“वो एक ही बेटा…” – ज्योति आहूजा : Moral Stories in Hindi

पंजाब के मोगा शहर के एक छोटे से गाँव में जन्मा दलजीत, अपने माँ-बाप का इकलौता बेटा था।

माँ गुरविंदर और दादी हरबंस कौर की आँखों का तारा, और पिता सतपाल की एकमात्र उम्मीद।

बचपन में जब उसके हाथ में खिलौने की बंदूक होती, तो वो खेल-खेल में कहता—

“बापू, हाथ ऊपर कर! मैं देश का जवान हूँ, सबकी रक्षा करूँगा।”

पिता हँसते थे, माँ मुस्कराती थी…

लेकिन उस हँसी के पीछे एक सपना पल रहा था,

जिसे माँ दिल से जी रही थी।

वो छोटी सी उम्र से ही उसे सुबह जल्दी उठाना सिखाने लगी,

दौड़ लगवाती, डम्बल उठवाती, अनुशासन का पाठ पढ़ाती।

लोग कहते — “इतनी सख्ती किसलिए?”

माँ बस मुस्कराकर कहती — “समय आने दो… एक दिन इसी नाम से तिरंगा लहराएगा।”

स्कूल में एक दिन फैंसी ड्रेस प्रतियोगिता थी।

दलजीत ने कहा — “मैं तो फौजी ही बनूँगा।”

गाँव में वर्दी कहाँ मिलती… पर माँ ने रास्ता खोज निकाला।

शहर से वर्दी आई।

और मंच पर जब दलजीत फौजी बनकर खड़ा हुआ, तो तालियाँ रुकने का नाम न ले रही थीं।

माँ ने उसके सिर पर हाथ रखते हुए कहा — “आज नकली वर्दी में देख रही हूँ, कल असली वर्दी में देखूँगी — जीते जी।”

वक़्त बीता…

अब वो बड़ा हो चुका था।

उसके शरीर में ताक़त थी, मन में अनुशासन, और आँखों में सिर्फ एक सपना — देश की सेवा।

एक दिन उसने माँ और बापू के सामने अपने सपनों को रखा।

“मैं सेना में जाना चाहता हूँ, ये मेरी ज़िद नहीं, मेरी पहचान है।”

पिता एकदम से चौंक गए। कुछ देर चुप रहे…

फिर बोले — “बेटा, हम किसान लोग हैं।

बचपन में जब तू सुबह उठकर उठक-बैठक करता था, डम्बल उठाता था, मार्च करता था…

मैं तो उसे खेल समझ हँसकर टाल देता था।

मुझे कहाँ पता था कि वो खेल नहीं, तेरे मन में पल रहा एक जज़्बा था…

जो अब जन्म ले रहा है, सचमुच की आग बनकर।

हमारे घर से आज तक कोई फौज में नहीं गया।

और तू तो एक ही बेटा है हमारा।

तुझे कुछ हो गया तो हम किसे देखेंगे?”

दलजीत ने पिता की आँखों में आँखें डालकर कहा —

“बापू, जो माँ-बाप अपने बच्चों को सेना में भेजते हैं, वो भी हर सुबह दिल पर पत्थर रखकर भेजते हैं।

अगर सब माँ-बाप ऐसा सोचें तो फिर सरहदें खाली रह जाएँगी।

देश को मेरे जैसे कई दलजीतों की ज़रूरत है।

मैं चाहता हूँ — आप दोनों की मर्ज़ी और दुआओं के साथ जाऊँ।”

पिता की आँखें भर आईं।

उन्होंने गहरी साँस ली…

और धीरे से कहा —

“जा बेटा… तेरा बाप अब तुझे रोकेगा नहीं।

आज तू सिर्फ हमारा नहीं, देश का बेटा है।”

माँ ने उसे गले लगाते हुए कहा —

“तेरा सपना मेरा भी सपना था।

जा, वर्दी पहन और देश का नाम ऊँचा कर।”

चुपचाप बैठी दादी अब तक सब सुन रही थीं।

उनकी आवाज़ भारी हो चली थी —

“बेटा कोई खेत की फसल नहीं होता,

जो गया तो फिर उग आए…

वो तो माँ-बाप के सीने का टुकड़ा होता है।

और तुम दोनों… इतने पत्थर दिल कब से हो गए?

