गाँव के आखिरी छोर पर बने एक छोटे से घर में, रहता था आकाश. घर में बूढ़े माँ-बाप थे, दो बहनें – बड़ी, रमा तो अपने ससुराल जा चुकी थी, पर छोटी, पूजा की शादी की चिंता में सब परेशान रहते थे . और थे दो भाई – बड़ा, सुरेश, जो गाँव की छोटी-मोटी दुकान और खेतों का काम संभालता था, जिसके अपने दो छोटे-छोटे बच्चे भी थे., और खुद आकाश सबसे छोटा ।
इस पूरे कुनबे ने अपनी सारी आस आकाश पर टिका रखी थी. हर कोई कहता, “हमारा आकाश तो बड़ा अफसर बनेगा,” “शहर से कमाई करके लाएगा तो अपनी सारी गरीबी मिट जाएगी,” “देखना, हमारी तकदीर बदल देगा ये छोरा!” – घर में बस यही बातें चलतीं।
आकाश भी कहाँ पीछे हटने वाला था. वह था भी पढ़ाई में अव्वल दर्जे का. बचपन से ही उसे पता था कि उसके कंधों पर पूरे परिवार का बोझ है. स्कूल में उसे छात्रवृत्ति (स्कॉलरशिप) मिल जाती थी, जिससे किताबें और बाकी खर्च निकल जाते थे. शाम को स्कूल से आते ही, वह गाँव के कुछ बच्चों को ट्यूशन पढ़ाता, और उन्हीं पैसों से अपनी फीस भरता ।
घर वालों ने उसे कभी दुकान या खेतों के काम में हाथ बँटाने को नहीं कहा, क्योंकि वे जानते थे कि आकाश पढ़ाई में अच्छा है। अगर आकाश को कोई अच्छी नौकरी मिल जाएगी पढ़ाई करने के बाद तो उनके दिन बदल जाएंगे।
फिर वो दिन आया जब आकाश ने शहर का रुख किया, बड़ी-बड़ी कंपनियों में इंटरव्यू देने के लिए । शहर की जगमग देखकर तो एक पल को उसे अपना छोटा सा गाँव और घर धुँधला सा लगा, पर उसे याद था कि ये सारी मेहनत, ये सारा सपना किस लिए है – अपने परिवार को एक बेहतर ज़िंदगी देने के लिए.
शुरू में तो लगा, बस हो गया काम. “एक-दो महीने की बात है, नौकरी पक्की,” उसने मन ही मन सोचा. पर शहर की राहें इतनी सीधी नहीं थीं, जितनी दिखती थीं। एक के बाद एक, हर इंटरव्यू में निराशा हाथ लगी. “कोई बात नहीं, अगली बार तो पक्का मिलेगी,” वह खुद को समझाता, पर दिल में निराशा का अँधेरा धीरे-धीरे गहराता जा रहा था। जब भी गाँव से माँ-बाप का फोन आता, वह अपनी आवाज़ में ज़बरदस्ती का उत्साह भर लेता.
“क्या हुआ बेटा, नौकरी मिली?” माँ की आवाज़ में एक अजीब सी बेचैनी होती, उम्मीद और डर दोनों घुले हुए.
“अरे माँ, अभी कहाँ! बस बात चल रही है, कहीं अच्छी जगह ही मिलेगी, तुम चिंता मत करो.” वह मन मारकर झूठ बोलता.
जब कभी वह कुछ दिनों के लिए घर लौटता, तो माहौल बदला-बदला सा लगता. बड़ी भाभी, जो उसे पहले बहुत प्यार करती थीं, अब कहतीं, “क्यों भाई, कब तक यूँ ही खाली बैठे रहोगे? इससे अच्छा तो अपने भाई के साथ दुकान पर बैठ जाते, चार पैसे तो घर में आते .”
बड़ा भाई सुरेश भी सिर खुजलाते हुए कहता, “यार आकाश, कब तक मैं ही सब कुछ संभालूं? पूजा की शादी भी तो करनी है, तुझे पता है ना!”
और रिश्तेदार-पड़ोसी तो मौका देखते ही ताना कस देते, “अरे, इतना पढ़ा-लिखाकर भी कुछ नहीं हुआ! इससे अच्छा तो यहीं गाँव में अपने बाप-दादा का काम कर लेता.”
माँ-बाप के चेहरे पर छाई उदासी देखकर उसका दिल छलनी हो जाता. वे पूजा की शादी और घर- गृहस्थी की ज़रूरतों का रोना रोते रहते।
आकाश चुपचाप सब सुनता रहता। उसके गले में जैसे कुछ अटक जाता। आँखें डबडबा जातीं, पर उन आँसुओं को भीतर ही भीतर पीकर वह बस अपने होंठ भींच लेता. उम्मीदों का बोझ और अपनी बेबसी के वो आँसू, जिन्हें कोई नहीं देख पाता था. ये आँसू उसके अकेले के थे।
महीनों की भाग-दौड़ और कई रातों की नींद खराब करने के बाद, एक दिन आकाश को एक छोटी-मोटी प्राइवेट कंपनी में नौकरी मिल ही गई। उसकी पढ़ाई के हिसाब से वह कोई बहुत अच्छी नौकरी नहीं थी, और तनख्वाह भी नाममात्र की थी, पर कम से कम ‘नौकरी’ तो थी.
