जाहिल – डाॅ संजु झा :  Moral Stories in Hindi

65 वर्षीय विनय जी पत्नी की असामयिक निधन से शोकातुर थे। आरंभ में जिस पत्नी को गॅंवार-जाहिल समझते थे,कुछ दिनों बाद वही उनके दिल की धड़कन बन गई थी। उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था कि उनसे पन्द्रह साल छोटी पत्नी (रेखा) उन्हें उम्र के इस पड़ाव पर अचानक से छोड़कर चली जाएगी।रेखा उनकी जिंदगी बन चुकी थी।उसके बिना वे खुद को बिल्कुल असहाय महसूस कर रहे थे। तीनों बेटे-बहुऍं उनके गहरे जख्म पर मरहम लगाने की कोशिश कर रहे थे, परन्तु उनका दिल मानने को तैयार ही नहीं था कि अब रेखा उनकी जिंदगी से सदा के लिए चली गई है!

माॅं का क्रिया-कर्म खत्म होने पर विनय जी के तीनों बेटे परिवार सहित नौकरी पर लौटने को तैयार थे। बड़े बेटे अमन ने कहा -“पिताजी!आप माॅं के वगैर अकेले कैसे रहेंगे?आप हमारे पास बारी-बारी से आकर रहिए।आपका मन लगा रहेगा!”

बेटा अमन की बातें सुनकर विनय जी की ऑंखें भर आईं।अपनी भावनाओं पर काबू करते हुए उन्होंने कहा -“बेटा! मैं भावनात्मक रूप से जरूर टूट गया हूॅं, परन्तु अभी बूढ़ा और लाचार नहीं हुआ हूॅं। मैं तुम लोगों के जाने के बाद फिर से कचहरी जाना शुरू कर दूॅंगा।अब मैं केवल गरीब और बेसहारा लोगों का ही केस लड़ूॅंगा, जिससे मेरा समय भी कट जाएगा और मुझे आत्मिक संतुष्टि भी मिलेगी।अपना पुराना नौकर हरि मेरे लिए दो वक्त की रोटी बना दिया करेगा।”

अमन -“पिताजी! परन्तु हमें आपकी चिन्ता बनी रहेगी!”

विनय जी -“बेटा! चिंता की कोई बात नहीं है।हम सभी के पास रहते हुए भी तो तुम्हारी माॅं हमें छोड़कर चली गई न?हम कुछ भी नहीं कर पाऍं।विधि का विधान कोई नहीं टाल सकता है!”

दूसरा बेटा नमन-” पिताजी! हमें इतना तो‌ संतोष है कि माॅं की अंतिम घड़ी में हम सब  उनके पास थे।आप तो बिल्कुल अकेले हो जाओगे!”

 सभी बच्चों की ओर देखते हुए विनय जी ने कहा -“अभी से तुमलोग मुझे लाचार और पराधीन मत बनाओ।जब जरूरत महसूस होगी,तब मैं तुम लोगों के पास चला आऊॅंगा।”

अगले दिन विनय जी के तीनों बेटे परिवार सहित काम पर वापस चले गए।अब सूने घर का सन्नाटा उन्हें भयभीत कर रहा था। बच्चे जब तक थे,तब तक उन्हें इस सन्नाटे का एहसास नहीं हुआ, परन्तु उनके जाने के बाद इतना बड़ा घर एकदम से भांय-भांय करता हुआ प्रतीत हो रहा है।एक पल तो उन्हें लगा कि बच्चों के  साथ जाना ही बेहतर होता! एकाकीपन से ऊबकर उन्होंने सहायक हरि के पास जाकर उसे चाय बनाने को कहा और ऑंखें मूॅंदकर कुर्सी पर सिर टिकाकर बैठ गए। उन्हें ऐसा एहसास हो रहा था कि अभी रेखा आकर उनके सिर को सहलाते हुए पूछेगी कि आपकी तबियत तो ठीक है न! उन्हें घर में चारों ओर  रेखा की पदचाप और आवाजें गूॅंजती हुई महसूस हो रहीं थीं।सहसा घबड़ाकर वे ऑंखें खोल‌ देते हैं। पत्नी की अचानक मौत के समय उनकी निस्तेज ऑंखें  पलक झपकाना ही भूल गईं थीं,पैर बर्फ की सिल्ली की तरह जम गए थे, उन्हें  आज फिर वैसा ही  महसूस हो रहा था।शरीर पूरे कंपन के साथ हिल रहा था।उसी समय हरि चाय लेकर आता है और पूछता है -” मालिक!रात के खाने में क्या बनाऊॅं?”