एक ही बेटा है तुम्हारा… और उसे भी भेजने को तैयार हो?”

उन्होंने दलजीत की ओर देखा और कहा —

“ठीक है, तू देश की सेवा करेगा…

पर बेटा, फौजियों पर तो हर वक्त ख़तरा मँडराता है।

जब-जब सरहद पर गोलियाँ चलती हैं, हमारे दिल भी काँपते हैं।

क्या तू समझता है ये डर आसान होता है?”

दलजीत ने दादी के हाथ पकड़ते हुए कहा —

“बेबे, जब फौजी सरहद पर दुश्मनों से लड़ता है, तभी तो देश की जनता चैन से सोती है।

उनका ख़तरा कम हो जाए — इससे बढ़कर और देश की सेवा क्या होगी?”

लेकिन ये सफर आसान नहीं था।

जहाँ एक तरफ़ मन में अटूट जज़्बा था, वहीं दूसरी ओर हर कदम पर चुनौतियाँ थीं।

कभी कमज़ोरियों ने पाँव पकड़े, तो कभी सिस्टम ने।

एक बार हाइट में आधा इंच कम पाया गया — बोर्ड ने साफ मना कर दिया।

दलजीत टूटा… पर बिखरा नहीं।

वो जानता था कि देश की वर्दी यूँ ही नहीं मिलती, इसके पीछे पसीना भी चाहिए, धैर्य भी और आग भी।

उसने खुद को फिर से तैयार किया —

बेहिसाब मेहनत की, हर सुबह पहले से ज़्यादा दौड़ा, डाइट पर ध्यान दिया,

कसरतों की हदें पार कीं, और उन तमाम फिजिकल क्रियाओं को पास किया

जो एक सिपाही के लिए ज़रूरी होती हैं।

एक दिन वही बोर्ड, जिसने उसे लौटाया था, उसे सलामी दे रहा था।

कुछ महीने बीते, और वो दिन आया…

जब दलजीत वर्दी पहनकर अपने गाँव लौटा।

माँ की आँखों में गर्व था।

पिता का सीना चौड़ा।

दादी की आँखों में चमक।

दलजीत ने माँ की कलाई में हरे काँच की चूड़ियाँ पहनाईं।

“माँ, अब तू हमेशा ये हरी चूड़ियाँ पहनना…

ये सिर्फ सुहाग की निशानी नहीं,

ये देश की हरियाली, फौज की वर्दी, और एक बेटे के वादे की पहचान हैं।”

माँ ने उसका माथा चूमा, आँसू पोंछे और कहा —

“मुझे तुझ पर गर्व है, मेरे लाल।”

वो खाना खा रहा था, और माँ उसे देखती रही…

आँखें नम, पर दिल भरा हुआ।

वो जानती थी — उसका बेटा अब सिर्फ उसका नहीं रहा,

वो अब पूरे देश का है। 

✍️ अंत में देश के वीर सपूतों को समर्पित कुछ स्वरचित पंक्तियाँ:

सपूत है किसी माँ के ये भी, कुछ निराले हैं देश के प्रति इनके अंदाज़।

हृदय में प्रेम का असीमित भंडार लिए, पहनते हैं बहादुरी का ताज।

क्या करूँ इनकी प्रशंसा मैं, कम पड़ रहे हैं मुख से अल्फाज़।

भारत की शान इन्हीं से, ये हैं तो हर जगह रंग —

प्रत्येक कोने-कोने में होता सुरक्षा का भाव।

दोस्तों 

आशा करती हूँ ये कहानी आपको अच्छी लगी होगी, अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दे।

जय हिन्द🇮🇳

ज्योति आहूजा

#पत्थर दिल

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