पूरे परिवार ने राहत की साँस ली.
वह फिर शहर आ गया. पैसों की बचत करने के लिए उसने एक पुरानी, तंग चॉल में एक कमरा लिया, जहाँ कई और लड़के भी रहते थे. घर से मीलों दूर, उस भीड़ भरे शहर में वह एकदम अकेला था. खाने के पैसे बचाने के लिए उसने खुद ही चूल्हा-चौका संभालना शुरू किया। कभी जल्दबाजी में हाथ जल जाता, तो कभी सब्जी में नमक ज़्यादा हो जाता, और कभी तो भूख पेट ही रात गुज़ारनी पड़ जाती.
रात को जब अकेला होता, तो घर और माँ के हाथ के स्वादिष्ट खाने की बहुत याद आती. आँखें नम हो जातीं, पर अगली सुबह फिर चेहरे पर झूठी मुस्कान सजाकर काम पर निकल पड़ता। लेकिन उसके आँसू सिर्फ़ वहां की बंद दीवारों ने देखे थे.
हर महीने वह अपनी आधी से ज़्यादा तनख्वाह घर भेज देता. छोटी बहन पूजा की शादी के लिए अलग से पैसे बचाता रहता.
जब भी गाँव से घर का फोन आता, उसके अंदर एक छोटी सी उम्मीद जगती कि शायद कोई उसका हाल पूछेगा, उसकी मेहनत को समझेगा.
“हाँ आकाश, पैसे मिल गए. कितनी तनख्वाह मिली इस महीने?” माँ सीधा मुद्दे पर आतीं।
“पैसा कम पड़ रहा है? पूजा की शादी में अभी और लगेंगे.” सुरेश बेफ्रिक होकर पूछता.
“क्या भाई, अब तो शहर में ऐश करता होगा, फ्री में सेट हो गया है!” भाभी मज़ाक में ताना मारतीं.
कोई नहीं पूछता, “तू कैसा है, बेटा?”, “खाना-वाना ठीक से खा रहा है ना?”, “कोई परेशानी तो नहीं है?”
आकाश का दिल चूर-चूर हो जाता. उसे लगता, उसकी कीमत बस उन पैसों से है जो वह भेजता है. उसका अकेलापन, उसका काम का दबाव – ये सब उनके लिए कोई मायने नहीं रखते थे।
उसके होंठ काँपते, पर वह फिर अपने आँसू पीकर रह जाता. फोन पर हमेशा यही कहता, “हाँ, सब ठीक है. मैं खुश हूँ.”
एक बार जब वह कुछ दिनों की छुट्टी पर घर आया, तो उसने अपनी थकान और मुश्किलों का हल्का सा ज़िक्र किया।
“आजकल काम बहुत बढ़ गया है, और शहर में रहना भी काफी मुश्किल होता है.” उसने धीरे से कहा.
उसकी बात सुनते ही घर में तनाव का माहौल बन गया।
पिताजी तुरंत बोले, “देख बेटा, अगर तू नौकरी छोड़ कर आ जाएगा या ऐसे परेशान होगा तो हमारा क्या होगा? पूजा की शादी कौन करेगा? तेरी नौकरी ही हमारा इकलौता सहारा है.”
माँ बोलीं, “अरे भगवान का शुक्र है कि तुझे नौकरी तो मिली. बस तू मन लगाकर काम कर. थोड़ी मुश्किल तो सबको होती है.”
आकाश जानता था कि अब पीछे हटने का कोई रास्ता नहीं था. उसके अपने सपने शायद शहर की भीड़ में कहीं खो गए थे, उसकी पसंद-नापसंद अब बेमानी हो चुकी थी।
वह सिर्फ अपने परिवार की उम्मीदों का बोझ ढोने वाला एक साधन मात्र बन चुका था. उस पल, उसने अपने सारे निजी दुख, सारी इच्छाएँ, और अपने अकेलेपन को अपने अंदर ही दफ़न कर लिया. उसकी आँखों में जो समंदर था, उसे वह हमेशा के लिए अपने भीतर ही समेट लेता.
वह “आँसू पीकर रह जाना” सीख चुका था.
आज भी आकाश शहर में है. बाहर से देखने पर वह एक ‘कामयाब’ बेटा है. परिवार खुश है, पूजा की शादी भी धूमधाम से हो गई है।
लेकिन जब भी वह देर रात अपने छोटे-से कमरे में अकेला होता है, तो दीवारों पर उसे अपने अनकहे आँसू और उन लाखों उम्मीदों का बोझ दिखाई देता है, जिन्हें उसने कभी किसी को नहीं दिखाया। वह नायक है – एक ऐसा नायक जिसके आँसू सिर्फ उसके तकिए ने देखे हैं, और जिसकी कहानी सिर्फ उसके दिल ने सुनी है
लेखिका: मीनाक्षी गुप्ता (मिनी)