विनय जी -” जो तुम्हारी मर्जी हो,वहीं बना लो।”

पत्नी के गुजरने के बाद से मानो उनकी जीभ का स्वाद भी चला गया है।चाय पीकर विनय जी शाम में टहलने पार्क की ओर निकल गए।पार्क में टहलने के बाद कुछ देर दोस्तों से उनकी बात-चीत हुई, परन्तु आज दोस्तों के साथ भी उनका मन नहीं रह रहा था, जल्द ही उठकर वे घर आ गए।हाथ-मुॅंह धोकर बेमन से थोड़ा खाना खाया और बिस्तर पर लेट गए।सामने दीवार पर  तस्वीर में पत्नी का मुस्कराता हुआ चेहरा दिख गया। ऑंखें बंद कर पत्नी के साथ बिताए हुए सुखद पल को महसूस करने लगें।

विनय जी माता-पिता की एकलौती संतान थे। अत्यधिक लाड़ -प्यार के कारण उनके स्वभाव  में थोड़ी -सी जिद्द भी आ गई थी।जवानी के दिनों में वे अपनी सहपाठी ज्योति से प्रेम कर बैठे।साथ जीने-मरने की कसमें दोनों खाने लगें।समाज से छुप-छुपकर मिलते थे, परन्तु कहावत है’इश्क और मुश्क छिपाए नहीं छुपते हैं ‘।वही सच विनय जी के साथ हुआ।उनके इश्क की खबरें उनके पंडित पिता तक पहुॅंच गईं। उन्होंने पुत्र   के समक्ष दहाड़ते‌ हुए कहा -” विनय!तुमने सोच कैसे लिया कि  हमारा परिवार एक गैर जाति की लड़की को अपने घर की बहू  स्वीकार कर लेगा?”

विनय जी ने भी तैश में आकर कहा‌-“पिताजी! मैं जाति-पाॅंति नहीं मानता हूॅं।मेरा अटल निर्णय है कि मैं ज्योति से ही शादी करूॅंगा!”

विनय के पिता किसी हालत में समाज में अपनी नाक नीची नहीं होने देना चाहते थे। उन्होंने अपना अंतिम फैसला सुनाते हुए कहा -“बेटा! समाज में मेरी प्रतिष्ठा है।उस पर मैं कोई ऑंच नहीं आने दूॅंगा।अगर तुम गैर जाति की लड़की से शादी करोगे तो तुम्हें मेरी लाश पर से गुजरना होगा।”

विनय जी को अपने पिता का स्वभाव मालूम था कि वे जो ठान लेते हैं,वहीं करते हैं।विनय जी भी अपनी जिद्द पर कायम थे।गुस्से में उन्होंने भी प्रण लेते हुए कहा -“पिताजी! मैं भी आपका ही बेटा हुॅं,अगर मैं ज्योति से शादी नहीं करुॅंगा,तो आजीवन कुॅंवारा ही रहूॅंगा!”

विनय के पिताजी ने कहा -” मुझे तुम्हारा कुॅंवारा रहना मंजूर है, परन्तु जाति-भ्रष्ट होना स्वीकार्य नहीं है!”

उस समय प्रेम विवाह को भी समाज में हेय दृष्टि से देखा जाता था और अन्तर्जातीय विवाह तो बहुत बड़ी बात थी। परिस्थिति को समझते हुए विनय जी ने ज्योति से सदा के लिए नाता तोड़ लिया और खुद को  वकालत की पढ़ाई में झोंक दिया। वकालत पास करने के बाद अपने शहर में ही वकालत करने लगे।कुछ ही समय में उनकी गिनती शहर के नामी वकीलों में होने लगी। बीच-बीच में माॅं उन्हें शादी के लिए मनाने की कोशिश करती, परन्तु वे अपने इरादे से टस-से-मस नहीं होते।विनय जी की उम्र पैंतीस वर्ष हो चुकी थी।एक दिन उनकी माॅं की तबीयत बहुत बिगड़ गई।माॅं ने विनय जी से वचन लेते हुए कहा “बेटा! अपना घर बसाने का मुझे वचन दो,वर्ना मरने‌ के बाद भी मेरी आत्मा भटकती रहेगी!”

विनय जी की तो पिता से बनती नहीं थी , परन्तु माॅं के अत्यधिक करीब थे।माॅं‌‌ को खोने के डर से उन्होंने हाॅं कह दिया।

कुछ दिनों में माॅं ठीक होकर घर आ गई। आनन-फानन में सोलह वर्षीया रेखा से उनकी शादी हो गई। सुशील और सुन्दर बहू पाकर कुछ दिनों बाद ही उनकी माॅं सुकून के साथ चिरनिंद्रा में लीन हो गईं।विनय जी खुद से इतनी छोटी पत्नी को दिल से स्वीकार नहीं कर पा रहे थे,उस पर से पत्नी केवल आठवीं पास ही थी।रेखा को देखकर विनय जी मन-ही-मन सोचते -“माॅं की बातों में आकर कहाॅं मै गॅंवार-जाहिल औरत के साथ बॅंध गया?इससे तो अच्छा कुॅंवारा ही था!”

