कमरे के कोने में धूप धीरे-धीरे उतर रही थी — वहीं, जहाँ रीमा बैठी थी। टेबल पर बिखरी किताबें, कॉपियों के बीच बच्चों के बनाए रंगीन कार्ड — थैंक यू मैम, यू आर द बेस्ट टीचर ।उसकी मेहनत और आत्मनिर्भरता के साक्षी थे। वो विज्ञान की अध्यापिका थी — पढ़ी-लिखी, समझदार और सबसे बड़ी बात, अपने पैरों पर खड़ी। लेकिन आज वो किताबें भी चुप थीं। रीमा खुद भी।
वो बाल सुलझा रही थी। धूप उसके चेहरे पर पड़ रही थी, पर आँखें किसी और ही सोच में खोई थीं। तभी माँ की आवाज़ आई — “रीमा… इस रविवार फिर लड़के वाले आ रहे हैं…” रीमा कुछ नहीं बोली। उसने बालों को जूड़े में समेट लिया — जैसे हर बार की तरह इस बार भी अपने सारे सवाल, सारे जवाब भीतर बाँध लिए हों।
रविवार आया। घर एक बार फिर सजा — जैसे हर बार सजता है किसी के “देखने” के लिए। नई चादरें, बिस्कुट-नमकीन की ट्रे, चाय की प्यालियाँ, और माँ की वही घबराई हिदायतें। रीमा ने वही सूती सलवार-कुर्ता पहना, जो उसे “ठीक” तो दिखाता था, लेकिन “खूबसूरत” कहे जाने से हमेशा चूक जाता
था। दरवाज़े पर दस्तक हुई। लड़के वाले आए। पलंग के किनारे बैठे। चाय के घूँट लिए गए। किसी ने मुस्कराकर पूछा — “स्कूल में क्या पढ़ाती हैं?” किसी ने एक हल्की नज़र डाली और फिर चाय की प्याली में झाँकने लगा।
कुछ ही देर में वही वाक्य दोहराया गया, जो रीमा अब तक कितनी बार सुन चुकी थी — “अच्छा लगा आप सबसे मिलकर। हम आपसे बात करके बतायेंगे…” और वे चले गए।
रीमा वहीं बैठी रह गई। न कोई सवाल, न कोई ताज़्जुब। हाथों में पकड़ी चाय अब तक ठंडी हो चुकी थी। उसके चेहरे पर कोई शिकन नहीं थी,
लेकिन उसकी साँसें भारी थीं। न ज़ुबान ने कुछ कहा, न आँखों ने कुछ गिराया। बस सीने के भीतर जो भरा था… वही भीतर रह गया। वो उठी भी नहीं। थोड़ी देर वैसे ही बैठी रही… और फिर — जैसे हर बार करती थी, इस बार भी… आँसू पीकर रह गई।
वो जानती थी —
फिर से वही होगा,
कोई फोन नहीं आएगा,
या आएगा तो वही पुराना जवाब…
“लड़की तो होशियार है… पर रंग थोड़ा दबा है…”
लेकिन इस बार कुछ बदला। दादी उठीं। काँपती कमर, झुकी पीठ, लेकिन आँखों में तेज़। पूरे घर में सन्नाटा पसर गया। कुछ चेहरे उलझन में थे — “ये बुढ़िया रीमा की तरफ क्यों बोल रही है?” “पुराने ज़माने की औरतें तो उल्टा ताने देती हैं…”
दादी ने सीधा कहा — “बस बहुत हुआ। अब मेरी रीमा को कोई और देखने नहीं आएगा। बेटी कोई सजावट की चीज़ नहीं होती। वो इंसान है, और इंसान को समझा जाता है, तौला नहीं। हाँ, साँवली है — पर उसकी आँखों में देखो कभी — जैसे शांत झील में डूबती शाम। उसकी मुस्कान में देखो — जैसे मन का मंदिर खुल जाता है।
समाज की ये क्या सोच है? लड़के खुद मोटे, नाटे, साँवले, बेरोज़गार भी हो सकते हैं — लेकिन चाहिए लड़की… हूर परी जैसी! अरे, पहले खुद को देखो ज़रा! और अब सुनो — मैं इस सोच से बाहर आ चुकी हूँ। अब मैं इस बात पर विश्वास करती हूँ कि समाज में ऐसे परिवार भी हैं जहाँ माँ-बाप अपने बेटों को ये सिखाते होंगे कि सुंदरता चेहरे में नहीं — व्यवहार,
समझ और आत्मसम्मान में होती है। और अगर किस्मत में होगा, तो ऐसा लड़का भी मिलेगा — जो रीमा को देखकर कहेगा — ‘यही है वो, जिसे मैं जीवनसाथी बनाना चाहता हूँ।’
और मेरी बच्ची… अब कोई ज़रूरत नहीं है हर बार आँसू पीकर चुप रहने की। तू जैसी है, वैसी ही सबसे ख़ूबसूरत है।”देखना तू राज करेगी उस घर में जिस घर में जाएगी। मेरा रोम रोम तुझे आशीर्वाद दे रहा है मेरी बच्ची।और रीमा अपनी दादी के गले लग कर लिपट गई।
कभी-कभी सुंदरता पर नहीं — दृष्टि पर निर्भर होता है प्रेम। रीमा जैसी बेटियाँ अपने रंग से नहीं, अपने मन की रौशनी से पहचानी जाती हैं। और एक दिन — कोई ऐसा आता है, जो उस चमक में खुद को ढूँढ़ लेता है।
उम्मीद है ये लघुकथा आप को पसंद आयेगी।
ज्योति आहूजा
#आंसू पी कर रह जाना