“क्या माँ -जब सोमा ने मना किया है किचेन में जाने से तो क्यों जाती हो जो चाहिये वो माँग लो पर नहीं तुम्हें तो अपने मन की ही करनी है मैं तो तंग आ गया हूँ ।”
“ वो बेटा भूख लगी थी इसी लिए आई थी किचेन में ।”
“खाना नही खाया था क्या “
“शुगर है न तो बार बार भूख लगती है ।”
“अरे इनका तो पेट ही नहीं भरता कभी ।” बहू सोमा चिल्लाते हुए बोली -मुझ से नहीं होता अब ये सब ।”
आशा जी उल्टे पांव भरी आखों से अपने कमरे में जा कर सिसकती हुई अपने किस्मत को कोसने लगी ।
आशा जी के पति महेश जी का छ महीने पहले ही देहान्त हुआ था ।उनकी बीमारी में सारे पैसे खर्च हो गए थे । राजीव माँ बाप का इकलौता संतान था ।राजीव एक मल्टीनेशनल कम्पनी में कार्यरत था ।सैलरी बहुत अच्छी थी ।पर माँ बोझ लग रही थी इन्हें ।इंश्योरेंस का पैसा भी अभी तक नहीं मिला था ।पेंशन की भी बात नहीं थी ।भाग दौड़ जारी है ।राजीव प्रयत्न कर रहा था ।पर घर के माहौल से परेशान था ।बहू सोमा को तो माँ फूटी आँख नहीं भाती थी ।माँ को कीचेन ड्राइंग रूम में या बाहर जाने की
इजाज़त नहीं थी ।माँ अपने कमरे में जाकर रोते रोते सो गई थी । भूख को उन्होंने पानी पी कर शांत किया था ।आशा जी का दम घुटने लगा था अब ।सो कर उठी अपने पति को याद कर फूट फूट के रोने लगी—“क्यों मुझे इस तरह अकेला छोड़ कर चले गए देखो मेरी हालत तो देखो किस तरह इस कमरे में क़ैद हो गई हूँ ।अपना बेटा मुझ से बात नहीं करता हाल पूछना तो दूर की बात ।जब भी बात करता है ज़हर ही उगलता है ,बहू तो मुझे देखना भी नहीं चाहती ।क्या करूँ-कहाँ जाऊँ ।” रोती जा रही थी ।अपने मन की पीड़ा किस से कहे ।
“ माँ लो खाना खा लो “राजीव ने माँ से कहा ।
“ मुझे भूख नहीं है “
“ अब हमे कोई ड्रामा नही चाहिये ।”
आशा जी ने खाना ले तो लिया पर खाया नहीं जा रहा था । आसुओं के सैलाब उमड़ पड़े थे ।इतनी नफ़रत और ज़िल्लत भरी ज़िन्दगी से ऊब चुकी थी ।अभी तो छ महीने ही हुए है इतनी ज़िल्लत सह ली हमने । अब और नहीं ।काम वाली निशा थी जो आशा जी से सहानुभूति रखती थी ।समय समय पर आशा जी की मदद भी करती थी ।आशा जी को जो कुछ भी चाहिए होता था सोमा से छुप कर निशा जरूर ला कर देती थी ।
बोलती थी माँ जी आप रोया ना करो माँ की आसुओं का हिसाब ऊपर वाला ज़रूर लेता है ।आप देखना ये लोग बहुत पछतायेंगे ।निशा की बातें आशा जी को अच्छी लगती । पर बेटा बहू की बातें कलेजा छलनी कर देती थी ।आशा जी खाना ले कर बैठी तो थी खाने की इक्षा नहीं होने के बावजूद वो सूखी रोटी सब्जी खा ले रही थीं—पेट तो भरना ही था ।आसूँ थम नहीं रहे थे ।फिर आशा जी ने मन को मजबूत किया और एक फैसला लिया ।
इधर —
राजीव के फ़ोन पर एक मैसेज आया था जिसपर राजीव की नजर बहुत देर बाद अब पड़ी थी ।वो मैसेज इंस्योरेंस कम्पनी का था ।वो लोग वेरिफिकेशन के लिये कल आने वाले थे ।
रात के साढ़े बारह बज चुके थे ।राजीव ने सोमा को बोला कल माँ को अच्छे से तैयार कर देना एक अच्छी साड़ी पहना देना । कल इंस्योरेंस वाले वेरिफिकेशन के लिये आने वाले है ।माँ से भी मिलेंगे ।
“ मुझ से मत बोलो मैं नहीं कर पाऊँगी तुम ख़ुद ही बोल देना ।”
“तुमसे तो कुछ कहना ही बेकार है ।”राजीव खीज कर बोला ।
आज जल्दी नींद खुल गई राजीव की ।ऑफिस भी जाना था और कँपनी वालो से मिलना भी था माँ के कमरे की तरफ़ पहले गया ताकि माँ को समय पर तैयार होने को बोल सके ।
“माँ आप जरा जल्दी तैयार हो जाना – माँ ,माँ ,सुन रही हो ना माँ । कोई अवाज नहीं मिलने पर राजीव घबड़ा उठा ।दौड़ के कमरे में गया माँ तो वहाँ थी ही नहीं सामान भी नहीं था ।चारों तरफ़ देखा हर कमरे में बाहर भीतर माँ कही नहीं थी ।होती तो मिलती न ।माँ तो सुबह के ४ बजे ही घर से निकल गई थी ।कहाँ गई किसे पता ?
सर पकड़ के बैठ गया राजीव ।सोमा की तो बांछे खिल गई ।चलो बला टली ।पर राजीव बेचैन था पता नहीं माँ के लिए या इंस्योरेंस के पैसों के लिये (?)
माँ के बिना हस्ताक्षर के पैसे नहीं मिलते न ।
इधर ——आशा जी लंबी दूरी तय कर के दिल्ली से अपने पुश्तैनी गाँव राघोपुर आ गई ।आशा जी सोच रही थी—वहाँ सब लोग अपने है रिश्तेदार तो कोई नहीं पर इतना प्यार अपनापन है मान सम्मान है यहाँ चैन से ज़िन्दगी बसर हो जाएगी — उन कड़वे दिनों को भूल पाऊँगी वो अपमान भूल पाऊँगी जो मेरे ख़ुद के बेटे ने किये है ।
बीमा कंपनी वालो ने आशा जी के घर का पता लगा लिया है । और सारी रकम जो लगभग १ करोड़ की है आशा जी को सौंप दिया है । आशा जी अपने शर्तों पे अपनी मर्जी की जिंदगी जी रही है ।
लेखिका : सीमा अस्थाना