दिल जोरों से धड़क रहा था। सासु माँ स्तब्ध थीं। शायद उन्हें उम्मीद नहीं थी कि मैं इतनी स्पष्टवादिता से बोल सकती हूँ।

उस शाम अमित ने जब यह बात सुनी तो वो चिंतित हो गए। “तूने माँ से ऐसे बात कर दी? अब तो तूने मुसीबत मोल ले ली।”

“मुसीबत तो मैंने तब मोल ली थी जब मैंने खुद को इंसान समझना बंद कर दिया था, अमित,” मैंने दृढ़ता से कहा।

अगले कुछ दिन तनावपूर्ण रहे। सासु माँ मुझसे कम ही बोलतीं। पर फिर एक दिन कुछ ऐसा हुआ जिसने सब कुछ बदल दिया।

सासु माँ को चक्कर आने की शिकायत हुई और डॉक्टर ने उन्हें आराम करने को कहा। घर का सारा काम मेरे ऊपर आ गया। मैंने ना सिर्फ ऑफिस का काम संभाला, बल्कि घर भी सम्भाला, और उनकी सेवा भी की। पर इस बार मैंने मशीन बनकर नहीं, बल्कि एक इंसान बनकर सेवा की। उनके साथ बैठकर बातें कीं, उनके पुराने किस्से सुने।

एक दिन वो बोलीं, “तुम्हारी ननद सुमन ने ठीक ही कहा था। उसने कहा था कि माँ, नीरू को तुम इंसान नहीं, बन्दर समझती हो। जो हर वक्त तमाशा करे।”

मैं चौंकी। सुमन ने यह भी कहा था?

“शायद हमारी पीढ़ी की सोच ऐसी ही है नीरू। हमें लगता है कि बहू पर अधिकार जमाना ही हमारी जीत है। पर तुम सही हो। तुम भी इंसान हो। और… और मैंने तुम्हारे साथ अन्याय किया है।”

यह सुनकर मेरी आँखों में आँसू आ गए। यह माफी नहीं, पर स्वीकारोक्ति थी। और कभी-कभी स्वीकारोक्ति माफी से भी बड़ी होती है।

आज स्थिति बदल गयी है। अब भी सासु माँ कभी-कभार अपनी पुरानी आदतों पर लौट जाती हैं, पर अब मैं उन्हें टोक देती हूँ। और वो भी हँस देती हैं।

क्योंकि अब वो भी समझ गयी हैं कि बहू कोई रोबोट नहीं, एक इंसान होती है। और इंसानियत की नींव पर ही तो घर के खंभे टिके होते हैं, रीति-रिवाजों पर नहीं।

सच तो यह है कि रिश्तों की डोर इंसानियत की उंगली पकड़कर ही आगे बढ़ती है। बाकी सब तो बंधन हैं… और बंधन कभी-कभी घाव भी दे जाते हैं।

#ससुराल वाले बड़ी बहु को इंसान क्यूँ नहीं समझते

डॉ० मनीषा भारद्वाज

ब्याड़ा (पंचरुखी ) पालमपुर

हिमाचल प्रदेश

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