बरामदे में पड़ी झूली हुई सी कुर्सी अब भी वहीं थी — जहाँ वह हर शाम बैठा करती थी। दीवार पर घड़ी की टिक-टिक चलती रही, लेकिन कमरे में कोई आवाज़ नहीं थी। ना ही, अब यहाँ कोई उसे “माँ” कहकर पुकारता।
कांता देवी — नाम जितना तेज, अब जीवन उतना ही मद्धम।
एक समय था जब इस आंगन में किलकारियाँ गूंजती थीं, उसके आंचल से तीन बच्चे लिपटे रहते थे, और वह एक हाथ से रोटियाँ बेलती, दूसरे से जीवन सँभालती। पति के जाने के बाद भी उसने घर को गिरने नहीं दिया। सिलाई की मशीन, किराने के हिसाब और बच्चों की पढ़ाई , बच्चों के सपने — सबका भार उसने अपने आंचल में बाँध लिया।
पर समय की नदी में जो सबसे पहले बहते हैं, वे होते हैं — बेटे और बेटियाँ।
तीनों बच्चे अब बड़े शहरों में बस चुके थे। पंछी पिंजरें से ऊंची उड़ान भरने को जा चुके थे। कभी-कभी फोन आ जाता था — “माँ, बिज़ी हूँ”, “तबीयत का ध्यान रखना”, “दीदी के पास चली जाना”, पर माँ का अकेलापन न किसी कॉलर ट्यून में समाता था, न किसी वीडियो कॉल में, न ही किसी भी बच्चे की जिम्मेदारी में।
कांता देवी अब खामोशी से घर की दीवारों से बातें करती। कभी आंगन बुहारती, तो कभी पुराने कपड़े तह करके रखती, जैसे कोई आने वाला हो।
एक दिन दरवाज़े पर भीख माँगती एक बच्ची आई। कांता ने देखा — वही उम्र, वही आँखें जो कभी उसकी बिटिया की थीं। उसने बिना कुछ पूछे, रोटियाँ दीं, और दरवाज़े पर बैठा लिया।
बच्ची ने भोलेपन से पूछा,
“तुम मेरी दादी माँ बन जाओगी क्या ?”
कांता देवी का आंचल भीग गया। उसने उस बच्ची को बाँहों में भर लिया। उसकी ममता हिलोरें मारने लगीं।
उस दिन पहली बार उसने स्वेच्छा से अपना आंचल पसारा — माँ बनने की जिम्मेदारी निभाने के लिए। उसने पड़ोसी इंस्पेक्टर की मदद से उसके घरवालों की सारी जानकारी ली। पड़ोसी इंस्पेक्टर ने बताया कि – बच्ची का पिता के अलावा कोई नहीं है।मां का देहांत हो चुका था। काम पर जाने के बाद पिता बेटी के लिए चिंतित रहता है। कांता ने सोच-समझकर कर फैसला लिया और इंस्पेक्टर की सहायता से पिता और बच्ची उसके घर की रौनक बढ़ा रहे थे।
उस रात वर्षों बाद वह गहरी नींद में सोई।
घड़ी अब भी टिक-टिक करती थी, पर अब हर टिक टिक में साँसें थीं, उम्मीदें थीं, आशाएं थीं । किसी का जीवन जीवंत हो रहा था। “अकेली माँ जब आंचल पसारती है, तो वह दया नहीं माँगती — वह आत्मसम्मान के साथ जीवन के अर्थ को फिर से बुनती है।”
स्वरचित – भावना कुलश्रेष्ठ
आंचल पसारना – कहानी