शादी के आरंभिक दिन उनके लिए काफी कठिन थे।उनके दिलों-दिमाग में हमेशा ऊहा-पोह की स्थिति बनी रहती थी।उनका मन सदा बेचैन‌ रहता था। घर में बहू के आ जाने से उनके बूढ़े पिता के शरीर में मानो जान आ गई थी।वे बहू की सुख-सुविधाओं का पूरा ख्याल रखते थे।बहू भी बेटी के समान उनकी सेवा करती।केवल विनय जी ही खुद को ठगा हुआ महसूस करते।

विनय जी को अल्पशिक्षित पत्नी स्वीकार्य नहीं थी, परन्तु जब-जब वे रेखा का चेहरा देखते,तो उसकी मासूमियत उन्हें उसके खिलाफ कोई कठोर कदम उठाने से रोक लेती।वे अनमने से रहने लगे।एक दिन कचहरी में उन्हें मायूस देखकर उनके दोस्त सुभाष जी ने पूछा -“दोस्त !क्या बात है, आजकल कुछ परेशान लग रहे हो?”

विनय जी दोस्त की बात को अधिक देर तक टाल नहीं सके‌और अपने दिल की बात कह डाली।

सुभाष जी ने उन्हें समझाते हुए कहा -“दोस्त!भाभी गॅंवार-जाहिल नहीं हैं,बल्कि एक अनगढ़ साॅंचा हैं।तुम चाहो तो‌ उन्हें‌ शिक्षित कर एक सुघड़ साॅंचे में डाल सकते हो!”

दोस्त की बातों ने मानो विनय जी की तीसरी ऑंखें खोल दी हो।उस दिन से उन्होंने रेखा को फिर से पढ़ाने का प्रयास शुरू किया, परन्तु आरंभ में रेखा ने पढ़ाई से बिल्कुल इंकार करते हुए कहा था -“मुझे पढ़ाई छोड़ने हुए काफी दिन हो गए हैं।अब पढ़ना मेरे वश में नहीं है!”

विनय जी ने समझाते हुए कहा -” रेखा !तुम थोड़ा -थोड़ा पढ़ने की कोशिश करो। मैं खुद तुम्हें पढ़ाऊॅंगा।अंधेरे में रास्ता दिखाने के लिए एक ही दीपक पर्याप्त होता है।विपरीत परिस्थितियों में भी सकारात्मक सोच से सफलता मिलती है।बस काम को लगन और उत्साह से क्या चाहिए।”

रेखा विनय जी की जिद्द को समझ चुकी थी।उसने धीरे-धीरे पढ़ाई आरंभ की। बीच-बीच में पढ़ाई से उकताकर हथियार डालते हुए रेखा कहती -“मुझे कुछ समझ में नहीं आता है! लगता है कि मैं न पढ़ पाऊॅंगी!”

पत्नी के मनोबल को बढ़ाते हुए विनय जी कहते -“रेखा! लगातार अभ्यास से ही व्यक्ति आगे बढ़ता है,भले ही उसके कदम छोटे ही क्यों न हो,अगर वह धीरे-धीरे आगे बढ़ रहा है तो वह अपनी मंजिल अवश्य प्राप्त कर लेगा।उसे हिम्मत हारकर रुक नहीं जाना चाहिए, क्योंकि रुका हुआ पानी भी खराब हो जाता है!”

पति का प्रोत्साहन पाकर रेखा का मन‌  पढ़ाई में लगने लगा।एम .ए पास करते-करते रेखा तीन बेटों की माॅं भी बन चुकी थी।विनय जी ने रेखा को काॅलेज में व्याख्याता की नौकरी लगवा दी।शिक्षा प्राप्त कर लेने के बाद गॅंवार-जाहिल रेखा का मानो पुनर्जन्म हो चुका था।डरी-सहमी रेखा में आत्मविश्वास कूट-कूटकर भर चुका था। विश्वास,साहस,लगन और उत्साह के बल पर उसने अपनी जिंदगी की नई कहानी लिख डाली,जिसे देखकर विनय जी फूले‌ नहीं समाते।रेखा भी पति का मजबूत संबल पाकर गौरवान्वित थी। उनके सभी बच्चे दीपावली में आऍं हुए थे, अचानक से हृदयगति रुकने से रेखा जी की मौत हो गई।घर में दीवाली की रोशनी मौत‌के अंधकार में पसर गई।

अचानक से नींद से घबड़ाकर पसीने से लथपथ विनय जी उठकर बैठ गए। ख्यालों की लड़ियाॅं टूट गईं। उन्हें अब भी  विश्वास नहीं  हो रहा है कि जो इतने‌ वर्षों तक उनके साथ रही, जिन्दगी की हर धूप-छाॅंव में अटूट आस्था के साथ कदम-से-कदम मिलाकर चलती रही, अचानक से उन्हें अकेला कैसे छोड़ गई?

सचमुच अगर जीवनसाथी का साथ हो तो गॅंवार-जाहिल लड़की भी रेखा की भाॅंति आत्मनिर्भर और आत्मविश्वास से लबरेज होकर  समाज में अपनी  अमिट छाप छोड़ सकती है!

समाप्त।

उपर्युक्त कहानी सच्ची घटना से प्रेरित है।

लेखिका -डाॅ संजु झा (स्वरचित)

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